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________________ 82] [राजप्रश्नीयसूत्र अप्फोया मालुका / लेकिन प्रसंग से ऐसा प्रतीत होता है कि ये सभी लतायें प्रायः सुगंधित पुष्पों वाली होनी चाहिये। १५०–तेसु णं जातिमंडवएसु जाव मालुयामंडवएसु बहवे पुढविसिलापट्टगा हंसासणसंठिया जाव दिसासोवस्थियासणसंठिया, अण्णे य बहवे वरसयणासणविसिट्ठसंठाणसंठिया' पुढविसिलापट्टगा पण्णत्ता समाणाउसो ! आईणग-रूय-बूर-णवणीय-तुलफासा, सम्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। १५०-हे आयुष्मन् श्रमणो ! उन जातिमंडपों यावत् मालुकामंडपों में कितने ही हंसासन सदश प्राकार वाले यावत कितने ही क्रोचासन, कितने ही गरुडासन, कितने ही उन्नतासन, कितने ही प्रणतासन, कितने ही दीर्घासन, कितने ही भद्रासन, कितने ही पक्ष्यासन, कितने ही मकरासन, कितने वृषभासन, कितने ही सिंहासन, कितने ही पद्मासन, कितने ही दिशा स्वस्तिकासन जैसे आकार वाले पृथ्वीशिलापट्टक तथा दूसरे भी बहुत से श्रेष्ठ शयनासन (शैया, पलंग) सदृश विशिष्ट आकार वाले पृथ्वी शिलापट्टक रखे हुए हैं। ये सभी पृथ्वीशिलापट्टक चर्मनिर्मित वस्त्र अथवा मृगछाला, रुई, बूर, नवनीत, तूल, सेमल या पाक की रुई के स्पर्श जैसे सुकोमल, कमनीय, सर्वरत्नमय, निर्मल यावत् अतीव रमणीय हैं। १५१-तत्थ णं बहवे वैमाणिया देवा य देवीयो य प्रासयंति, सयंति, चिटुंति, निसीयंति, तुयट्ट ति, रमंति, ललंति, कोलंति, किटेंति, मोहेंति, पुरा पोराणाणं सुचिण्णाण सुपरिक्कंताण सुभाण कडाण कम्माण कल्लाणाण कल्लाणं फलविवागं पच्चणुभवमाणा विहरंति / १५१--उन हंसासनों आदि पर बहुत से सूर्याभविमानवासी देव और देवियाँ सुखपूर्वक बैठते हैं, सोते हैं, शरीर को लम्बा कर लेटते हैं, विश्राम करते हैं, ठहरते हैं, करवट लेते हैं, रमण करते हैं, केलिक्रीड़ा करते हैं, इच्छानुसार भोग-विलास भोगते हैं, मनोविनोद करते हैं, रासलीला करते हैं और रतिक्रीड़ा करते हैं / इस प्रकार वे अपने-अपने सुपुरुषार्थ से पूर्वोपार्जित शुभ, कल्याणमय शुभफलप्रद, मंगलरूप पुण्य कर्मों के कल्याणरूप फलविपाक का अनुभव करते हुए समय बिताते हैं। वनखण्डवर्ती प्रासादावतंसक १५२-तेसि णं वणसंडाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं-पत्तेयं पासायवडेंसगा पण्णत्ता, तेणं पासायवडेसगा पंच जोयणसयाई उड्ड उच्चत्तेणं, अड्डाइज्जाई जोयणसयाई विक्खंभेणं, अब्भुग्गयमूसियपहसिया इव तहेव बहुसमरमणिज्जभूमिभागो, उल्लोप्रो, सीहासणं सपरिवारं। तत्थ गं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव महज्जइया, महाबला, महासुक्खा महाणुभावा) पलिप्रोवद्वितीया परिवसंति, तंजहा प्रसोए सत्तपण्णे चंपए चूए। १५२–उन वनखण्डों के मध्यातिमध्य भाग में (बीचोंबीच) एक-एक प्रासादावतंसक (प्रासादों के शिरोभूषण रूप श्रेष्ठ प्रासाद) कहे हैं। ये प्रासादावतंसक पाँच सौ योजन ऊँचे और अढ़ाई सौ योजन चौड़े हैं और अपनी उज्ज्वल प्रभा से हंसते हुए से प्रतीत होते हैं। इनका भूमिभाग अतिसम एवं रमणीय है। इनके चंदेवा, सामानिक आदि देवों के भद्रासनों सहित सिंहासन आदि का वर्णन पूर्ववत् कर लेना चाहिए। 1. पाठान्तर-मांसलसुघट्टविसिट्ठसंठाणसंठिया / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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