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________________ तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन ] [183 है / लेकिन जो प्रत्यक्ष कारण मैं बताता हूँ, उससे यही सिद्ध होता है कि जीव और शरीर एक ही हैं / वह कारण इस प्रकार है-- हे भदन्त ! किसी एक दिन मैं गणनायक आदि के साथ बाहरी उपस्थानशाला में बैठा था। तोला / तोलकर फिर मैंने अंगभंग किये बिना ही उसको जीवन रहित कर दिया--मार डाला और मार कर फिर मैंने उसे तोला / उस पुरुष का जीवित रहते जो तोल था उतना ही मरने के बाद था। जीवित रहते और मरने के बाद के तोल में मुझे किसो भी प्रकार का अंतर-न्यूनाधिकता दिखाई नहीं दी, न उसका भार बढ़ा और न कम हुना, न वह वजनदार हुआ और न हल्का हुना। इसलिए हे भदन्त ! यदि उस पुरुष के जोवितावस्था के वजन से मृतावस्था के वजन में किसी प्रकार को न्यूनाधिकता हो जातो, यावत् हलकापन पा जाता तो मैं इस बात पर श्रद्धा कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव और शरीर एक नहीं है / / लेकिन भदन्त ! मैंने उस पुरुष की जीवित और मृत अवस्था में किये गये तोल में किसी प्रकार की भिन्नता, न्यूनाधिकता यावत् लघुता नहीं देखी। इस कारण मेरा यह मानना समोचीन है कि जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है किन्तु जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं। २५७----तए णं केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासीअस्थि णं पएसी! तुमे कयाइ क्थी धंतपुठने वा धमावियपुब्वे वा ? हंता अस्थि / अस्थि णं पएसो तस्त वस्थिस्स पुण्णस्स वा तुलियस्स अपुण्णस्स वा तुलियस्स केइ अण्णत्ते या जाव लहुयत्ते वा? णो तिणठे समठे। एवामेव पएसी ! जीवस्स अगुरुलधुयत्तं पडुच्च जीवंतस्स वा तुलियस्स मुयस वा तुलियस्स नस्थि केइ प्राणते वा जाव लहुयत्ते वा, तं सदाहि णं तुमं पएसी! तं चेव / २५७---इसके बाद केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा-हे प्रदेशी ! तुमने कभी धौंकनी में हवा भरी है अथवा किसी से भरवाई है ? प्रदेशी-हाँ भदन्त ! भरी है और भरवाई है / केशी कुमारश्रमण-हे प्रदेशी ! जब वायु से भर कर उस धौंकनी को तोला तब और वायु को निकाल कर तोला तब तुमको उसके वजन में कुछ न्यूनाधिकता यावत् लघुता मालूम हुई ? प्रदेशी-भदन्त ! यह अर्थ तो समर्थ नहीं है, यानी न्यूनाधिकता यावत् लघुता कुछ भी दृष्टिगत नहीं हुई। केशी कुमारश्रमण-तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! जीव के अगुरुलघुत्व को समझ कर उस चोर के शरीर के जीवितावस्था में किये गये तोल में और मृतावस्था में किये गये तोल में कुछ भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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