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श्री महावीर ग्रंथ प्रकारमी-पंचम पुष्प
प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
[ १६ वीं गाताब्दि के पांच प्रतिनिधि कवियों-प्राचार्य सोमकोति, सांगु, ब्रह्मा गुणकीति, भ, यशःकोसि एवं बाह्य यशोषर के जोवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व के साथ में उनकी ३७ कूतियों के मूल पाठों का संकलन ]
लेखक एवं सम्पादक डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल
एम. ए., पी-एच. डी., शास्त्री
प्रकाशक
___ भी महावीर अब कापी,
श्री महावीर ग्रंथ अकादमी, जयपुर
मूल्य 60/
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सरंक्षक की ओर से
श्री महावीर ग्रंथ अकादमी का परचम पुष्प "माचार्य सोमकीति एवं ब्रहा यशोघर" को पाठकों के हाथों में देत हए हम अतांद प्रसभा | FIR संकादमी की २० भागों के प्रकाशन की योजना का २५ प्रतिशत कार्य पूरा हो चुका है। इस पुष्प के साथ प्रब तक जिन अशात एवं अल्प-ज्ञात हिन्दी जैन कवियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला जा चुका है । उनका विवरण निम्न प्रकार हैकविका
समय
मल कृतियों भाग नाम
की संक्या १ महाकवि ब्रह्म रायमल्ल १६-१७वीं शताम्दी
प्रथम २ भट्टारक त्रिभुवनकीर्ति ३ कविवर चराज १६वीं शताब्दी
द्वितीय , छोहल । ठक्कुरसी
, गारवदास . , चुतुरुमल ८ महाकवि ब्रह्म जिनदास १५वीं शताब्दी
भट्टारक रत्नकीर्ति १७वीं शताब्दी १० , कुमुदचन्द ११ , प्रभयचन्द
" शुभषन्द १३ , रत्तचन्द
श्रीपाल
, जयसागर १६ , चन्द्रकीति १७ । भणेश १८ पाचार्य सोमकीति १६वीं शताब्दी १६ कविवर सांगु
पञ्चम
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२०
ब्रह्म गुणकीर्ति
२१ भट्टारक यश कीर्ति २२ ब्रह्म यशोवर
{ ix )
१६वीं शताब्दी
"
.
४
२६
पञ्चम
"
Fr
इस प्रकार १६वीं एवं १७वीं शताब्दी के २२ प्रतिनिधि कवियों का मूल्या न एवं उनकी छोटी-बड़ी १६० कृतियो का प्रकाशन एवं महत्वपूर्ण उपलब्धि है, जिसके लिए अकादमी के निदेशक एवं प्रधान सम्पादक डॉ० कासलीवाल अभिनन्दनीय हैं। वास्तव में डॉ० कासलीवाल का यही प्रयत्न रहा है कि अज्ञात कोनों में से प्राचीन सागग्री एवं परम्पराओं का सवेंरण कर उन्हें प्रकाश में लायें । प्रस्तुत ग्रन्थ भी उनकी इसी शुभवृति का सुफल है। प्रस्तुत ग्रंथ के लेखक एवं प्रधान सम्पा दक भी डॉ. कासलीवाल ही हैं। वैसे तो वे गत ३५ वर्षों से साहित्यिक कार्यों में संलग्न हैं लेकिन गत ४ वर्षो से तो उनका पूरा समय ही साहित्य देवता के लिए समर्पित है ।
पंचम भाग के सम्पादक मण्डल के सदस्यों में डॉ० महेंद्रसागर प्रचंडिया प्रालीगढ़, श्री नाथूलाल जैन, मुख्य अधिवक्ता राजस्थान सरकार, जयपुर एवं श्रीमती डॉ० कोकिला सेठी है। तीनों ही विद्वानों ने प्रस्तुत ग्रंथ के सम्पादन में जो परिश्रम किया है उसके लिए हम इनके आभारी हैं। आशा है प्रकादमी को सभी विद्वानों का भविष्य में भी सहयोग प्राप्त होता रहेगा ।
अकादमी की लोकप्रियता में निरन्तर वृद्धि हो रही है। चतुर्थ भाग का विमोचन पूज्य क्षुल्लक रत्न १०५ श्री सिद्धसागर जी महाराज द्वारा भागलपुर में इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पर हुआ था और उन्हीं की प्रेरणा से विमोचन समारोह में मैंने स्वयं ने देखा था कि, उपस्थित समाज ने अकादमी को साहित्यिक योजना में अपना पूर्ण सहयोग देने में प्रसन्नता प्रकट की थी। चतुर्थ भाग के प्रकाशन के पश्चात् श्र. मा. दि. जैन महासभा के उत्साही अध्यक्ष एवं धावक रत्न श्री निर्मलकुमार जी सेठी, सरिया लखनऊ (बिहार) के प्रसिद्ध समाज सेवी श्री महावीर प्रसाद जी सेठी एवं जयपुर के उद्योगपति श्री कमलचन्द जी कासलीवाल ने अकादमी का संरक्षक सदस्य बनने की प्रतिकृपा की है उसके लिए हम तीनों ही महानुभावों के आभारी है। इसी तरह मूड बद्री के भट्टारक एवं पण्डिताचार्य स्वस्ति श्री पाहवीति जी महाराज ने अकादमी का परम संरक्षक बनने की स्वीकृति दी है। भट्टारक जी महाराज स्वयं साहित्य-प्रेमी, अच्छे वक्ता एवं लेखक है। प्रकादमी को आपके द्वारा जो संरक्षण प्राप्त हुआ है हम उसके लिये पूर्णाभारी हैं। वैसे भकादमी के पाँचों ही प्रकाशन मध्य काल में होने वाले भट्टारकों एवं उनके शिष्य प्रशिष्यों की प्रभूतपूर्व सहत्यिक सेवा के
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(५)
परिचायक हैं । वास्तव में डॉ. कासलीवाल ने अपने इन प्रकाशनों द्वारा भट्टारकों के साहित्यिक एवं सांस्कृतिक योगदान को पुनः प्रकाश में लाकर समाज का प्रशस्त मार्गदर्शन किया है।
चतुर्थ भाग के विमोचन के पश्चात् हम सभी नये उपाध्यक्षा शुत्र श्री लखचन्द बाकलीवाल, पद्मकुमार जैन नेपालगंज, सम्पतराय अग्रवाल कटक, रतालाल निनायवथा भागलपुर एवं डा. ताराचन्द बानी जयपूर का हादिक स्वागत करते हैं। सभी उपाध्यक्ष हमारे समाज के जाने माने सज्जन हैं तथा सामाजिक क्षेत्र में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहता है । इसी तरह संचालन समिति के सभी भाननीय नये सदस्यों एवं विशिष्ट सदस्यों के प्रति आभार प्रकट करता हूं जिन्होंने अपना सहयोग देकर प्रकादमी की गति प्रदान की है । मैं सर्वश्री मागीलाल सेठी मुजानगढ़ एवं ताराचंद प्रेमी फिरोजपुर-भिरका का विशेष प्राभारी हं जो स्वयं यकादमी के सदस्य बन गये हैं एवं अन्य महानुभावों को भी सदस्य बनाने में अपना पूर्ण सहयोग देते है। हम चाहते हैं कि पष्टम भाग के प्रकाशन के पूर्व अकादमी की सदस्य संख्या कम से कम ५110 तक पहुंच जाय । प्रायः है कि कि सभी का सहगो पात्र होगा।
पूनमचन्द गंगवाल
झरिया (बिहार) दिनांक १०-६-२
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सम्पादकीय
वैदिक, बौद्ध और जैन साहित्य मिलकर भारतीय साहित्य के रूप को स्वरूप प्रदान करते हैं । 4दि साहित्य क लिए वेद, बौद्ध-बार मय के लिए पिटक और जैन साहित्य के लिये मागम शब्द का व्यवहार प्रारम्भ से ही होता रहा है । सम्पूर्ण प्रागम को (१) प्रथमानुयोग, (२) कररणानुयोग, (३) परणानुयोग, तथा (४) द्रव्यायोग उन चार भागों में विभाजित किया गया है।
प्रपनामो के , जान नौर मोन अथवा जिनेन्द्र देवों पर मात अनेक ज्ञानपूर्श कथाएँ तथा पुराणों का समावेश है। करगानुयोग के शास्त्रों में कर्म सिद्धान्त और लोक व्यवहार का विशद व्याख्यान है । चरणानुयोग के शास्त्रों मे श्रावक तथा यति अर्थात् साधु-संगठन और आचारसंहिता का विशद विधान परिणत है । द्रव्यानुयोग के शास्त्रों में घेनन-प्रवेतन, घट्दयों तथा तत्य लक्षणों का विस्तार पूर्वक विश्लेषण किया गया है।
प्राकृत भाषा अपने अनेक प्रांतीय रूपों को समेटती भारतीय संस्कृति को शब्दायित करती रही है। मागधी, प्रमागधी, पालि प्रादि रूपों को ग्रहण करती हुई उसका जो रूप घिस-पिस कर स्थिर हुअा बन्द प्रयभ्रषा के नाम से समाहत हुमा । अपभ्रश के वत्स से पुरानी हिन्दी ब्रजभाषा का प्रातिम रूप उना-प्रफुरित और पल्लवित हुआ । इस प्रकार उकार बहुल ब्रजभाया हिन्दी या आदिम रूप प्रपन्नश के कोड से उत्पन्न हुआ। संस्कृत हिन्दी की जननी है, यह शारामा भाषा-विज्ञान की दृष्टि से चिरञ्जीवी नहीं रह सकी।
राजस्थानी डिंगल और पिगल स्वरूपा हिन्दी विविध कानों में अपने-अपने समुदाय और ममाज के स्वरूप को अभिव्यक्ति देती रही है। राज्याथित कवियों द्वारा राज-सत्ता और महत्ता का सातिमय वर्णन शब्दायित हुनत । कहीं कहीं अमुक अमुक काव्य-धागनों से अनुप्रेरित व.पियों ने तत्सम्बन्धी संकीर्ग विचारणामों को व्यक्त किया है। इस प्रकार काल-क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए हिन्दी साहित्य का कलेवर वृद्धगत होता गया।
पदयात्री संतों की अपनी एक परम्परा रही है : जन सन्त इस परम्परा के नायक प्रोर उन्नायक रहे हैं । जैन मुनियों, माचार्यो तथा सिद्ध-साधकों, मनीषियों ने देश के प्रधान-उपप्रधान तथा क्षेत्रीय भाषा और उपभाषामों में जनमल्याणकारी
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विपुल साहित्य की प्रागम के अनुरूप रचना की है, फलस्वरूप इसमें शुभ, सत्य और सुखद सम्भावनामों का समीकरण प्रारम्भ से ही परिलक्षित है। जैन साहित्य जिन' वाणी संग्रहों में सुरक्षित रहा जिसके स्वाध्याय की नियमित परम्परा जैन समुदाय में विद्यमान रही। देश में अनेक 'स्वाध्याय संलियाँ' स्थिर हुयौं जिनके द्वारा शास्त्र. प्रवचन, शंका समाधान, तत्त्व चर्चा आदि दृष्टियों से साहित्य का अध्ययन-अनुशीलन चलता रहा।
कालान्तर में जब साहित्यिक इतिहास रचे गये तब हिन्दी भाषा में रची गई कुतियों की खोजखबर ली गई । शक्ति और सामर्यानुसार जिन-जिन साहित्याचार्यों न काम किये वे अनुशंसित हुए परन्तु जैन हिन्दी साहित्य को प्रकाश में लाने और उसे हिन्दी साहित्य के सिंहासन पर प्रतिष्ठित करने-कराने का श्रेय महापण्डित राहुल सांकृत्यायन, नायूराम प्रेमी, बाबू कामताप्रसाद अन, मुनियर जि. विजय को महाज भाचार्य हजारोप्रसाद द्विवेदी, पंडित अगरचन्द नाहदा तथा डॉ० रामसिंह तोमर प्राधि अनेक अनुसंधिमुनो और साहित्य साधको को रहा है परिणामस्वरूप प्राज साहित्यिक इतिहास नये सिरे से रचे जाने लगे हैं।
जैन कवियों ने हिन्दी में प्रारम्भ से ही लिखना प्रारम्भ कर दिया और बड़ी विशेषता यह है कि अभिव्यक्ति के अनेक कापों को स्थिर करने में इन कवियों ने अगुवा बनकर जिस मृजनात्मक भूमिका का निर्वाह किया वह विद्वत् समाज में प्राज भी समारत है। भाव-सम्पदा, भाषा अलंकार छन्द, व्याकरण, काव्य रूप तथा शैली शिल्प प्रादि मनेक काब्य गास्त्रीय दृष्टि से यदि जैन हिन्दी साहित्य को अन्वित मौर और समन्वित नहीं किया गया तो हिन्दी साहित्य कमी पूर्ण नहीं कहा जा सकता, यह वस्तुत: गवेषरा स्मिक सत्य है ।
अनेक अब्धियों और दशाब्दियों पूर्व जब मेरी पहले-पहल अनुसन्धान की दृष्टि से राजस्थानी यात्रा प्रारम्भ हुई थी उस समय हिन्दी जैन साहित्य को उजागर करने का प्रश्न सामने प्राया था । अनेक शोधार्थियों की समस्या और उसके समाधान पर मादरणीय प्रियवर डॉ० कस्तूरचन्द जी कासलीवाल, पं. अनपचन्द्र जी शास्त्री प्रादि जयपुरिया साहित्यिक स्रोजियों से विचार-विमर्श हुए और तय हुमा कि लुप्त विलुप्त भांडारों में भरी पड़ी सामत्री को प्रकाशित कराया जाय । दशान्दियों बाद यह सौभाग्य बन पाया कि श्री महावीर ग्रंथ अकादमी के माध्यम से हिन्दी साहित्य को इस रूप में व्यवस्थित प्रौर प्रकाशित किया जा रहा है। हर्ष का विषय है कि मझ जैसे अनेक भाइयों के निर्देशन में अनेक विश्वविद्यालयों के अधीन, पी-एचडी. उपाधि के लिए हिन्दी जैन कवियों पर अध्ययन हुआ है और कार्य चल रहा है।
इस कार्य सम्पादन में भाई कासलीवान जी को कितने पापड़ बेलने पड़े हैं, इसकी प्रतीति मुझे है, वस्तुतः विचारणीय बात है । के इस भागीरथ काम को पार जगा रहे हैं वस्तुतः बहुत बड़ी बात है।
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सामाजिक श्रेष्ठियों को इस दिशा में सक्रिय सहयोग देना चाहिए ताकि जिनेन्द्र वारपी-हिन्दी साहित्य धारा में भी समवेत होकर कल्याणकारी मार्ग का प्रवर्तन कर सके।
पाकादशी के स्टा गनाती - में सोलरनी शताब्दी के समर्थ कविमनीषी सोमकीति, ब्रह्म यशोधर, सांगु, गुणीति तथा यमकीर्ति का प्रामाणिक व्यक्तित्व तमा कृतित्व परक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है । हिन्दी के समकालीन गुरु नानक, कबीरदास, चरणदास, अनन्तदास तथा पुरुषोत्तम भादि अनेक कवि उल्लेखनीय है जिनके साथ इन कवियों का तुलनात्मक तथा साहित्यिक मूल्या न होना चाहिए 1 मान्य शोध-निदेशक-बन्धुओं से निवेदन है कि वे कतिपय मेधावी शोधार्थियों का चयन कर जैन कवियों के साहित्य का स्तरीय प्रशन पोर मूल्याङ्कन प्रस्तुत करावें !
इस प्रकार प्रस्तुत पुष्प के प्रकाशन की अावश्यकता-उपयोगिता प्रसंदिग्ध है। प्राशा ही नहीं पूरा भरोसा है कि श्री महावीर ग्रंथ प्रकादमी की यह पुष्प-प्रकाशन की परम्परा चिरञ्जीवी रहेगी और हिन्दी साहित्यिक के कलेवर को अभिवृद्ध करेगी तथा साहित्यक कुलकरों की कुल-कीति को सुरक्षित रख सकेगी। हम इस मूल्यवान योजना के सतत् साफल्य की हार्दिक मंगल कामना करते हैं ।
प्रागरा रोड अलीगढ़ २६.७.८२
महेन्द्र सागर प्रचंडिया कृते सम्पादक मण्डल
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लेखक की कलम से
राजस्थानी एवं हिन्दी भाषा की पाण्डुलिपियों के लिये राजस्थान के जैन ग्रन्यागार विशाल भण्डार है जिनमें संकड़ों महत्त्वपूर्ग, प्रज्ञात एवं अल्प-ज्ञात कृतियों का संग्रह मिलता है । इस दृष्टि से जैनाचार्यो, भट्टारक गण एवं विद्वानों की साहित्यिक सेवाएं अत्यधिक उल्लेखनीय है । जिन्होंने विगत ६००-७०० वषों से अपनी सैकड़ों कृतियां साहित्यिक जगत को मेंट करके अपने हिन्दी प्रेम को प्रदर्शित किया है और आज भी कर रहे हैं। प्रस्तुत पञ्चम भाग में १६ वीं शताब्दि के पांच ऐसे ही कवियों को लिया गया है जो राजस्थानी हिन्दी के लिये समर्पित रहें है तथा जिनका व्यक्तित्व एवं कृतित्य दोनों ही विद्वानों के लिए अज्ञात अथवा अल्पज्ञात रहा है।
सोमकीति १६ वीं शताब्दि के प्रथम चरण के कवि थे । राजस्थानी उनकी प्रिय भाषा थी जिसमें उन्होंने दो बड़ी एवं पांच छोटी रचनायें निबद्ध की थी। 'गुरु नामावली' में उन्होंने राजस्थानी गद्य का प्रयोग करके गद्य साहित्य की लेखन परम्परा को बहुत पीछे ला पटका है। राजस्थानी हिन्दी साहित्य के इतिहास के लिये गुरु नामावली एक महत्वपूर्ण कृति है । संवत् १५१८ (सन् १४६१) में निर्मित यह कृति गश्य पद्य मिश्रित है । यह संस्कृत को चम्मु कृति के समान है । कवि ने अपने गद्य भाग को बोली लिया है जिसमें यह स्पष्ट है ऐसी ही भाषा उस समय बोलचाल की भाषा की ओर उले बोली कहा जाता था। बोलचाल की भाषा के लोकप्रिय शब्द कुण, मापणा, बोलता, ढीली, नयर, पालखी, इसी, इणी, का खूब प्रयोग हुमा है । सोमकीत्ति अपने युग के प्रभावशाली भट्टारक थे । काष्टासंघ की भट्टारक गादी के सर्वोपरि नाचू थे । साथ में वे भाषा शास्त्री भी थे । संस्कृत कृतियों के साथ ही राजस्थानी में कृतियों का लेखन उनकी राजस्थानी के प्रति गहरी रुचि का सफल है ।
सांगु इस काल के दूसरे कवि थे । अभी तक इनकी एक ही कृति 'सुकोसल राय चुपई' उपलब्ध हो सकी है लेकिन यह एक ही कृति कवि की काव्य प्रतिभा परिचय के लिये पर्याप्त है । यह एक लघु प्रबन्ध काव्य है जिसमें काव्य-गत सभी लक्षण विधमान है काव्य पूरा रोमाञ्चक है जिसमें कभी विवाह, कमी युद, कभी
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(v)
गृह त्याग, फभी तपस्या एवं कभी उपसर्ग के समय का वर्णन मिलता है।
महाकवि ब्रह्म जिनदास के शिष्य मम गुग कीति इस पुरुष के तीसरे कवि है जिनका परिचय भी साहित्य जगत् को प्रथम बार मिल रहा है । रामसीतारास एक स्खण्ड काव्य है जो राजस्थानी भाषा की अत्यधिक सुन्दर कृति है। महाकवि तुलसी दास के १४० मई रचित' यह एक लघु रामायण है जो अपने गुरु महाकवि ब्रह्म जिनदास के रामरास का मानों लधु संस्करण है । रामसीतारास भाब, भाषा, शानी एवं विषय की दृष्टि में उत्तम कृति है ।
___ चौथे कवि भ, यशःकोत्ति हैं जिनके दो पद एवं दो लघु रचनायें प्रस्तुत ग्रंथ में दिये गये हैं।
ब्रह्मा यशोधर पांचवे कवि हैं जो भ. यश कीसि के प्रशिष्य एवं विजयसेन के शिष्य थे। म. पशोधर प्रपने युग के जबरदस्त प्रभावशाली कवि थे जिनका समस्त जीवन साहित्य सेवा में समर्पित रहता था । यद्यपि वे भट्टारक नहीं थे किन्तु उनकी ख्याति एवं सम्मान किसी भद्रारक में कम नहीं था । साहित्य रचना के क्षेत्र में तो ने अपने गुरु से भी प्रागे घे । उन्होंने चुपई संज्ञक काव्य लिखा, नेमिनाथ, वासुभुज्य एवं मल्लिनाथ पर स्तुति परक गीत लिखे, अपने गुरु की प्रशंसा में विजय कीत्ति गीत लिखा जिसे : हासिक गी: ला है, एक विवाद ग रागनियों में नेमि राजुल से सम्बन्धित पद लिखे । बलिभद्र चुमई एक ऐसा प्रबन्ध काव्य है जिसमें कवि की काप प्रतिभा के स्थान २ पर दर्शन होते हैं । नेमिनाथ गीत में कवि ने गागर में सागर भरने जैसा कार्य किया है । वर्णन इतना रोचक है कि पढ़ते ही कवि के प्रति श्रद्धा के भाव जाग्रत होते हैं । 'भ. यशोधर द्वारा अपनी कृतियों में शब्दों का चयन भी पूर्ण विद्वत्ता के साथ किया है । कवि ने नेमिनाथ गति में पान बीड़ी का उल्लेख किया है । विवाह में पानों का बीड़ा देकर बरातिमों का स्वागत करने की प्रथा है जो १५वीं शताब्दि में भी यथावत थी। इसी तरह 'सू' शब्द के लिये 'लय' का प्रयोग किया है । लय शब्द देठ राजस्थानी भाषा का शब्द है ।
भाषा के अध्ययन की दृष्टि से इन पांचों ही कवियों की रचनायें महत्वपूर्ण हैं । जन कवि अपनी रचनायें सरल बोलचाल की भाषा में निबद्ध करते रहे हैं। पद्यपि बे काव्य गत लक्षपों के प्राधार पर रचतायें निबद्ध करने में विश्वास नहीं रखते थे लेमिन फिर भी उनकी वृतियों राजस्थानी हिन्दी की प्रमूख्य कृतियां है
- - . .--.१. वोउ चंदन रुडों फूलडा रे पान बीबीष प्रमूल सा. ५०/पृष्ठ संख्या २०१. २. उहालि लू उही वाय, तपन ताप तनु साझ न जाय ॥ १७३/ 1, १६१.
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ixvi)
और उनमें वे सभी तत्त्व उपलब्ध होते हैं जो किसी एक काध्य में मिलने चाहिये।
प्रस्तुत पुष्प में पांच कवियों की पन तक उपलब्ध सभी ३७ कृतियों के पाल दिये गये है जिनमें से अधिकांश कृतियों प्रथम बार सामने आयी है। वास्तव में जन ग्रंथागारों में राजस्थानी/हिन्दी ने अभी तक मैकड़ों कुतियां हैं जिनके अस्तित्व का हमें पता नहीं है परिचय मिलना तो बहुत दूर की बात है। राजस्थान एवं गुजरात के शास्त्र भण्डारों में इन पांच कवियों की और भी कृतियां मिल सकती है ।
प्राभार
पुस्तक के सम्पादक में डा. महेन्द्रसागर जी अचंडिया अलीगढ़, भाषा-शास्त्री श्री नाथूलाल नी जैन एडवोकेट जयपुर एवं श्रीमती हा. कोकिला सेठी का जो सहयोग मिला है उसके लिये में उनका पूर्ण भाभारी हू । डा. प्रचंडिया जी ने सम्पादकीय लिखा है जो कितने ही दृष्टियों में प्रत्यधिक महत्वपूर्ण है। मैं प्रकादमी से सम्पादक मंडल के प्रमुख सदस्य एवं सहयोगी पं. अनूपचन्द जी न्यायतीर्थ का भी भाभारी हूँ जिनका मुझे साहित्यिक कार्यों में पूर्ण सहयोग मिलता रहृता है ।
डा. कस्तुर चन्द कासलीवाल
अमृत कलश; किसान मार्ग
बरकत कालोनी टोंक विज जयपुर,
अगस्त १९८२
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r
२६
विषय सूची क्रम संख्या
१ष्ठ संख्या १. श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी का परिचय २. संरक्षक की ओर से ३, सम्पादकीय ४. लेखक की कलम से ५. पूर्व पीठिका ६. आचार्य सोमकीति
३-३२ कृतियाँ : (१) श्रेपनक्रिया गीत
(२) मादिनाथ विनती (३) मल्लिजिन गीत
३०-३२ (४) यशोधर रास
३४-७३ (५) गुरु नामावली
७४-८६ (६) रिषभनाथ की धूलि
८७-११ (७) लघु चिंतामणी पार्श्वनाथ जयमाल ६२ ७ कविवर साँग (E) सुकोसलराय चुपई
१०४-११६ ८. ब्रहम गुणकीर्ति
१२०-१२६ (९) रामसीतारास
१३०-१५६ ६. भट्टारक यशाकीर्ति
१५७-१५६ (१०-११} यश कीति के पद
१५९-६० (१२) योगी वाणी ११३) चौबीस तीर्थकर भावना १६१-१६३
१६१
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१६४-१७६
१७७-१६३ १९४-१६५ १९५-१९६
१०. ब्रह्म यशोधर
(१४) बलिभद्र पपई (१५) विजयकीर्ति गोत (१९) वासुपूज्य गीत
(१७) वैराग्य गीत (१५-१६) नेमिनाथ गीत (२)
(२०) मल्लिनाथ गीत
(२१-३७) पद साहित्य (१७ पद) ११. मनुक्रमणिकाएं
१६७-२०३ २०३-२०४ २०४-२१३
२१४
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पूर्व पीठिका
इस भाग में संवत १५१५ से १५६० तक होने वाले पांच हिन्दी जैम कवियों का जीवन, निहाल एवं उनका गुस्साह प्रस्तुत किया जा रहा है। ये कवि हैं माघार्य सोमकीति, सांगु, यश-कीर्ति, गुरणकीति, एवं ब्रहा यशोधर । इसके पूर्व दूसरे भाग में हमने संवत् १५४० से १६०० तक के प्रतिनिधि कवियों-बूपराज, छीहल, ठक्कुरसी, चतुरुमल एवं गारवदास का जीवन परिचय एवं उनकी कृतियों का मूल्यांकन प्रस्तुत किया था साथ ही में उन कवियों की सभी छोटी बड़ी कृतियों के के पाठ भी दिये थे जिससे सभी पाठक गण उसके काव्यों का रसास्वादन कर सके।
संवत् १५१५ से १५६० तक के काल को हिन्दी साहित्य के इतिहास में दो भागों में विभक्त किया है । मिश्रबन्धु विनोद ने संवत् १५६० तक के कास को मादिकाल माना जाता है तथा १५६१ से प्रागे वाले काल फो प्रष्टछाप कवियों के नाम से सम्बोधित किया है। रामचन्द्र शुक्ल ने भी इस काल का अष्टछाप नामकरण किया है। लेकिन वास्तव में यह काल भक्ति युग का आदिकाल था। एक पोर गुरु नानक एवं कबीर जंस संत कवि अपनी कुतियों से जन-जन को अपनी ओर धाकृष्ट कर रहे थे तो दूसरी मोर प्राचार्य सोमकीति, भट्टारक यश: कीर्ति, सांगु एवं ब्रह्म यशोधर जैसे हिन्दी भाषा के जैन कवि अपनी कृतियों के माध्यम से समाज में ग्रहद् भक्ति, पूजा, एवं प्रतिष्ठानों का प्रचार कर रहे थे। समाज में भट्टारक परम्परा की नींव गहरी हो रही थी। उनकी जगह-जगह गादियां स्थापित होने लगी थी । भट्टारक गग एवं उनके शिष्य भी अपने पापको भट्टारक के साथ-साथ मुनि, प्राचार्य, उपाध्याय, एवं ब्रह्मचारी सभी नामों से संबोधित करने लगे थे। साथ ही में वे सब संस्कृत के साथ-साथ राजस्थानी एवं हिन्दी भाषा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बना रहे थे । देश पर मुसलमानों का राज्य था जो अपनी प्रजा पर मनमाने जुल्म ढा रहे थे। ऐसी स्थिति में भी भट्टारकों एवं उनके शिष्यों ने समाज के मानस को बदलने के लिए तत्कालीन लोक भाषा में छोटे बड़े रास काम्यों, का पद एवं स्तबनों का निर्माण किया । दूसरे भाग में निर्दिष्ट कवियों के अतिरिक्त इन ४५ वर्षों में १५ से भी अधिक जैन एवं जनेतर कवि हुए जिनमें कुछ के नाम निम्न प्रकार है
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प्राचार्य सोमकाति एवं ब्रह्म यशोधर
जैन कवि
जैनेतर कवि १. प्राचार्य सोमकीति सं. १५१८ १. गुरुनानक सं. १५२६-१५९६ २. कनक
::३८ . कीरमास .५.७५. से पूर्व ३. उपाध्याय ज्ञान सागर सं १५३१ ३. चरगवास , (१५३६) ४. भट्टारक यश कीति सं १५.३८ ४. अनन्तदास , (१५५८) ... ब्रह्म यसोधर मं १५८५ से पूर्व ५. हरिराम ॥ (१५५८) . सांगु कवि
सं. १५५० ६. पुरुषोत्तम ॥ (१५५८) ७. गुणकीति सं १५२० ८. संवेग सुन्दर उपाध्याय सं. १५४८
६. बाचक मतिशेखर
गुरु नानक एवं कान्बीरदास से सभी परिचित है ।ये कवि भारतीय जन मानस के कयि बन चुके हैं। अनन्तदास कबीर के शिष्यों में से थे जिन्होंने रैदास की परिचई कबीरदास की परिचई एवं त्रिलोदनदास की परिचई जैसे काश्यों की रचना की। हरिराम की गीलाभान प्रकाण (सं १५५६) तथा पुरुषोत्तम की पश्चिमेष (सं. १५५८) रचनायें मिलती हैं । इसी समय कुतबन भेख ने मृगावती तथा सेन कवि ने भी अपनी कविताओं के माश्यम से भक्ति रस की धारा को प्रवाहित किया 11
जैन कवियों में ज्ञानसागर ने संवन् १५३१ में श्रीपालरास की रचना की थी 1 इसकी एक प्रति राजस्थान प्रास विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर में उपलब्ध है। संवेगसुन्दर उपाध्याय ने मंवत् १५४८ में सारसिस्वामन रास की रचना की थी तथा रामचन्द्र सूरि ने रजर्षि चरित की संवत् १५५० में रचना की थी। यह समय महाकवि ब्रह्म जिनदास से प्रभावित युग था जिन्होंने पचास से भी अधिक रासकाव्यों की रचना करके एक नया कीर्तिमान स्थापित किया था। इसलिए अधिकांश जैन कवि उन्हीं के पद चिह्नों पर चलकर रास नामान्तक काव्यों की रचना करने में लगे हुए थे।
१. मिश्र बन्धु विनोद प्रथम माग-पृष्ठ संख्या 111-113
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प्राचार्य सोमकोति आचार्य सोमकीति इस काल के प्रमुख प्रतिनिधि कवि थे । वे अपने युग के उदभर विद्वान प्रमुख साहित्य सेवी एवं सर्वोच्च सन्त थे । वे योगी थे। प्रात्म साधना में तल्लीन रहते और अपने शिष्यों एवं अनुयायियों को उस पर चलने का उपदेषा देते थे। वे प्रवचन करते, साहित्य सर्जन करते एवं अपने शिष्यों को साहित्य निर्माण करने की प्रेरणा देते । सोमकीर्ति प्राकृत, संस्कृत, राजस्थानी, गुजराती एवं हिन्दी के प्रकांड विद्वान थे । उन्होंने संस्कृत एवं हिन्दी दोनों ही भाषामों को अपनी रचनामों से उपकृत किया । उनका राजस्थान एवं गुजरात दोनों ही प्रमुख क्षेत्र रहे तथा जीवन भर इन क्षेत्रों में विहार करके जन-जन के जीवन को प्रात्म-मापना एवं अर्हद् भक्ति की प्रोर माइते रहे । उनका प्रेरणा से कितने ही मन्दिरों का निर्माण संपन्न हया । बीसों पञ्चकल्यागक प्रतिष्झाएं उनके निर्देशन में संपन्न हुई तथा हजारों जिन प्रतिमाएं प्रतिष्ठित होकर राजस्थान एवं गुजरात के विभिन्न मन्दिरों में विराजमान की गई। प्राचार्य सोमकीर्ति श्रमण संस्कृति, साहित्य एवं शिक्षा के महान् प्रचारक थे | ऐसे सन्त पर किस समाज एवं राष्ट्र की गर्व नहीं होगा।
लक्ष्मीसेन के दो शिष्य थे। एक भीमसेन एवं दूसरे धर्मसेन । दोनों ने ही अपनी अलग-अलग भट्टारक मादियां स्थापित की थी। इन्हीं भीमसेन के सोमकीति प्रमुख शिष्य थे। काष्ठासंघ को एक गुरुनामावली में भीमसेन का परिचय निम्न प्रकार दिया गया है.. -
श्री लक्ष्मसेन पट्टोधरण. पावक विपि नहीं । जे नरहरि नन्दिवि, श्री भीमसेन मनिवर सही ॥2॥ सरगिरि सिरि को चई पाउकरि प्रतिबलवंती कवि रणीयर तोर, पहत उय तरती। कोई प्रायास पभारण, हाथ करि गाहि कमतौ ।। कट्ठसंघ संघगुरण परिलहि विह कोईखेहतो श्री भीमसेन पट्टह धरण गच्छ सिरोमरिण कुलतिलो
जाणाति सुजाराह जारण नर श्री सोमकीति मुनिबार भलौ ।। 314 सोमकीति भीमसेन के कब संग में पाये तथा प्रारम्भ में उनके पास कितने वर्षों तक रहे इसकी जानकारी नहीं मिलती। इसके अतिरिक्त सोमवीति के मानापित्ता, जन्मस्थान, एवं शिक्षा-दीक्षा के बारे में भी कोई इतिहास उपलब्ध नहीं होता। लेकिन इतना अवश्य है कि उन्हें मंवत् १५१में काष्टासंघ नन्दीतट गच्छ की भट्टारक गादी पर अभिषिक्त किया गया था । उस दिन आषाढ़ सुदी अष्टमी थी।
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आचार्ग सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
१७ में भट्टारक थे। उनका पट्टाभिषेक गुजरात के सौजित्रा नगर में शांतिनाथ के मन्दिर में हुमाया। महारोगोनित्रामा निकरते हुए लिखा है--
श्रीगजरे पस्ति पुरं प्रसिद्ध सोजिन नमामिधमेक्सारं । सौजित्रा जैनधर्म एवं संस्कृति का केन्द्र पा तया काष्ठा संब के भट्टारकों की यहां मादी भी। सोमकीर्ति संबर १५१८ से प्रकाश में पाये और अपने अन्तिम जीवन तक समाज के जगमाते नक्षत्र रहे। श्री जोहरापुरकर ने अपने भट्टारक सम्प्रदाय में इनका समय संवत् १५२६ से १५४० तक दिया है जो इस पावली से मेल नहीं खाता। संभवतः चन्होंने यह समय इनकी संस्कृत रचना सप्तव्यसनकथा के आधार पर दिया मालुम देता है क्योंकि कवि ने इसे संवत् १५२६ में समाप्त की थी।
सीमकीति ने भारक गादी पर बैठते ही गजरात एवं राजस्थान के विभिन्न भागों में बिहार किया तथा जन-जन से सम्पर्क करके उन्हें अहिंसा धर्म के परिपालन पर जोर दिया। उस समय देहली पर लोदी वंश का राज्य या । बहलोल लोदी दिल्ली का सुलतान था। ये मुस्लिम शासक इतने धर्मान्ध एवं प्रसहिष्ण थे कि उन्हें मन्दिरों, मृतियों एवं ग्रन्थों के विस्वन्स के प्रतिरिक्त कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। हिन्दुओं एवं जनों में इतना भय व्याप्त था कि उन्हें प्रर्हद् भक्ति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखता था ! भद्रारक उनके संरक्षक थे जिनका सम्बन्ध इन बादशाहों से भी अच्छा था । भट्टारक सोमकीति के लिये ब्रह्म श्रीकृष्णदास ने लिखा है कि के “यवनपतिकरांभोज संपूजिलाधि थे अर्थात् भट्टारक सोमकीति का पवन बादशाह भी सम्मान करते थे । इससे सोमकीर्ति के प्रभाव एवं यम में और भी वृद्धि हो गई। पहिले सन्त फिर प्रकाण्ड विद्वान, वक्ता और फिर बादशाह पर हाथ । वे तो सर्वगुण सम्पन्न हो गये । वे अत्यधिक प्रभावशाली थे । उहा विहार होता वहीं उनके भक्त बन जाते । साहित्य रचना वे स्वयं करते और समाज से बत विधान एवं प्रतिष्ठा विधान कराते । राजस्थान के मन्दिरों में उनके द्वारा प्रतिष्ठित पचासों मूर्तियां मिलती हैं । मूलसंत्र के क्षेत्र में काष्ठासंघ का इतना जबरदस्त प्रभाव उनके स्वयं के व्यक्तित्व का सुपरिणाम था ।
१. पनरहसिमठार मास पाषाढह जाणु
अक्कवार पंचमी बहुल पक्ष्यह परवाणु । पुवामद्द नक्षत्र श्री सोझीत्री पुरवरि सन्यासी पर पाट तणु प्रबन्ध जिणि परि ।।
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प्राचार्य सोमकोति
प्रतिष्ठा विधान
संवद १५१८ में वे भट्टारक पद पर प्रासीन हुए। इसके पश्चात उन्होंने देश में पञ्च कल्याणक प्रतिष्ठाए सम्पन्न करवाने में रुचि ली !
डुगरपुर जिले के सुरपुर (सुर्यपुर) के मन्दिर में शीतलनाथ स्वामी वी ४."X४६' अवगाहना वाली श्याम पाषाण की भट्टारक सोमकीर्ति द्वारा संवत् १५२२ में प्रतिष्ठित प्रतिमा है । इस प्रतिष्ठा में प्राचार्य श्री बीरसेन उनके सहायक ये तथा प्रतिष्ठा कराने वाले पंडित पक्षमा, समधर, खेइमा सा. लखमा भीमा प्रादि श्रावक थे । राजस्थान में यह प्रथम मूर्ति है जो सोमकीर्ति हारा प्रतिष्ठित प्राप्त
___ संवत् १५२५ में इन्हीं के द्वारा प्रतिष्ठित जयपुर के समीप जयसिंहपुरा लोर के मन्दिर में भगवान पार्श्वनाम की तेत पाषाण की प्रतिमा है। जयसिंहपुरा खोर प्राचीन समय में जैनों का प्रसिद्ध केन्द्र था। पहाड़ियों के मध्य में स्थित होने के कारण यह साधुनों के लिए चिन्तन मनन का अच्छा केन्द्र था 1 जयपुर का क्षेत्र मूलसंघ के भट्टारकों का गा रहा है। इसलिए काष्ठासंघ के भट्टारकों द्वारा प्रतिष्ठित मुर्ति को विराजमान करना सोमकीति एवं उनके शिष्पों के प्रभाव को सूचित करता है।
इसके पश्चात् संवत् १५२७ बैशाख बुदी ५ को इन्हीं भट्टारक द्वारा प्रतिष्डित चोवीसी की प्रतिमा जयपुर के सिरमोरियों के मन्दिर में एवं दि. जैन मन्दिर संभवनाथ उदयपुर में विराजमान हैं। दोनों चौबीसियों में प्रादिनाथ स्वामी की मूलनायक प्रतिमा है । यह प्रतिष्ठा नरसिंहपुरा जातीय श्रावक द्वारा सम्पन्न करवायी गयी थी। प्राचार्य वीरसेन भट्टारक सोमकीति के सहयोगी थे ।
१. संवत् १५२२ बर्षे पौष सुदी ५ तिथी श्री काष्ठासंघ भट्टारक सोमकीति प्रतिष्ठितं
श्री शीतलनाथ बिम्ब पंडित पदमा समधर खेइमा सा० लखमा भीमा कारापित शिष्य आचार्य श्री वीरसेन युक्तः।। २, संवत् १५२७ वर्ष वैशास्त्र बदी ५ गुरी श्री काष्ठासंघे नन्दीतटगच्छे विद्य गणे
भट्टारक धी सोमकीर्ति प्राचार्य श्री वीरसेन युग के प्रतिष्ठितं नरसिंहपुरा जातीय पड़नहरगोरे सा, मोहन पी भार्या तेजु पुत्र ५ कहुया भार्या २ बाधुमा, रुषा। भार्या रुपा पुत्र भाऊ पुत्र जूठउ नांदू पुत्र २ संवरु । सी. हलुवी भार्या लक्ष्मी पुत्र सरवण सा. मुदरा भार्या भासु मो. सहदूराम भार्या लाल साकडमा, खेमामा काकण श्री प्रादिनाथ विम्बं करापितं ।
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आचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
भट्टारक सोमकोति ने संवत् १५३३ फागुण शुक्ला ७ बुधवार को फिर एक पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा का नेतृत्व किया । जयपुर के ठोलियों के मंदिर में भगवान पार्श्वनाथ की धातु की वक्त पञ्चकल्याणक में प्रतिष्ठित मूर्ति विराजमान है ।। इसके एक वर्ष पूर्व संवत् १५३२ में भी वीरसेन सूरि के साथ एक शीतलनाथ की मूर्ति का प्रतिष्ठा करवायी थी।
संवत् १५३५ माघ सुदी ५ को सोमकीर्ति अहमदाबाद गये। वहां विशाल स्तर पर ५२ जिन बिम्बों को प्रतिष्ठा की गयी। इस प्रतिष्ठा में भी सोमकीर्ति के साथ प्राचार्य बीरसेन और उनके शिष्य प्र. नाना प्रमुख थे। प्रतिष्ठा कराने वाले थे प्रागवाट जातीय .."राणीसुत जोगदास ।'
यद्यपि भट्टारक सोमकीर्ति का काल मुस्लिम काल था जिसमें मन्दिर एवं मूर्ति को तोड़ना जिहाद समझा जाता था लेकिन सोमकीति का अपना प्रभाव था। वे भावकों के लिये रक्षक का कार्य करते थे तथा धार्मिक विधि विधानों को बड़े ठाट से सम्पन्न कराया करते थे । संवत् १५३६ में इन्होंने दो प्रतिष्ठानों को अपना आशीर्वाद प्रदान किया । सर्व प्रथम बैशाख सुदी १० बुधवार को चकिपानि लीशंकर प्रतिमा की प्रतिष्ठा करायो इसमें प्रतिष्ठाकारक थे हूंबढ़ जातीय वध गोत्र वाले गांधी भूपा भार्या राज सुत गांधीमना । मनागांधी की धर्मपत्नी का नाम काऊ था तथा पुत्र एवं पुत्र वधु का नाम डा एवं लाडिकी था। वर्तमान में चौबीसी की प्रतिमा जयपुर के पाण्डे लूणकरण जी के मन्दिर में विराजमान है। जयपुर के पहिले यह प्रतिमा संभवत: पामेर में होगी। इससे यह पता चलता है कि बागढ़ प्रदेश में सम्पन्न इस प्रतिष्ठा में पामेर, सांगानेर के जन बाधु भी सम्मिलित हुए थे। इस प्रतिष्ठा में भी भट्टारक सोमनीति के प्रमुम्ब पिध्य प्रायार्य वीरसेन साथ थे। इसी वर्ष दूसरी प्रतिष्ठा माषसुदी १५ गुरुवार को नरगिह जातीय सापडिया
१. संवत् १५३३ वर्षे फागरण शुक्ला ७ बुधे श्री काष्ठासंघे नंद्याम्नाये म, भीमसेन
तत्पभ. श्री सोमकीर्ति प्रणमप्ति । २. संवत १५३२ वर्ष वैसाख मुदि ५ रची काष्ठासंघे नंदीनट गच्छे भ. श्री भीमसेन
तत्पद्रे सोमकीति प्राचार्य श्री वीरसेनपुरी युक्त प्रतिष्ठित नरसिंह जातीय बोरदक
गोत्रे चापा भार्या परगू । भट्टारक सम्प्रदाय -पृष्ठ २६५ ३. संवत् १५३५ वर्षे माघसुदी ५ गुरो श्री काष्ठासंत्रे नंदितट गध्ये विद्यागणे भट्टा
रक श्री भीमसेन तत्प भ. श्री सोमकीर्ति शिष्य प्राचार्य श्री वीरसेन युक्त: प्रतिष्ठित अहमदाबाद वास्तव्ये श्री प्राग्वाट जातीय"........ रामी मत जोगदासेन प्राचार्य श्री बीरसेन ।
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प्राचार्य सोमकीति
गोत्र वाले साह खेभारा झांझ के पुत्र सौवा ने सम्पन्न करायी थी। नरसिंहपुरा जाति प्रतापगढ़ की पोर रहती है। इसलिए सोमकीर्ति ने उघर ही किसी स्थान पर यह प्रतिष्ठा सम्पन्न करामी होगी। इस प्रतिष्ठा में उनके शिष्य वीरसेन प्रमुख थे । चौबीसी की एक प्रतिमा जयपुर के ही चौधरियों के मन्दिर में विराजमान है। भौबीसी में श्रेयान्स नाथ स्वामी की मूलनायक प्रतिमा है ।।
प्रतिष्ठानों का यह क्रम बराबर चलता रहा । भट्टारक सोमकीति ने अपने जीवन में कितनी प्रतिष्ठाए सम्पन्न करायी इसकी निश्चित संख्या बतलाना तो कठिन है क्योंकि राजस्थान के अभी सैकड़ों मंदिर ऐसे हैं जिनके मूर्ति लेखों पर कार्य नहीं हो सका है लेकिन इतना अवश्य है कि अपने २५ वर्ष के भट्टारक काल में सोमफीति ने ५० से अधिक पंचकल्याणक प्रतिष्ठाए' सम्पन्न करायी होंगी। मंतिम प्रतिष्ठा जिसका हमें उल्लेख मिला है वह है संवत् १५४२ की बैशाख बुदी १० के शुभ दिन की प्रतिष्ठा जिसको नरसिंथपुरा जातीय मोकलवाड़ सा. महिला एवं उसके परिवार के सदस्यों ने सम्पन्न करायी थी। इस प्रतिष्ठा में प्रतिष्ठित भगवान संभवनाथ की एक प्रतिमा उदयपुर के दि. जैन मन्दिर संभवनाथ में विराजमान है । ऐसा मालुम होता है कि इस मंदिर का नामकरण इसी प्रतिष्ठा के साथ जुड़ा हुआ है।
बिहार
भट्टारत सोमकीर्ति कभी एक हरान पर जम के नहीं रहे। उनका अधिकांश समय एक नगर से दूसरे नगर में विहार करने में ही समाप्त हुमा । राजस्थान एवं गुजरात प्रदेश के ग्राम एवं नगर उनके बिहार के प्रमुख स्थान थे ! कभी वे विधान सम्पन्न कराने जाते तो कभी प्रवचन के लिये उन्हूं जाना पड़ता। कभी समाज पर पाने वाली विपत्तियों को निवारणार्थ वे जाते तो कभी अपनी कृतियों के विमोचन समारोह में सम्मिलित होते । उनके विशाल व्यक्तित्व के सहारे समाज अपने पापको प्राश्वस्त मानता था। 'सोझित्रा' नगर उनका प्रमुख केन्द्र था । यहां उनकी गादी थी और पढ़ाभिषेक हुमा था । मारबाड़ वा गुढली नगर भी उनकी गतिविधियों का केन्द्र था। वहां शीतलनाय स्वामी का मंदिर था जिसमें उनकी भट्टारक. गादी थी। यशोवर
१ . मंत्रन १५१६ वर्षे माघ सुदी १५ मुरी श्री काष्ठासंघे नंदितटगच्छे विद्यागणे
भट्टारक श्री भीमसेन तरपद भट्टारक श्री सोमीति णिय प्राचार्य श्री वीरसेन युक्त प्रतिष्ठितं नरसिंह जातीय सापहिया मोये सा. पेभारा झामु पुत्र लीबा भार्या लाडी पुत्र ४ मोड़प रणधीर शिधादेवा सा. शिक्षा श्री श्रेयान्स निस्य जामति ।
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आचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
राम एवं यशोधर चरित्र दोनों को उन्होंने उसी नगर एवं मन्दिर में समान किया था। . स्वागत
प्राचार्य सोमकीति का जब विहार होता तो समाज में प्रानन्द का वातावरण छा जाता । हजारों स्त्री-पुरुष नगर के बाहर उनके स्वागत के लिए एकत्रित होते मौर बड़े समारोह पूर्वक उनको अपने यहां ले जाते । बिविध वाद्य यंत्र बजाये जाते और बधावा गाये जाते । स्त्रियां कलश लेकर उनका स्वागत करती। उनकी भारती उतारी जाती। इस प्रकार सोमकीति का विहार समाज में एक नये उत्साह को लेकर पाता।
व्यक्तित्व
वे स्वयं विशाल व्यक्तित्व के धनी थे। उनके दर्शन मात्र से ही विरोधियों का मद गल जाता। जब वे प्रवचन करते तो श्रोतामों को प्रध्यात्म रस में डूबी देते । कथानों के माध्यम से अपनी बात कहते सो लोगों को ग्रहद पूजा, दर्शन एवं स्तवन का महात्म्य बतलाते । जीवन को सप्त व्यसनों से रहित बनाने पर जोर देते । भट्टारक रामसेन एवं भट्टारक भीमसेन दोनों का ही उन्हें आशीर्वाद प्राप्त था। वे संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, रापमा बालो पर वार थे। बे वक्ता एवं लेखक दोनों ही थे। एक ओर वे संस्कृत में काव्य रचनाएं करते तो वहीं राजस्थानी में उससे भी अधिक काव्य कृतियां लिखना उनके लिए बहुत सरल कार्य था। वे किसी भी क्षेत्र में अपने आपको योग्यतम सिद्ध करते । यही कारण है कि तत्कालीन मुस्लिम शासक भी उनका पूर्ण सम्मान करते थे और उनका गुणानुवाद करते । समाज पर उनका वर्चस्व स्थापित था इसलिए जो भी कार्य चाहते जसे वे सरलता में सम्पन्न करा देते।
कृतित्व
प्राचार्य सोमालि संस्कृत एवं राजस्थानी दोनों के ही प्रकाण्ड विद्वान एवं लेपनी के धनी थे इसलिए दोनों ही भाषाओं में उन्होंने रचनायें निबद की - है। उनकी संस्कृति एवं राजस्थानी कृतियों के नाम निम्न प्रकार है---
संस्कृत रचनाएं
१. सप्तव्यसन कथा समुच्चय १. प्रद्युम्न चरित्र ३. यशोधर चरित्र ।
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आचार्य सोमकीर्ति
४. श्रष्टान्हिका व्रत कथा | ५. समवसरण पूजा ।
राजस्थानी रचनाएं'
१. यशोश्वर रास ।
२. गुरु नामावली |
३. रिषभनाथ की धूल ।
४. त्रेपन क्रिया गीत ।
५. श्रादिनाथ विनती ।
६. मल्लिगीत |
७. चिन्तामणी पार्श्वनाथ जयमाल ।
सोमकीर्ति की संस्कृत रचनाओं का सामान्य परिचय निम्न प्रकार है
१. सप्तव्यसन कथा समुच्चय
यह कथा साहित्य को अच्छी कृति है । कथा समुच्चय में सात व्यसनों के आधार पर सात कथाएं दी हुई हैं। सात व्यसनों में जुप्रा खेलना, चोरी करना, शिकार खेलना, वेश्या सेवन, परस्त्री सेवन, मद्यपान एवं मांस खाने को गिनाया गया है । इसमें सात सर्म हैं। पूरी कृति दो हजार सडसठ श्लोकों में बनाकर समाप्त की गयी है । कथा समुच्चय भट्टारक रामसेन की कृपा से रचित सभ्य है | कवि ने इसे संवत् १५२६ में समाप्त किया था । संभवतः कवि की यह संस्कृत में निबद्ध प्रथम रचना है | राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में सप्तव्यसनकथा को पचासों प्रतियां मिलती है जो इसकी लोकप्रियता की ओर संकेत करती हैं। सबसे प्राचीन प्रति डूंगरपुर के शास्त्र भण्डार में हैं जो संवत् १६०५ की लिखी हुई है । कथा समुच्चय का अन्तिम भाग निम्न प्रकार है—
नन्दीतटाके विटिते हि संघे श्रीराम सेनस्य पदप्रसाधत् । विनिर्मितो धिया ममायं विस्तारगोयो भुवि साधुः ॥६६॥
यो चा पठति विमृश्यति भव्योषि लभते स सौख्य मनिशं प्रत्यं (ओ)
(सु) मवनायुक्तः । सोमकीर्तिमा रचितं ॥ ७० ॥
१. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूची भाग पञ्चम-पृष्ठ संख्या ४६२ ।
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प्राचार्य सोमकोति एवं ब्रह्म यशोधर
रसनयनसमेते पाणयुक्तेन चन्द्र ११५२६) गतवति सति नूनं विक्रमस्यव काले । प्रतिपदि धवलार्या माघ-मासस्य सोमे । हरिभयिनमनोसे निमितो ग्रन्थ एषः ।।७१॥ सहसयसंख्योऽयं सप्तपछिसमन्वित: (२०६७) । सप्तव व्यसनाद्यश्च कथासमुच्चयो ततः ।।७२।। यावत्सुवर्शनी मेसर्यावच्च सागराधरा । तावनन्दस्वयं लोके ग्रन्थो भव्यबनाश्रितः ॥७३॥
इति श्री इत्याः भट्टारक-यी धर्मसेनाभः श्री भीमसेन देवशिष्य-प्राचार्य सोमकीति -विरचिते सप्तव्यसनकथासमुच्चये परस्त्रीयमनफलवर्णनो नाम सप्तमः सर्गः । इति सप्तव्यसनचरित्रकथा संपूर्णा । २. प्रञ्च म्न चरित्र
प्रद्युम्न का जीवन चरित्र जैन कवियों के त्रिये बहुचनित रहा है । अम तक
मा, संत, जामो हिन्दी मा में २५ कवियों के प्रद्य म्न चरितों का पता लगाया जा चुका है 1 इस काव्य में श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के जीवन का वर्णन किया गया है । प्रद्युम्न की माता रुकमणी श्री । प्रद्य म्न की गिनती पुण्य पुरुषों में की जाती है। प्रस्तुत प्रद्युम्न चरित्र १६ समों में विभक्त है जिसका रचनाकाल संवत् १५३१ पौष बुदी १३ बुधवार है। यह बाब कदि ने अपने गुरु भट्टारक भीमसेन के प्रसाद से लिखा था।
श्री भीमसेनस्य पवप्रसावत् सोमादिसत्कीतियुतेन भूमौ । रम्य चरित्र विततं स्वभक्त्या संशोध्य भव्यैः पठनीयमेतत ॥१६॥ संवत्सरे सत्तिथिसंज्ञके वै वर्षेत्र त्रिशंकयुते (१५३११ पवित्रे । विनिर्मितं पौषसुदेश्च तस्यां प्रयोदशी या बुधवारयुक्ता ॥१६॥
३. यशोधर चरित
मट्टारफ सोमकीर्ति ने यशोधर के जीवन पर संस्कृत एवं हिन्दी दोनों में ।
१. देखिये-प्रद्य म्न चरित की प्रस्तावना पृष्ठ-१३ ।
साहित्य शोध विभाग श्री दि. जैन अ. क्षेत्र श्रीमहावीरजी की ओर से प्रकाशित ।
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प्राचार्य सोमकीति
रचनायें निबद्ध की हैं। इससे पता चलता है कि यशीघर की कथा उस समय बहुत ही लोकप्रिय थी। प्रस्तुत यशोधर चरित्र पाठ सों में विभक्त काव्य है जिसका रचना काल संवत् १५३६ है। इसकी रचना कवि ने गोढिल्ल मेदपाट (मेवाड़) के भगवान शीतलनाथ के सुरम्य मन्दिर में की भी । कवि ने इसको निम्न प्रकार लिखा है:
नन्दीतटाख्यगच्छे पैशे श्री रामसेनवेवस्य । जातो गुणार्णवैकश्च (वश्चकः) भो मांश्च (मान्) श्रीभीमसेनेति ॥६१॥ निमितं तस्य शिष्येण श्रीयशोधरसंशकं । श्रीसोमकोति मुनिना विशोध्याऽधीयतां नुधाः ।।६।। वर्ष पनिशरण्ये तिथि पहगणनायुक्तसंवत्सरे (१५३६) थे। पंचम्यां पौष कृष्णे दिनकरविषसे घोसम्स्ये ही चम्। गोहिल्यां मेवपाटे जिनवरभवने शोतलेन्द्रस्प रम्ये ।
सोमादिको सिमदं नृपवरचरितं निमितं शुद्धभक्त्या ।।२।।
कषि की अष्टाहिकावत कथा एवं समवसरण पूजा लघु रचनाएं हैं तथा कथा एवं पूजा विषयक हैं । राजस्थानी कृतियाँ
भट्टारक सोमप्रीति की राजस्थानी भाषा में निबद्ध सात रचनामों की खोज की की आ जकी है। लेकिन राजस्थान एवं गुजरात के अभी कुछ ग्रन्थ-भण्डारों का सुचीकरण होना शेष है, इसलिए संभव है कवि की और भी कृतियों की उपलब्धि हो सके । फिर भी जो वृतियां उपलब्ध हो चुकी है वे कवि की राजस्थानी भाषा पर अगाध विद्वत्ता की द्योतक है 1 सोमकीर्ति के पास संस्कृत एवं हिन्दी जानने वाले दोनों ही तरह की समाज आती थी इसलिए उन्होंने दोनों ही भाषाओं में काव्य रचना करना श्रेयस्कर समझा। वैसे उस युग में इस तरह की परम्परा भट्टारक सकलकीतिने डाली थी और उसका अनुकरण किया महाकवि ब्रह्म जिनदास, भट्टारक ज्ञानमूषण एवं भट्टारक शुभचन्द्र ने । सोमकीति ने भी अपने पूर्ववर्ती मूलसंघ में होने वाले भट्टारकों का अनुसरण किया और अस्यधिक लोकप्रियता प्राप्त की।
कवि द्वारा राजस्थानी भाषा में निबद्ध सात रचनाओं में यशोधर रास सबसे बड़ी कृति है । इस काव्य का रचना काल नहीं दिया हुआ है । हाँ रचना स्थान का अवश्य उल्लेख किया हुआ है जो मेवाड़ का गुडली नगर है। जहां प्रापने
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आचार्य सोमकोति एवं ब्रह्म यशोधर
संवत् १५३६ में संस्कृत में यशोधर परित्र की रचना की थी इसलिये यह सम्भव है कि इस काव्य की रचना भी संबत् १५३६ के प्रासपास ही हुई होगी।
१. यशोधर रात
राजा यशोधर का जीवन जैन साहित्यकारों के लिए अत्यधिक रुचिकर रहा है। प्राकृत संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी एवं हिन्दी सभी भाषा के कवियों ने यशोधर के जीवन पर 'खूब लिखा है । महाकाव्य, चम्काम्य, खण्ड़ काध्य, रास काव्य, चौपईबन्ध काव्य, बेलि, फागु एवं चरित नामान्तक सभी तरह के काव्य मिलते हैं । यशोधर के जीवन ने श्रावक समाज को इतना अधिक प्रभावित किया कि जब तक कोई कवि यशोधर के जीवन पर कलम नहीं चला ले तब तक उसे कवियों की कोटि में स्थान मिलना कठिन है । यही कारण है कि अपभ्रश के महाकवि पुष्पदन्त ने भी असहररिउ छन्दोबद्ध किया तथा प्राचार्य सोमदेव ने संस्कृत में यशस्तिलक चम्यू लिखकर बिद्वानों के समक्ष प्रस्तुत किया। हिन्दी, राजस्थानी में तो बीसों यशोधर बरित लिखे गये हैं जिनमें ब्रह्म जिनदास का यशोधर रास विशेषत: उल्लेखनीय है। प्राचार्य सोमकीर्ति तो यशोधर के जीवन वृत्त से इतना अधिक प्रभावित थे कि उन्होंने पहले संस्कृत में यशोघर चरित्र एवं फिर राजस्थानी में मशोधर रास की रचना करके जैन कवियों के समक्ष एक अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया ।
रचना काल एवं स्थान
राजस्थानी भाषा में इस रास काव्य को प्राचार्य मोमकीति ने गुढली नगर में शीतलनाथ स्वामी के मन्दिर में कार्तिक बुदी प्रतिपदा बुधवार के शुभ दिन समाप्त करके जन-जन के समक्ष स्वाध्याय के लिए प्रस्तुत किया। कवि ने रास काश्म के समाप्ति काल का महिना, वार एवं स्थान तो दिया है लेकिन संवत् का उल्लेख नहीं किया। कवि ने संस्कृत के यशोधर चरित्र की रचना संवत् १५३६ पौष बुद्धि पंचमी रविवार को समाप्त की थी। रचना स्थान दोनो का समान है अर्थात् संस्कृत काव्य को भी गुली नगर एवं शीतल नाम स्वामी के मन्दिर में ही लिखा गया था । संस्कृत भाषा में कवि ने काव्य की रचना को अधिक प्राथमिकता
१. कातीए उजली पावि पष्टिया बुधवार कीउ ए ।
सीतलूए नाथ प्रासादि गुढली नगर सोहामणुए। रिधि वृद्धिए श्री पास पोसा हो जो निवि श्री मंघह धरिए । श्री गुरु चरण पसाउ श्री सोमकीरति सूरि भण्यू ए॥
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आचार्य सोमकीर्ति
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दी थी इसलिए ऐसा लगता है कि संस्कृत में यशोधर चरित्र की रचना करने के पश्चात् राजस्थानी में यशोधर रास की रचना की थी। इस आधार पर रास की रचना संवत् १५३९ के बाद की मानी जा सकती है ।
यशोधर रास को कवि ने सग एवं अध्यायों में विभक्त नहीं करके दालों में विभक्त किया है। जिनकी संख्या १० है । इससे दो प्रयोजन सिद्ध हो गये । एक तो काव्य में १० प्रमुख छन्दों - रामों में निबद्ध करना तथा दूसरह ढालों के माध्यम से श्रध्यायों में विभक्त करना | हिन्दी के अधिकांश जैन कवियों ने इसी परम्परा को अपनाया है । कवि ने काल के अन्त में वस्तुबन्ध छन्द का प्रयोग किया जो ढाल समाप्ति का सूचक माना जाता है ।
कवि ने रास का प्रारम्भ मंगलाचरण से किया है जिसमें पंच परमेष्डियों करने के पास रहने का संकल्प व्यक्त किया गया है।
की
कथा सार
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में पौध देश था। वहां राजपुर नगर एवं मारदत्त उसका राजा था। जो सुन्दरता में तथा दान देने में इन्द्र के समान लगता था। वह छह दर्शन के सिद्धांतों पर विचार करता लेकिन कौनसा दर्शन तारने वाले तथा कौनसा डुबाने वाला है इसको वह नहीं जानता था । उसी नगर के दक्षिण दिशा की ओर देवी का मठ था। जहां देश विदेश के स्त्री-पुरुष दर्शनार्थं आते थे । देवी का नाम चण्डमारि था। उसका रूप कज्जल के समान काला था । भक्तगण आसोज, एवं चैत्रमास में, नवरात्रा में उसकी विशेष पूजा करते थे। लोग पशु पक्षियों को लेकर प्राते थे ।
जब चैत्र मास श्राया सभी पेड़ पौधे पल्लवित एवं पुष्पित हो गये। तभी वहीं एक जोगी आया । उसके वहां कितने ही शिष्य शिध्याएं बन गये । मुखं लोगों को वह कितनी ही तरह से बहकाने लगा तथा कहने लगा उसको राम, लक्ष्मण, ब्रह्मा, विष्णु, महेश यदि दिखायी देते हैं। यह सुनकर राजा ने भी उसे दरबार में बुलाया जोगी अपने सात शिष्यों के साथ यहां आया। राजा ने सम्मान पूर्वक उसे आसन दिया। परस्पर में चर्चा हुई और उस जोगी ने कहा कि वह मोहनी वशीकरण एवं स्तम्भन मन्त्र जानता है, श्राकाश गामिनी विद्या जानता है, यही नहीं सभी रसायन मन्त्र तन्त्र का वह ज्ञाता है। राजा उसकी बात सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ । और उससे आकाश गामिनी विद्या देने को प्रार्थना की। जोगी ने उसे प्राशीर्वाद दिया और अपना शिष्य घोषित कर दिया तथा कहा कि चण्डमारी देवी के आगे जितने भी जलचर, थलचर एवं नभचर जीव हैं उनके युगल लाये जायें। इतना सुनते ही राजा ने अपने सेवकों द्वारा सैंकड़ों जीवों के युगल देवी के मन्दिर में लाकर
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श्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
एकत्रित कर दिये इसमें हरिया, रोझ, हाथी, घोड़े, बकरी, भैंस, गाय, बैल, बगुला, सारस चकवा श्रादि न जाने कितने जीव थे। राजा मन्दिर में गया और सिहासन पर बैठ गया । वहां आने पर जोगी ने राजा से कहा कि वह बत्तीस लक्षण युक्त नर युगल का अपने हाथों से बलिदान कर सके तो उसे उसी क्षण देवी की कृण से आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हो जायेगी। राजा ने फिर अपने सेवकों को चारों थोर भेजा ।
तीन दिन पूर्व ही दिगम्बर मुनि सुदत्ताचार्य का संघ वहां आया था और वन में ठहर गया था। मुनि के प्रभाव व वह जंगल सघन हो गया। फूल खिल गये और कोयल मधुर गान गाने लगी। इसको देखकर वह मुनि ध्यान के लिये श्मशान में चले गये । प्रमशान को विभत्सता देखते ही डर लगता था | स्थान स्थान पर प्रस्थियों के ढेर लगे हुए थे। लेकिन मुनि प्रामुक भूमि देखकर वहीं ध्यानस्थ हो गये। उस दिन चैत्र सुदि भ्रष्टमी यो इसलिए उपवास ले लिया । इतने में ही एक क्षुल्लक एवं एक क्षुल्लिका गुरु के पास आये और दोनों प्रोषधोपवास व्रत लेने की प्रार्थना करने लगे। मुनि ने उनकी लघु प्रायु देखकर नगर में जाकर आहार लेने के लिए कहा। वे दोनों आहार के लिये नगर की ओर चल दिये ।
वे दोनों को देखते ही । राजा ने उन दोनों देखकर आश्चर्य प्रगट
लेकिन जैसे ही दोनों उसके यश की कामना
राजा के सेवक भी ऐसे ही नर युगल की तलाश में थे। प्रसन्न हो गये और उनको चण्डमारी देवी के मठ में ले गये को देखकर प्रसन्नता व्यक्त की लेकिन उनके सलोने रूप को किया और क्रोधित होकर अपनी तलवार सम्हालने लगा। क्षुल्लिक, क्षुल्लिका युगल ने राजा को शुभाशीर्वाद दिया, की तथा करोड़ वर्ष तक जीने का पाशीर्वाद दिया इससे राजा का क्रोध कम हुआ। उन दोनों के रूप को देखकर वह दंग रह गया और इतनी छोटी उम्र में साधुवेष अपनाने का कारण जानना चाहा लेकिन क्षुल्लक ने कहा कि वह जानकर क्या करेगा | वह तो पाप बुद्धि में फंसा हुआ है। उसके हाथ में तलवार है । संसार को पाने की उसकी इच्छा है । लेकिन राजा ने उससे फिर निवेदन किया । राजा की प्रार्थना को सुनकर क्षुल्लिक ने अपने जीवन का इतिवृत कहना प्रारम्भ किया ।
उज्जयिनी का राजा यशोध था। चंद्रमती उसकी रानी थी। दोनों हो भावक धर्म को पालने वाले । जब चन्द्रमती नाम यशोधर रखा गया। नगर में विभिन्न पर उसे उपाध्याय के पास पढ़ने भेजा गया ।
सुन्दरता की मूर्ति, सम्यक्त्वी एवं के पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ तो उसका उत्सव किये गये। पांच वर्ष का होने
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प्राचार्य सोमकीर्ति
तथा वहां उसने सभी विद्यानों में पारंगता प्राप्त की। काव्य, अलंकार, तर्कशास्त्र, सिद्धांत, नाटक, ज्योतिप, वैद्यक, प्रादि सभी शास्त्रों का अध्ययन किया 1 यही नहीं संगीत, नृत्य आदि में प्रवीणता प्राप्त की। उपाध्याय को इस उपलक्ष में एक लाख दीनार भेंट की तथा अपना पूरा प्राभूषण उतार करके दिया । यौवन प्राप्त करते ही विवाह के प्रस्ताब पाने लगे। एक दिन कैशक राजा के यहां से विवाह का प्रस्ताव लेकर एक दूत पाया। राजा ने विवाह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया तथा अपने पुत्र का विवाह कर दिया । विवाह के उपलक्ष में नगर को सजाया गया । बिन्दीरियां निकाली गयी । तेल चढ़ाया गया । तथा गीत गाये गये । उद्यान में जाकर विवाह किया गया । जब वधु का रूप देखा गया तो सभी प्रसन्न हो गये । वधु को लेकर राजमहल में गये और सब सुख से रहने लगे 1 बहुत वर्षों तक राज्य सुख भोगने के पश्चात् राजा यशोध अपने पुत्र यशोधर को राज्य देकर स्वयं ने जिन दीक्षा धारण करली ।
यशोधर एवं रानी यशोवती राज्य करने लगे । जीवन प्रानन्द से बीतने लगा । एक तो योवन, फिर सुन्दरता, राज्य वैभव एवं परस्पर में घना प्रेम, सब कुछ दोनों के पास था। इसलिए वैभव में दिन व्यतीत होने लगे । एक रात्रि को जब राजा-रानी एक पलंग पर सो रहे थे । अर्धरावि का समय आते ही रानी अपने पलंग से उठी और पूरे प्रभूषण पहिन कर महलों से नीचे चलने लगी। राजा को जब जाग हुई तो वह भी तलवार लेकर रानी के पीछे-पीछे चलने लगा। राजा ने देखा कि रति के समान रानी एक कोड़ी के पास गयी तथा उसके चरण पकड़ कर जगाने लगी । कोही के हाथ-पांव गल गये थे। शरीर से दुर्गन्ध पा रही थी। उस कोढी ने रानी को देर से प्राने पर उसे खूब मारा लेकिन रानी ने अरु भी नहीं कहा और देर से पाने के लिए क्षमा मांगने लगी । राजा ने जब यह सब अपनी प्रांखों से देखा तो क्रोधित होकर उसे तलवार से मारने लगा लेकिन फिर सम्भल गया । और वापिस अपने महल में जाकर सो गया । जिस रानी के साथ जीवन बिताने में राजा को प्रानन्दानुभूति होती थी अब उसे वह जहर के समान लगने लगी।
प्रातः काल होने पर जब उसकी माता जिन पूजा प्रादि से निवृत होकर राजमहल में पायी तो राजा ने रात्रि स्वान की बात कही तथा स्वप्न की भयंकरता को देखते उसने वैराग्य लेने की इच्छा प्रगट की । लेकिन माता ने उसे कायरता बतलाया तथा कहा कि कुलदेवी के मागे बलि चढ़ाने से सारे उपद्रव दूर हो सकते हैं। लेकिन यशोधर ने किसी भी जीव की बलि देने से साफ इन्कार कर दिया । माता
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प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
ने उसे पूनः समझाया तथा जगत में जीवों के जन्म मरण की बात कही लेकिन यशोधर ने एक भी नहीं सुनी। अन्त में प्राटे का कुकुडा बनाकर देवी के मन्दिर में गया और देवी के प्रागे उसे मार दिया मौर इस प्रकार हिंसा का बन्ध कर लिया।
जब रानी को राजा के दीक्षा लेने की बात मालूम पड़ी तो वह शीघ्र राजा के पास गयी । कहने लगी कि एक बार उसके हाथ का प्रिय भोजन करके वैराग्य लेना वह भी उन्हीं के साथ तपस्विनी बन आवेगी । तभा 'तप करसां दोर्ड' इस प्रकार अपनी मार्मिक रीति से भावना व्यक्त की । राजा ने रानी की बात मानसी। राजा जिन पूजा के पश्चात् रानी के महल में गया । रानी ने सोने के थालों में राजा के लिए भोजन परोसा । विविध प्रकार के ध्यञ्जन परोसे गये लेकिन उनमें विष मिला दिया गया । तभी रानी ने कहा कि एक प्रावश्यक कार्यवश उसे अपने पीहर जाना है । सात दिन बाद वापिस पाजावेगी। रानी ने दो विष मोदक बनाये । एक माता के लिये और एक राजा के लिए। दोनों को विष के लड्डू खिला दिये । माता चन्द्रावती तो तत्काल ही मर गयी और राजा भी बंध-वैद्य करता मर गया । रानी
त्रिया चरि दिखनाया !
इम चीती हा हा करी छोटीय केश कलाप । मूरछ मसि उपरि पडी होयलि पारणोय पाप ।।
दोनों का दाह संस्कार किया गया। ब्राह्मणों को दान दिया गया। इसके पश्चाद राजा यशोधर एवं माता चन्द्रमती के भवों का क्रम प्रारम्भ होता है
राजा यशोधर मर कर स्वान हुअा और चन्द्रमती मोर हुई । एक शिकारी मे उस स्थान को पकड़ लिया और उज्जैनी नगरी में प्राकर राजा के पास ले गया राजा ने स्वान को देखकर प्रसन्नता व्यक्त की तथा कुत्ते को सोने की जंजीर से बांध दिया । एक दिन कुत्ते ने रानी को कुबड़े के साथ कुकर्म करते हुए देख लिया । देखते ही कुसे को जाति स्मरण हो गया । वह अत्यधिक क्रोधित होकर तथा सांकल को तोड़ कर मोर का गला पकड़ लिया । राजा ने तत्काल श्वान को मार दिया । मोर भी मर गया । मोर मर कर काला सांप हुमा तथा स्थान सेहलु हुई। दोनों ने जब एक दूसरे को देखा तो फिर लष्ठ मरे 'मोर दोनों ही मर गये। अगले भव में सेहलु मर कर बड़ा मगर हुई तथा सांप रोही हो गया। एक दिन राजा की दासी उस तलाव पर नहा रही थी तभी उस मगर ने दासी को पकड़ लिया और जब राजा को खबर लगी तो उसने धीवर से मगर को पकड़ने का प्रादेश दिया । रोही ने जाल डाल कर उसे पकड़ लिया और उसे खूब मारा गया। अंत में वह मा
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कर नकरी हुई। रोही मर कर बकरा हुा । जब यह बकरा दूध पीने लगा तो उसे देखकर बड़ा काँध याया और उसे मार डाला गया। लेकिन बह फिर बकरा हो गया । बकरा मर कर पुनः मैंसा हो गया। जिस को वरदस बणजारा भार लादने का काम लेने लगा। उसके पश्चात् के दोनों मर कर मुर्गा मुर्गी की योनि में पैदा हुए। उस मुर्गा मुर्गी ने मुनिराज से व्रत निये । लेकिन राजा उनके बोलने से अप्रसन्न हो गया इसलिये दोनों को पापी बाग से मार देवा । बौना फिर रानी के गर्भ में पाकर पुत्र-पुत्री हुए, जिनका नाम अभयचि एवं अभयमति रखा
गया।
एक विन राजा यशोमति बसंत ऋतु आने पर अपनी रानी के साथ वन भ्रमण को गया। उसी वन में सुदल मुनि ध्यानस्थ थे। मुनि को देखकर वे भी उनके पास जाकर बैठ गये और अपने पूर्व भदों का वृतान्त जानने की इच्छा प्रकट करने लगे । मुनि ने जगत की भसारता, पापों की भयानकता एवं पहिंसा धर्म पालन की महसा बतलाई साथ ही प्राटे के कुकुट युगल को मारने की भाव हिसा करने से यशोधर को कितने भवों तक जन्म धारण करके दुःख सहन करने पड़े इस बारे में विस्तार से कहा ।
एक दिन वह शिकारियों को साथ लेकर वन में गया। यहां ध्यानस्थ मुनि को देखकर क्रोधित हो गया तथा मुनि के ऊपर जंगली कुत्ते छोड़ दिये । उधर से एक कल्याण नामक बाजारा अपने बलों के साथ जा रहा था। जब उसने मुनि को ध्यानस्थ देखा तथा उस पर राजा द्वारा छोड़े हुए कुत्तों को देखा तो उसने राजा से मुनि महात्म्य के बारे में कहा । तो राजा ने मुनि के शरीर की ओर संकेत करते हुए कहा कि जो कभी स्नान नहीं करता, दांत साफ नहीं करता यह कैसे पवित्र हो सकता है। बणजारे ने इसके पश्चात् विस्तार से मुनि जीवन की विशेषताएं बतलायी तथा कहा कि “मुनिबर सदा पवित्र मंगल परमए जाण जे ।" साथ में यह भी कहा कि ये मुनि कालिंग राजा सुदत्त हैं । कल्याण बणजारा मुनि के चरणों के समीप बैठ गया। मुनि के वचनों के प्रभाव से राजा को भी वैराग्य हो गया । जब उसके दो पुत्रों को राजा के वैराग्य की मालम पड़ी तो तो उन दोनों ने भी वैराग्य चारण कर लिया और वे अभयरुचि एवं अभयमति के रूप में सामने हैं । काल्याण ने भी जिन दीक्षा धारण करती।
मुनि सुदत्ताचार्य ने कषायों, लेण्याओं की उग्रता, नरक योनि के दुःख के मारे में विस्तार से बतलाया तथा जिन पूजा, पात्रदान, णमोकार मन्त्र का जाप, सत्य भाषण, प्रादि की जीवन में उपयोगिता के बारे में बतलाया ।
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प्राचार्ग सोमकीर्ति एवं ब्रह्म पशोधर
बार के वनों, ना वो, म गर शिरः प्रकाश डाला और उन्हें जीवन में उतारने पर जोर दिया । राजा मारिदप्त मशोघर के पूर्व भवों की कथा को मुनकर जगत से भवभीन हो गया और क्षुब्लक क्षुल्लिका के पांव पर गया ! उधर सुदत्ताचार्य भी वहां पा गये। अभवरुचि ने उनसे राजा को दीक्षा देने के लिये निवेदन किया। मारिदल ने मुनि दीक्षा लेकर स्वर्ग प्राप्त किया । योगी ने भी हिसावृत्ति को छोड़ कर जिनदीक्षा धारमा कर ली। देवी के मन्दिर को स्वच्छ कर दिया गया और जीव हिंसा सदा के लिये बन्द हो गयी। अभयरुचि एवं अभयमति तपस्या करते हुए मर कर स्वर्ग में इन्द्र प्रतीत हुए । बाजारा कल्याण ने भी जिन दीक्षा धारण कर स्वर्ग प्राप्त किया। इस प्रकार प्रशोधर रास में सूक्ष्म हिंसा से भी कितने भवों तक कष्ट सहने पड़ते हैं, इसका विस्तृत वर्णन क्रिया है । इस रास काव्य को जी पढ़ता है अथवा सुनता है उसे अपूर्व पुण्य की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार का यशोधर रास के कथानक को कवि ने बहुत ही मीधी सादी एवं तत्कालीन बोलचाल की भाषा में निबद्ध किया है। कवि ने काव्य के मूल कथानक में यद्यपि कोई परिवर्तन नहीं किया है किन्तु अपने काव्य को लोकप्रिय बनाने के लिये उसके वर्णन में नवीनता लाने का अवश्य प्रयास किया है । उसमें सामाजिक पुट स्थान स्थान पर मिलता है तथा तत्कालीन जन भावनाओं की अभिव्यक्ति भी मिलती हैं । प्रकृति वर्णन, नगर वर्णन, शासन वर्णन आदि भी स्थान स्थान पर मिलते हैं । उस समय की अध्ययन अध्यापन स्थिति का भी काव्य से पता लगाया जा सकता है साथ ही में राजा एवं प्रजा के सम्बन्धों पर भी कहीं कहीं प्रकाश डाला गया है । काव्य के अन्त में हिंसा से मुक्ति पाने के लिये उसके अवगुणों का विस्तृत वर्णन मिलता है तथा जीवों की स्थिति, उत्पत्ति, एवं विविध योनियों का अच्छा वर्णन किया गया है।
कवि ने फ्मशान एवं देवी मंडप की विभित्सता का बहुत अचहा बार्णन किया है जिसे पढ़ते ही मन में ग्लानि होने लगती हैं। राजपुर के श्मशान का चित्र प्रस्तुत करते हुए कवि ने लिखा है
हामि ठाभि सब तसीय गंधि प्रति प्रस्थि असंख । काफ सेह सोयाल स्वान सिंहा प्रावि पंख ।। २६ ।।
इसी तरह देवी के मठ का वर्णन देखिये
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प्राचार्य सोमकोति
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देवीय मंडप विषभु वोठउ, सूग तरण भय मन माहि पिठड ठामि ठामि बीहामरगए ।। ३६ ।।
अस्थि तगा को ही अगर बीसि अस्थि सिंघागि जोगी महसि अस्थि दंड ते कर लेइए ।। ३२ ।। अमिष तणा ढगला प्रति पुरण । अमिष ठाम टोसिधिप्रति घण ! अमिष मषी पंखी चखिए । ३३ ।।
लेकिन जब प्राकृतिक छटा का वर्णन करने लगता है तो कवि उसमें भी जीवन डाल देता है -..
मोहल करह टहक भमरा रुप मुरण इवनि करि रे सखी फल्या केसु फूल. सहकारे मांजिर घरगी रे ।।
इसी तरह उसने झुल्लिक झुल्लिका के सन्दौर्य का वर्णन किया है
कद इन्द्र इन्द्राणी बेहू । पस कीरति धरि आदि देह । चण्दा रोहिणी सु मिलिए ।। ४३ ।। सुरचरना देव सरीसु मारणस । रूपन ए ईभु। कामि सहित सुरति हुइए ॥ ४४ ।।
मामाजिक स्थिति में कवि ने तत्कालीन विवाह विधि का विस्तृत वर्णन किया है
कुमार यशोधर के विवाह का प्रस्ताव लेकर ऋथकैशक राजा के यहां से दूत छाता है । दूत का प्रस्ताव सुनकर राजा उससे उम्जयिनी पाकर ही विवाह करने का प्रस्ताव रखता है। दूत राजा के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है। तथा राजा, राजपरिवार एवं कन्या सहित वन में प्राकर ठहर जाते हैं।
१. हाल पाठमी ।
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प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
विवाद का प्रारम्भ विन्दोरी से होता है। घर-घर विन्दोरियां निकलती है तथा मंगलगीत माये जाते हैं। सौभाग्यवती स्त्रियां तेल चढ़ाती हैं । शांति विधान करती हैं | यशोच राजा नपरिवार तोरण मारने के लिये बरात सजा कर चलते है। उस समय दूध दान दिया जाता है। अब वा बेला नाही तो तोरण की विधि पूरी की जाती है। वर कन्या का मुख देखता है 1 वर कन्या का हाथ से हाथ मिलाया जाना है। हृधलवा होता है। जब हथलेवा छोड़ते हैं तो श्वसुर आशीर्वाद देता है । विवाह के पश्चात् वर वधु मन्दिर जाते हैं। इस प्रकार विवाह के सामाजिक दायित्व को पुर। किया जाता है ।
इसके पश्चात् जब वर-वघु घर पाते हैं तो सास स्वमुर उन्हें अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रह व्रत के पालन की शिक्षा देते हैं। इसके साथ ही रामि को भोजन नहीं करने पर जोर दिया जाता है।
धर्म अहिंसा मनि थरिए, मा० बोलिम कूडीय सासि ।। ११० ।। चोरीस बात मां करे से मा० परिनारी सही हालि । परिमाह संख्या नितु करिए, गुरुवाणी सवा पालि ।। १११ ॥ न्याय पाले लोकह सहए, रमरणीय भोजन वारि ॥
शिक्षा-अध्यापकों को उपाध्याय कहा जाता था। जन उपाध्याय होते ये। पांच वर्ष का होते ही यशोधर को पढ़ने भेज दिया गया था और पन्द्रह वर्ष की अवस्था तक वह पहना रहा था । उपाध्याय के पाम उसने किन किन विषयों का प्रध्ययन किया इसका निम्न पंक्तियों में विवरण देखिय--
वृत्तनि काव्य अलंकार तर्क सिद्धान्त प्रमाण । भरह नः छंब सुपिगल नाटक ग्रन्थ पुराण ।। ६६ ।।
आगम यौतिष वैदिक हय नर पसुयलु जेह । त्य चैत्याला गेहनी गढ़ मढ करवानी तेह ।। ६७।।
माहो माह विरोधी कठा भनाबीइ जेम । कागल पत्र समाचरी रसोयनी पाई केम ।। ६८ ।।
इन्द्रजाल रस मेवजे खूपन झूमनु कम । पाप निवारण वाचन नत्तन नाछि जे मर्म ।। ६६ ॥
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प्राचार्य सोमकीर्ति
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नारी निन्दा
१६ वी १७ वीं शताब्दि में हिन्दी काव नारी निन्दा जनक पच अवश्य लिखते थे | प्राचार्य सोमकीर्ति ने भी अपने काव्य यशोधर रास में नारी निन्दा निम्न शब्दों में की हैं..--
नारी विसहर बेस. नर चंचेवाए घडी ए। नारोय नामज मेल्हि नारी नरक प्रतोलडीए । कुटिल पणानी खाणि, मारी नीचह पामिनीए । सांच न बोलि वाणि, वाधिए सापिरण प्रगनि शिखा । पर मांसगीय एह दोष निषाने पूरीउए ।।
लेकिन एक दूसरे प्रसंग में कवि ने नारी की प्रशंसा भी की है--
सखी मारी बह गुणवंत कुल लक्षरण दायि भली रे ।
सात भूमि जे गेह राज दिधि मोरिम घरगी रे ॥ मश्यु के समय
प्राचार्य सोमकौति के समय मृत्यु के पहिले गाय, भूमि, एवं स्वर्ण दान में देने की प्रथा थी। राजाओं का दाह संस्कार चन्दन से किया जाता था । ब्राह्मणों को भोजन एवं दान दक्षिणा देने की प्रथा भी थी। राज परिवार में श्राख होता था और उसमें प्राह्मणों को भोजन कराया जाता था।
हिंसा दो प्रकार को होती है। एक भाव हिंसा एवं दुसरी द्रव्य हिंसा 1 मन में हिंसा का विषार मात्र ही भाव हिंसा कहलाती है फिर चाहे उसमें अपने हाथ से जीव हिंसा मरें या नहीं मरें । द्रव्य हिंसा साक्षात् प्राणिधात का ही नाम है । प्रस्तुत यशोधर रास की रचना छोटी से छोटी हिंसा के कितने भयानक परिणाम भुगतने पड़ते हैं इसी बात को दर्शाने के लिये की गयी है । राजा यशोधर स्वयं हिंसा में विश्वास नहीं करता । वह हिंसा कार्य से बचना चाहता है लेकिन अपनी मां के साग्रह से बह ग्राटे का कुकडा कुकडी बनाकर उनकी हत्या कर डालता है । इसलिये चाहे उसने वास्तविक जीवित कुकडा कुकडी को नहीं मारा हैं किन्तु प्राटे में फुकडा कुकडी की स्थापना करके उन्हें मारने का उपक्रम
१. हाल छट्ठी २. दाल सातवीं
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आचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
अवश्य किया था । इसी हिंसा के कितने परिणाम अनेक जन्मों तक मुगलने पड़ते है यही यशोधर रास के कथानक की मूल बस्तु है । २. गुरु नामावली
___ सीमकीर्ति की यह दूसरी रचना है जिनमें उसने अपने संघ की पट्टावली नामोल्लेख किया है तथा उसका ऐतिहासिक परिचय दिया है । काष्ठा संघ की उत्पत्ति एवं उसमें होने वाले अपने पूर्व भट्टारकों के नाम, किमी किसी भट्टारक की विशेषता साथ ही में नरसिंहपुरा जाति एवं भट्टपुरा जाति की उत्पत्ति का वर्णन भी दिया गया है | गुरु नामावली की पूरा विवरण निम्न प्रकार है ---
संस्कृत में मंगलाचरण के पश्चात् सोमकीति अपनी शक्ति अर्थात ज्ञान के अनुसार अपने गुरुयों की नामावली कहने की इच्छा प्रकट करते हैं।
___ भगवान मादिनाथ के ८४ गणधर हुए और महावीर स्वामी के ग्यारह । भरतेश्वर जिन प्रकार चक्रवतियों के शिरोमणि थे उसी प्रकार काष्ठासंघ अन्य सभी संघों में शिरोमणि था। लाड बागा गच्छों में नन्दी तट संजन संघ प्रसिद्ध है। अहंदवल्लभसूरि उस गच्छ के प्रथम प्राचार्य थे । उस गच्छ में पांच गुरु हुये । वे हैं गंगसन, नागसेन, सिद्धान्तदेव, गोपसेच, नोपसेन ।
दक्षिण देश में गन्धी तटपुर में नोपमेन मुनि रहते थे। उनके पांचसो शिष्य थे उनमें चार शिष्य प्रमुख थे । रामसेन प्रथम णिस्य थे जो वाद एवं शास्त्रार्थ करने में पटु थे । अपने शिष्य की विद्वत्ता एवं शास्त्रार्थ पटुता वो देवकर नौपसेन ने कहा कि यदि वह नरसिंहपुरा जाकर वहां के निवासियों में व्याप्त मिथ्यात्व को दूर कर सके लब उसकी शास्त्रार्थ पटुता को समझी जावेगी । नागड देश में मथुरा नगरी में तथा लाइ देश में मिथ्यात्व' फैला हुमा है । गुरु की वाशी को मन में धारण कर वहां से वे चारों शिष्य ले ।।
मूनि रामसेन नरसिंहपुरा नगर में भाये । नगर के बाहर मरोघर के किनारे मासोपवासी बन कर ध्यान करने लगे । उसी नगर में भाहड नामक श्रीमन्त था जिसके सात पुत्र थे लेकिन पौत्र एक भी नहीं था। सेठ मुनि की वन्दना करने वहां माया पीर हाथ जोड़कर बैठ गया । तथा महामुनि के आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। मुनि ने मिथ्यात्व दूर करके जिनधर्म फैलाने की इच्छा प्रकट की
१, रामसेन के अतिरिक्त तीन शिष्यों का नाम नहीं दिये गये हैं।
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प्राचार्य सोमकोति
तथा मन्दिर बनवा कर उसमें भगवान की प्रतीमा की प्रतिष्ठित करने की बात रखी। मुनि ने उत्तर वाइपुर जाने को कहा तथा अपनी तपस्मा के प्रभाव से नरसिंहपुरा एवं उत्तर वाडुपुर के निवासियों को सम्बोधित किया और जैन धर्म में दीक्षित कर नरसिंहपुरा जाति की स्थापना की तथा उसे २७ गोषों में विभक्त किया
राममेन वहां से चित्तौड़ आये। रामसेन के साथ उनके शिष्य भेमिसेन मुनि भी थे । जो प्रायश्चिद् स्वरूप छह महिने का उपवास कर रहे थे। रामसेन ने अनशन करने की बात छोड़ने के लिये कहा । गुरु की बात को ध्यान में रख कर वहां से वे जाउर नामक प्रसिद्ध स्थान पर प्रा गये तथा अन्न, जल त्याग करके ध्यानस्थ हो गये । इस प्रकार सात दिन व्यतीत हो गये । एक दिन मुनि नेमसेन के ऊपर से पधावती देवी निकल' गरी। उधर से कैलाश से सरस्वती देवी भी सामने अाती हुई मिल गयी। दोनों में भेंट हुई तथा बातचीत हुई । नेमिसेन मुनि अपनी काया को क्यों कष्ट दे रहा है । यह कह कर दोनों देत्रियां मुनि के सामने जाकर खड़ी हो गयी। मुनिवर ने दोनों को देखकर कहा कि वे क्यों कष्ट कर रही है इस पर दोनों देवियां उससे प्रसन्न हुई । सरस्वती की प्रसन्नता के कारण उसे शास्त्रों का अपार ज्ञान प्राप्त हुआ तथा पयादेवी के कारण, प्रकाश गामिनी विद्या प्राप्त हुई। प्रातःकाल नेमसन ने अनशन तोड़ दिया । मुनि ने उसके पश्चात् प्रतिदिन शत्रुजय, रैवताचल, तु'गेश्वर, पावागिरी, एवं तारंगा क्षेत्र की यात्रा करने के पश्चात् हो माहार ग्रहण करने का नियम ले लिया ।
नेमसेन वहां से चित्तौड़ पाये । वहां नाकर अपने गुरु की वन्दना की। गुरु ने प्राशीष देते हुये कहा कि मेवाड देश में भट्टपुरा नगर है वहाँ के लोगों में मिथ्यात्व फैला हुआ है तथा वे धर्म के मर्म को नहीं समझते 1 तुम विशेर ज्ञान के घारक हो इसनिये यहां जाना चाहिये । नेमसेन ने गुरु की प्राज्ञा शिरोधार्य की । चित्त में उस कार्य का चिन्तन किया तथा शीघ्न ही भद्रपुर नगर में पहुंच गये । वे नगर में गये और लोगों में फैले हुए मिथ्यानन्द को देखा तब उसे नष्ट करने का संकल्प किया। यहां के नागरिकों को अपने ज्ञान से सम्बोधित किया। एक भटपुरा जाति की स्थापना की । भट्टपुरा में चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाओं को भ० नेमसेन ने प्रतिष्ठापित किया।
नेममन भट्टपुरा से चल कर अपने गुरु के पास प्राथे । भक्ति पूर्वक वन्दना को । तथा भटपुरा के सम्बन्ध में पूरा विवरग सुनाया। इसके पश्चात् सोमकीति नेमसेन के पट्ट में भट्टारकों के नामोल्लेख करते हैं जो निम्न प्रकार हैं
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१. हे बल्लभ सूरी
३. नागसेन
५. नोपसेन
U.........
£.............
१. नेम सेन
१३. वासवसेन
१५. श्रादित्य सेन
१७. श्र ुतकीर्ति १६. विजयकीति
२१. महासेन.
२३. कनकसेन,
आचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
२. गंगसेन
४. गोपसेन
६. रामसेन
२५. हरसेन २७. वीरसेन
२६. मेरसेन
३१. नयकीति
३३. सहस्रकीर्ति
३५. यशः कीर्ति
३७. पद्मश्रीति
३६. बिमलकीति
४१, मेरुकीति
......
१. चार के नाम नहीं लिखे हुये है ।
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{............
१२. नरेन्द्रसेन
१४. महेन्द्रसेन
१६. सहस्त्रकी लि
१५. देवकीर्ति
२०. केशव सेन
२२. मेत्र सेन
२४. बिजयसेन
२६. चारित्रसेन
२८. ऋषभसेन.
३०. शुभंकरसेन
३२. चन्द्रसेन
३४. महाकीति
३६. गुणकीति
३८. त्रिभुवनकीर्ति
४०. सदनकीजि
४२. गुणसेन
४२ वे भट्टारक गुग्णसेन महा मुनीश्वर थे। एक रात्रि को जब वे ध्यानस्थ थे तब सर्पाभिराज ने प्रत्यक्ष होकर वचन दिया कि वे बड़े शक्तिशाली हैं इसलिये उनके वचन व पीछी जिस पर फेर दी जावेगी उसके सर्प का विष कभी नहीं चढ़ेगा। मुनीश्वर ध्यान से, विद्या से तप से इतने प्रभावशाली थे कि स्वयं वृहस्पति भी उनसे हार मान लेता था ।
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प्राचार्य सोमकीति
४३. रत्नकीर्ति ४५. कनककीति ४७. संयमसेन ४६. विश्वनन्धि ५१. विश्वसेन ५३. भूषणकीति ५५. श्रुतकीर्ति ५७. गुगदेव ५६ मनन्तकीति ६१. विजयकीर्ति ६३. रविकीति ६५, श्रीकीति ६७. शुभकीर्ति ६९. भक्सेन ७१. बिलोककीति ७३, सुरसेन ७५. रामकीर्ति ७७. राजकीर्ति ७६. पप्रकीति ८१. भावसेन ८३. रत्नकीति ८५. धर्मसेन २७. सोमकीति
४४. जयसेन ४६. मानुकीत ४८. राजकीर्ति ५७. पाश्कीति ५२. देवभूषण ५४. लभकीति ५६. उदमसेन ५८. विशालकीति ६. महसेन ६२. जिनसेन ६४. अश्वसेन ६६. चारुसेन ६८. भवकोति ७०. लोककीति ७२. प्रमरकीति ७४ जयकीति ७६. उदयकीर्ति ७८. कुमारसेन ८०, भुवनकीति ५२. वासव सेन ८४. लक्ष्मसेन ५६. भीमसेन
सोमकीति के पूर्ववर्ती भट्रारक रत्नकीर्ति, लटमसेन भी बड़े प्रभावशाली भट्टारक थे। उनके बारे में सोमकीति ने निम्न पंक्तियां लिखी है
कहि कहि रे संसार सार । म जाए तहने प्रसार । अघि प्रति प्रसार । मेद करि । पूठ पूछु रे रे प्रहित वेष । सुरगर करि सेव । हवि मलाउ र भावपरी। पालु पातु रे अहिंसा अम्म । ममयनु लाष अम्म ।
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प्राचार्य सोमकी ति एवं ब्रह्म यशोधर
म कह कुरिसत कम्म । भवह वणे। तर तह रे उत्तम जन अवर भ प्राण मनि । ध्याउ सर्वक धन । लमसेन गुरु एम भरणे ॥४॥ धीवि वीठिरे प्रति प्राणंद । मिथ्यातना लिकंद । गयण बिहूराज चंव। कुलहि तिलु । जोई जोइ रे रमणी दोसि । तस्व पर लही कोशि । धरि मादेश शीसि । सेह भलु । तरि सरि रे संसार । करतिम गुरु मूकिद मूफिह मोकसु कर दान भणी। ईहि छवि रे रठडी बाल । लेद बुद्धि विशाल । पाणीय श्रति रसाल । लषमसेन मुनिराउ तरणी ॥५॥ ७ ॥
उत्त भट्टारकों में ८० वें भट्टारक भुवनकीर्ति ने दिल्ली के बादशाह महमूद शाह के सभा में अपनी विद्यावश पालकी ग्राकाश में चला दी थी। जिस कारण महमूदशाह ने उन्हें बड़ा सम्मान दिया था। भुवनकीर्ति ने बादशाह की सभा मध्य सभी मिथ्यास्वियों को शास्त्रार्थ में जीत लिया तथा जैन धर्म के यश को द्विगुणित किया था 1
__E२ वें भट्टारक वासबसेन ने यद्यपि मलिम नाम वाले थे लेकिन उनके नामकरण से तया पिच्छी के स्पर्श मात्र से कुष्ट का रोग दूर हो जाता था।
८३ वे भट्टारक रत्नकीति भी निर्मल चित्त वाले तथा कामदेव पर विजय पाने वाले थे ।
रचना काल.
"गुरु छन्द" को सोमकीति ने संवत् १५१८ प्राषाढ मुदी पंचमी रविवार को समाप्त किया था । रचना स्थान सोझिश्रापुर था जो भट्टारक सोमदेव का केन्द्र स्थान या। वहीं उनकी गादी थी तथा बहीं उनका पट्टाभिषेक भी हुआ था। रचना की विशेषता
गुरुछन्द ऐतिहासिक कृति तो है ही साथ में माषा की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। सोमकीर्ति ने छन्द के प्रथम तीन पद्य संस्कृत में निर्मित फिए है । फिर राजस्थानी भाषा में पद्य एवं गद्य दोनों निर्मित है। राजस्थानी गद्य को कवि ने बोली लिखा है जो तत्कालीन बोलचाल की भाषा थी।
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आचार्य सोमकीति
उस समय १५ वीं शताब्दी में इस प्रकार की रचना स्वयं में ही महत्त्वपूर्ण है । १५ वीं शताब्दी में निबद्ध राजस्थानी गद्य-पद्य का नमूना अच्छी तरह से देखा जा सकता है। पूरा छन्द १०४ पद्यों में पूर्ण होता है इसके अतिरिक्त बोली वाला भाग प्रलय है ।
हा बंध, दूहा पाथी श्रर्थं त्रोटक छन्द हवि दूहा, छन्द त्रिवलय, आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है । कवि को दूहा छन्द प्रिय था इसलिए उसने दूहा बंध, दूहा, हवि दूहा के नाम से प्रयोग किया है। इसी तरह बोली हवि बोली इन दो नामों से राजस्थानी गद्य का प्रयोग अपने श्राप में ही उज्जवल पक्ष है ।
(३) रिषभनाथ की धूल
यह एक लघु काव्य कृति है जिसमें भगवान आदिनाथ के पांचों कल्याणकों का वर्णन किया गया है। इसमें चार ढाल हैं। यद्यपि कवि ने इस लघु कृति की रचना आदिनाथ की जीवन गाथा बन करने से उद्देश्य से की थी लेकिन कहींकहीं प्रणते काम पर में नाभि राजा की
है।
रानी मरुदेवी को परिचर्या में देवियां किस प्रकार सभी हुई थी इसका एक वर्णन देखिये
केवि सिर छत्र परति करति केजि धूपनाए केविड गह बेक अंगि, सुवंगरे पूजा घणी ए ॥ केवि सपन अनि श्रासन, भोजन विधि करिए । केवि खडगधरी हाथि सो, साथइ नितु फिरिए 11
२७
तीर्थंकर ऋषभ को पाण्डुक शिला पर स्नान कराने के पश्चात् इन्द्राणी बड़े भाव से उनका श्रृंगार करती है। उन्हें सोलह प्रकार के आभूषण पहनाती है । इन्द्र स्वयं तीर्थंकर के अंगूठे में अमृत ढाल देता है। खूब उत्सव होते हैं तथा देव एवं देवियां तथा अयोध्या के नर नारी खुशी से नाच उठते हैं ।
इन्द्र इंद्राणीय करि अभिषेक, आप आपणि रंगि रचियां विवेक । स्नान कराविय सोल विभूषण, भूषया ते जिनवर सहि जुसुलक्षण । अंगूठि प्रभूतदेह ज्ञातीय धर्मववन नवि ले ||
इम्प्र
कवि ने रचना के अन्त में अपने नाम का उल्लेख किया है लेकिन कृति का रचना काल नहीं दिया है
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२८
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प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
रामा राणिम समि सुख सहए,
श्री सोमकीरति कहि दिउ हए । धूल श्री ऋषभनु गाइसिग,
तहां चितत फल सह पाइसिए । (४) श्रेपन क्रिया गीत इस लघु
ग मावकों द्वारा मेरन या कराने पर विशापा है। इन क्रियानों के पालन करने से मनुष्य का जीवन सात्विक बनता है तथा उसे स्वर्ग एवं मुक्ति की प्राप्ति होती है। पूरे गीत में ६ अन्तरे हैं तथा गीत के अन्त में कवि ने अपने नाम का भी उल्लेख किया है। पूरा गीत निम्न प्रकार है
ओपन क्रिया गीत सरसित स्वामिणि मह निशि समरी जिण बुवीस नमी जि । सहि गुरु पलण कमल प्रणमीनि किरीया विपन लीजि ।। सहिए त्रिपन किरिया पालु पाप मिथ्यातज टालु । साचु समकित हुक्ष्य धरोनि श्राविकुल अजूयालु सही ॥१५॥ रूषु समकित ते एफ कीजि तेस उपमा पुरण दीजि । ईग्यार प्रतिमा निरमल भणीइ, ते साचि चित कीजि | सही।।२।। दर्शन ज्ञान चारित्रि बाहु, मुगती जु उमाह । रत्नत्रय मंडार करीति निज मन निश्चल साहु ।।सही।।३।। पाठ मूलगुण मिश्चल जाणु व्रत वारि बखाण्उ । बापाभितर तपबिहु भेदे, सुकृते मनि पाणु सही॥४॥ म्यार दान बिहु पात्रा सारु अल गालण तिषि वार । एक प्रणयमी प्रति घणु सूधी, तु तिरसु संसार 1|सही॥५॥ सोमीति गुरु केरी वाणी, भवकि जीव मनि माणी । त्रिपन किरिया जे नर गाइ, ते स्वर्ग मुगति पंथ पाई।सही।।६।।
गुटका पत्र संख्या १३७
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प्राचार्य सोमकीर्ति
आदिनाथ गीत
गागर में सागर भरने के समान प्रस्तुत गीत में भादिनाथ स्वामी के जीवन पर प्रकाश डाला गया है। इस प्रकार के गीत लिखने में जैन कवि बड़े चतुर थे। छोटे-छोटे गीतों के माध्यम से वे विविध विषयों पर अपनी काव्य शक्ति का प्रदर्शन करते थे । प्राचार्य सोमकीति भी इस प्रकार के गीत लिखने में सिद्धकवि थे । प्रस्तुत गीत भी इस प्रकारका एक गीत है। इसमें २१ पच है । गीत निम्न प्रकार है
भाविनाथ विनती
नाभि नरिद मल्हार, मुरा देवी राणी उर रयण ॥ त्रिभुवन तारणहार, हेलां जिणि जीत
मयण || १ ||
नयर मजोव्यां बास, कुल
सुर नर सेवि तास, व
इष्वाकर मंडणू ए 1 सुवह जास सबै || २ || पंचसह धनु देह रूप रंग रस रूयड्डु ए । गुग्रह न साभि सेह, लक्ष चुरासी भायु कही ॥ ३ ॥
पूरब तेह विचारि, सतिर लक्षह कोडि तिहा
छपन सहस मकारि, इसी परि बरसासु एक
उ ॥४॥
ए ।
पराइ ॥ ५॥
पूरव तेह ज भेउ, जे मिथ्याति किम करी जाणि तेह, बीस लक्ष त्रिसिठ राज अभ्यास, एक पूरव चारित्र धरीब । भवयां पूरीय श्रास, मपरा देषि वैराग भउ || ६ || छोड़ीय तब निज राज, ब्यार सहस्र नरपति समुप | की तब निज काज, वरस दिवस पारणु मंउए ||७|| घरि श्रेयांसह जार ईक्षु रसि माहार लीउ । अंजलि मठ प्रमाण, सहस्र वरस गयां उपनुए १८ निरमल केवलज्ञान, प्रातिहार्य माठि हुया ए । अंनत चतुष्टय स्यार, प्रतिसितीस विराजनू ए ।। ६ ।। चिहू भागलि सविवार, समोसरण स्वामी ताडं । दीसि जोयण बार, वीस सहस्र पग पारीयां ए ॥१०॥
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बाहीया
बाला
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आचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
वेदी अतिहि बिसाल, सिंघासन हीरे जड्थे । ते पुण अतिहि विसाल, छत्रत्रण सिर झगमगियां ॥११॥ चुसठि चमर वीजंत, सुरनर गण गंध्रव मिलीया। जन्म सफल कीजंति, नाटक नाचि देवीयां ए॥१२॥ तुबर गेह करंति, वापी वन प्रति षातिका ए। पोल प्रवेस राजति, रासी गणधर हया ए ॥१३॥ वाणीय सप्तविभंग, दिन दिन उच्छव इम हुइये । पुजीय मन तणि रंगि, भावना भाविसु पापणीयां ॥१४।। सृण स्वामी मुझ कात, दुःख निवारण तु धणीया । तु माता तु तात, तु बांधव तु जगह सुरो ॥१५॥ भनि मषि भम्यु अपार, जन्म जरा मरणादिषय । सहियां दुःख सविधार, इन्द्री पांचे निरजण्यु । ।।१।। मनह सणिरे विनाण, मयण पापी घणुरो सब्यु ए । मोह माया नि मान, गर्भवास दुख बहु सह्या ए ।।१७।। भावर असह मझारि, नरफ सात निगोदीयां ए। मानव देव संसार, पंचमिथ्याति बाहीउ ए॥१८॥ कुगुरु फुदेव अनंत, प्रवरदेव सवे जोयतां ए। मितु दो माहंत, तिरिण कारणि तुझ पय कमलो ॥१६॥ सरण पयरउ हेव, राधि क्रिया करे माहरोये । राव करूं किकेवि, नब निधि जस परि संपजिए ।। २७॥ महनिशि जपतो नाम, भादि तीर्थकर मादि गुरु । मादिनाथ प्रादिदेव, श्री सोमकीर्ति मुनियर भरिणए । भवि भवि तुझ पाय सेव, चरण कमल वंदन करू ।।२१।।
इति श्री प्रादिनाथ वीनती समाप्तः मल्लि जिनगीत
प्रस्तुत गीत में तीर्थंकर मस्लिनाथ का स्तवनात्मक वर्णन किया गया है। यह एक लघु, गीत है। इसलिये उसे अविकल रूप से पाठकों के पठनार्थ यहाँ दिया जा रहा है
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आचार्य सोमकीर्ति मल्लिजिन गीत .
स्वामीय श्रीय मल्लि जिवर देव तोरा गुण गाउँ तोरा नित नित पायवी सेव पति घणु माउ ॥वडा ध्याउं प्रति घणु सहा पाये सेवा चिहुं गति माहि भमीउ । कुगुरु कुदेव पासाइ रुलीउ जुजिण घर मन रमीउ राग देष मनमयमय भोल्यु बुषि करीय मणु लामी । जोतां जीता मित्तु लाघु मल्लिनाथ जिन स्वामी ॥१५॥ चुरासीय सक्ष जीवा योनि भमी ममी भाग वली पुण्यतणि परिमाण ठाकुर तह पीये लागु ।। तहा पाइ कमले लागु प्रबरन मांगु भावर तम्ह पाई सबै लड्डे तोरा गुण अछि मनता एक जीव करि केम कहु । थावर सह नगोदि भीउ गति सबलीयमि वासी ॥२।। पंच महादत पंच सुमति मति गुपति न पाल्यां चारित्र दूषण जे ते स्वामी न टाल्पा ।। नवि टाल्यो दूषण करम मूसाइ मूढ परिण प्रति भोल्यू इंद्री मनह विकारि घमीर मोहि पति अस्खाल्यु समकित रयण चारित्र नवि प्राण्यां धुरि न सूघु संघ । महि गुरु पाय कमल घणु सेच्या पाल्या महाव्रत पंच ॥३।। देव दया करु स्वामी संभाल सेकनीय कीजि । जिम जिणवर वीय वाणि सांभलि मोसमन भीजि 11 मौरू मन भीजि ते परि की जितु गिरि पुरवा राज । वैराग्य रंग रसि घणु रातु पवर नहीं मुझ काज । पाठ मद ते मनि पा छांडी वीनवु छु हेप । श्री सोमकीरति गुरु इणी परि बोलि भवि भवितु मुझ देव ।।४।।
गुटका पत्र संख्या ५४-५५
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प्राचार्य सोमकोति एवं ब्रह्म यशोधर लघु चितामसि पार्श्वनाथ जपमाल .
पाचार्य सोमकीर्ति का यह चिंतामणि पार्श्वनाथ जयमाल स्तवनात्मक है। इसकी एक विशेषता यह है कि जयमाल अपनी भाषा में हैं। १५ वीं शताब्दि में अपभ्रश का प्रचलन था तथा कविगण कभी-कभी अपभ्रश में भी अपनी कृतियों की रचना करते थे। इसलिये सोमकीति ने मी प्रपना अपभ्रंश के प्रति प्रेम प्रदर्शित फन्ने के लिये इसकी रसना की प्रथा पारवनाथ के प्रति अपनी भक्ति प्रदक्षित करने की दृष्टि से कवि ने इस अपमाल का निर्माण किया गया दिखता है।
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प्राचार्य सोमकीति की कृतियाँ
१. यशोधर रास २. गुरु छन्द ३. रिषभनाथ को धूलि ४. श्रेपन क्रिया गीत ५. प्रादिनाथ विनती ६. मल्लिजिन गीत ७. लघु चितामणि पाश्र्वनाथ जयमाल
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यशोधर रास
श्री जिनह स्वामी श्री जिनह स्वामी पाउ प्रमेवि । सिद्धहरित्सु उवज्झाम वली साधु मुनिवर । सरसइ जिनमुख निभाई गुरुह जिन पयकमल मधुकर ॥ राय यसोधर जस्सु र रास मन सुधि । भवीयण जात संभलु जिम पामु घणु रिद्धि ॥१॥
यो देश का वर्णन
gate भरत महीयल मति सोहि । योधे वेश सोहामनुए, तिहां जरा मरण मोहि । वाडी वन सरोवर अपार, नद नदीय विशेष 1 ठामि मि जिहा दानसाल, नर कपड़ा शेष ||२१|
अति मोटां ढकडां गाम, सुर नगर समान जे जे श्रागर वस्तु तणां सर्व रत्तूह्वान | नयर मनोहर राजपुर । ते देश मझारे । जुवहु जिसु अछछ त लागि बारे ||३|| मारबत्त नरनाह तिहां सोहि प्रति सुन्दर । दान मान जस रूप रिधि प्रभिनव पुरंदर | छं दरसननां शास्त्र जिके ते करइ विचार किम तिरी किम डीइए ले जा न सार ॥४॥
ata मठ" दिक्षिण दिशि तिहां नगर सोहावि । देश विदेश समाज लोक यात्रा सबै श्रावि । जार कज्जल घडीम एह तस भीषम रूप 1
डिमार तुम तवं नाम प्रसामि सर्व भूप ॥५॥ पासोज चैत्रीय नुरतांए शिसु पूज करेवा | जीव सहित प्रावीज लोक तस करज सेवा ।
१. नगर का नाम, २. राजपुर के राजा का नाम ३. देवी का मठ, ४. देवी का नाम
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यशोधर रास
चैत्र वसंतज प्रावीए वनसपती फूली ।
कामिनि काम विधाकुलीए पति देवीय भूली ॥६॥ भैरव जोगी का प्रागमन :
तिणि अवसा जोगीय एक तिहाँ आवि पहत । चेसा ही भगति पर अनि सानाः परः। सेरी सेरीय भमइ सह प्रनि चरीया गांई । मूरष लोकां भोलवि वली सीगी वाइ ।।७।। लोकह प्रागिन ते कहि ब्रह्म वरस बहूत । दीठउ राम ज लक्षमण अनि अंजनि पूत । ब्रह्मा विष्णु महेस सवे पांडव ब्रह्म दीठा । रोगि प्रसीया राय जिके मुझ सरण पईठा ॥८ सेव कराउ संभालीउ ए स्वामी सुरिण बात ।
भैरव राजस मादी ए चेला सह मात । राजसभा में जोगी का श्रागमन :
जोगीराइ नेडाबीउ ए ने पाज्यू साम । उठी भूपति मानी ए वली करीय प्रगाम ॥६॥ प्रासीस देईय भुप सहित निज बिठा ग्रापरिण । दात पूछेवा राउ ताम यली करइ निमासिरिण । जोगीय बोलि राज निसुगिहूँ प्रत्यक्ष देत्र ।
आपु संगा राज रिद्धि बे करि मुझ सेव ॥१७॥ सुसुतु हर राज वली करउं जगहिलु । जिरिए काजि तेडीइएने कहि मुझ विहित । कामरण मोरण वसीयकरण थंभरा पा जाणु। विद्या गयगाह गामिनी ए वली मंथ दपाणु ।।११॥
सह रसायण मंत तंत ते सषला घूझ । मद्य मांस अनि छोति धौति ते किमिहि न सूझंऊ । राजा मन माहि हरषीउ ए ओगी प्रति बोलि । को न दीठउ सृष्टमाहि जोमी तुझ तोलि ।।१२।।
१. जोगी का नाम
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प्राचायं सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर विद्या गयणह गामनी ए ती मुझनि आपु । देई हाथ मो मस्तक चेलु करी थापु । जोगीय बोलि राङ निसुस्णि चंडमारी देवी ।
हाल धा जीम कोली : ३!! देवी के सामने बलिदान के लिए जीवों का लाना
जलचर खेचर भूमिचर जे जीव कहीजि । संह तणां ज युगल मलिते ते प्राणीजइ । कोटवाल तेडीउ राइ प्रादेश ज दीध । ग्राणु अति वणा जीवरासि प्रणाम ज कीधु ।।१४।। गउ कोटवाल देण माहि बह जीव प्रणादि । प्रति घणा जुगलज प्रावीयां ए कोइ नाम न जागि वि। हरिगा रोझ गज प्रश्व छाग महिषी वृष मेष । बक सारस अनइ चक्रवाक जे जीव असंख ॥१५॥ देवी मठ सह पूरीउ ए तेहे जीवे प्राणी । राजा बेगि पधारोउ ए तेहे प्राच्या जागी । जोगीय आव्या ताम सवे बिठा निज पासण । राजा देबी पाय पडी ए बली साह्मि सिंघासमा ।।१६।। बिसी मंत्री प्रति भणि तुह्म राउल पूछ । कांद न हगीना जीव अजी किंपिअछि उछ । पूछयाउ जोगी कहिय ताम संभलि तु भूष।। सत्तीस लक्षण नरह युगमये हुइ मला ।।१७।। ते आणी प्रापणि हाथ तई हंस करे । पूजीय देवि संतोष करी सहू विधन हरेवु । विद्या गयगाह गामनीए तुझ ततक्षा तूसि । इम कीधा पाषिकहूं मुझ देवी रूसि । सुणीय बात तिहां भूमिपाल, तलवर हकार । बत्तीस लक्षण नरह युगम पारणेला इस बार ।।१।। प्रापरिण तलवर वालीउ ए नप करीय प्रणाम ।
सेवक सवे तिरिण दहदिशि ए पाठवाया ताम । संघ सहित सुबत्त मुनि का प्रागमन :
तिरिण दिनि मुनिवर संघ सहित सुदत्तह नाम । प्रावी पुहुनु वनह मझि दिन चडित याम ॥१६॥
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यशोधर रास
कोइल करई रहकडा ए मधुकर झंकार । फली जातज वृक्ष तणीये बनह मझार । बनदेषी मुनिराउ भणि इहो नही मुझ काज । ब्रह्मचार यतिबर रहितु प्रावि लाज ॥२०॥ इम जाती मुनिराउ सही समसान पहूत । मुनिवर पाणी तास तरिण से मछइ बहुत । ठामिठामि सब तरणीय गघि अनि अस्थि प्रसंष । काक सेह सीयाल स्वान तिहां प्रावि पंष ।।२।। फासूय भूमि वलोक करी मुनिराउ बइठउ । वैराग्म सरीतु ठाम देषि मनमाहि संतुट्ठ। चैत्र मास सुदि प्रायमि' सइलइ उपवास । ब्रह्मचार मनिषुडीय एक प्राध्यां गुरु पास ॥२२॥ गुरु प्रणमी कर जोष्टि दोइ मागि ने प्रौषध । संसार दुख निवारवाए ए अनइ प्रौषध ॥ मुनिवर बोलि सुगउ वत्स तम्हे अच्छउ बाला । नयर मझि प्राहार लिउ बली पहुचु पालां ॥२३॥
॥ वस्तु ।। ताम पलिकलिक सुरणीय गुरुवाणि । प्रगमीय तब बेह चालीयां लपवंत पुण मछियाला । लखण सवह विभूषीयां हंस गमण करि जाह पाला। तब ते तलवर मूलग मारगि मलीज जाम । देषी दोइ मन बीतवि सरीयां सवि मुझ काम ।।
प्रथ ढाल बीजी क्षुल्लिका युगल का माना: (२) बुल्लिक युगलं दीठउं जाम । तलवर मनमाहि हरष्या ताम ||
देवी पूजा होइसि ए। इम बोली पालि फरिवरीया तलवर सवि भूमि परिवरीया ।
ब्रह्म ते पूडी प्रतिभरिगए ॥२४॥ मम कपि सतु बहिन लगार, अथिर प्रसार प्राइ संसार मरण, तणु अह्म भय
किस ए ॥२५॥ बहिन हसी भाई प्रति बोलि । हसे वयणे मन किमहिन डोलि । जउ जिनवर हीयरि बसिए ॥२६॥
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प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
कहि तुराज सरीरह कास । मुनिवर न करि कहिनी पास । राजा रूठउ सुकरि ए ॥२७॥ निश्चल हीयडु बिहुँ जराकीधु । सावधि अनसन ततक्षरण लीघु। ते तलवरइ सुभगि ए ।।२।। रह वेगला ती ब्रह्म प्राभडसु । मुनिवर छबतां नरम पडेसु । जिहां तेडु तिहां प्रावसु ए ।।२६।। दुर यका तलवर सविजाइ। पलिक जूडी मागलि थाइ ।
देवीमंडप नावीयां ए ॥३०॥ देवी मन्दिर की दशा :
देवीय मंडप विषमु दीठउ !
ठामि ठामि बीहामणु ए॥३१।। प्रस्थितणा कोही डगर दीसि 1 अस्थि सिंघासणि जोगी बाइसि । अस्थि दण्ड ते कर लेइ ए ॥३२॥ अमिष तरणा गला अति पुरण । अमिष ठाम दीसिछि अतिषण । अभिष भषी पंषी चुरिगए ॥३३॥ रुधिर तणा तिहां अल प्राचार । रुधिर करी लीपि तिरणीवार । रुधिर जु कुंकुम मंडणु ए ॥३४।। मस्तिका तरणी दीसि रूमाल 1 जिह्वक तणा तिहां बंदरवाल । प्रांतर तोरण अति घणा स् ॥३५॥ तिरिण मंडपि दोर बालिक लेइ । तलवर राज प्रणाम करेइ । करजोडी इम वीनदिए ।।३६।। मंड्यां छद दोइ सनले लस्यरण । रूपवंतनि प्रतिहि विचक्षण । स्वाम प्रादेशि प्राणीयां ए॥१७॥
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प्राचार्य सोमकीर्ति की कृतियाँ
राजा रीसि षजु तोलि । अवरह माणस फेरि भोलि । ततक्षरण सनमुख जोईड ए ॥ ३८||
राज्य का तलवार उठाना साथ द्वारा प्राणीष देवा :
"
असीस ।
ब्रह्मचार तव देह राजन जीने कोडि वरीस | जम तोरु प्रति उजलु ए ।।१९।।
जे मे महियल प्रतिघण निर्मल ।
ते ते जाणं धर्म तणु बल । तिरिण धर्म तो जय षणु ए ॥ ४० ॥
जे तसि राजा सुशी ग्रासीस । ले तलि मन थी उतरी रोज । वली वली साम्हं जो ए ॥ ४१||
राजा द्वारा परिचय पूछना
सनमुख जोतांही इ विमासी । श्रवली बात होइ मोवासि । कुण थापक थी प्रावीयां ए ॥ ४२ ॥ इंद्र इन्द्राणी बेहू । यसीरति घुरि प्राविदेहू | चंदा रोहिणि सु मिलिए ॥४३॥
कई
सुरयन देव
सरी |
मारणस
रूप न हूइ ईसु । कामि सहित मुरति हुइए ||४४|| भाणेज युगल ते कारण जाणी सहि गुरु केरी संभलि बाणी । लीभी दीक्षा तेइए ||४||
एसा निरदय पुण्यवंत घरे ये स्नेह उपनु
मोरू चित्त । सुचित्त । प्रतिषणु ए ॥ ४६|| सबै अंगि । वररंगि । लिए ||४७ ||
राज चिन्हि दीसि सामुद्रक बोलिन ते ते सवि कहा
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आचाय सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
राजरिधि सघसी कोई छांडी। बालपरिण दीक्षाकाइ मांडी। एबहुँ साहस कोइ की ए ॥४॥ अथवा एवडी कोइ विमासरण । बिसारी सनमुख बली भासरिए । ग रामी म सह ए !|४|| राजा बलिक साहामु जोव । पाप बुधि सवली ते धोइ । विनि करीनि पूछी ए ॥५ कवण कुल ले तो भक्तरीयो । सूरज जिमि तेजि परिवरियां । कुरिण कारणि दीक्षा लेइ ए ॥५१॥ जे कारण कि मनमाहि मोरा । सम देई हुई गुरु तोरा । जु तुम्हे कोई उलए ॥५२||
अस्सक द्वारा उत्तर देना पुल्लक दलतु इम वोलि । जाणे सुरगुरु केरि तोलि ।
काई करू महा पूछीहए ॥ ५३ पाप बुधि छि राजन तोरी । धर्म का छि निश्चल मोरी।
तु प्रापण किम मलिए ॥ ५४ पेह विमास्युछि निज चित्त । तेति जाण्यु छह पुरण तत्त्वे ।
हवि विमासगामी करिए ॥ ५५ षडग कोश तव धरु राई । इष्ट ठवी छि पसिक पाइ ।
कर जोडी ए सुंगिए ।। ५६ कह स्वामि तल तरणएं परित्त । सहू सांभलमो एकि चित्त ।
कोलाहल को मां काला ॥ ५० लोक सवेनि जोगी नाम । देवी पुण चित्त कीधु ठाम।
ब्रह्मचार तब इम भरिगए ।। ५८ पुण्य तथा सहूइ सांभलयो । पाप वात माहि छि टखयो ।
सवि सुख पामउ तु सहए ॥ ५६
1, मूल पाठ-ब्रह्माधार
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यशोधर रास
जे जे मई निज नयगे दीठउ । कमंज जागी प्रति घण मीठउं ।
ते पुण अंगि भोगव्युए ।। ६० ।। वस्तु–कहि पुल्लिक सुगाउ सह बात ।
जिणि कारणिमि दुख सह्यां । जेग्मि कम्मि बहु जोणि फिरियां। जिणि जिणि भवि जिम भोगन्यलं 1 जेम जेम बली पाप भरीया । ते से परि सबली कहूं, सहू सांभलयो सार । कुमय विमासण साव त्यजीय, जिम तिरसू संसार ।। ६१ ।।
मथ बाल श्रीजो
उज्जयिनी के राजा यशोषर का वर्णन
अंधोप वषाणीइ भारत क्षेत्र मझारे । मालव वेश सोहामण, नयरी उओपीय सारे ॥ १२ ॥ गह मठ मंदिरउ रडा देउल संख न पारे । घाजिय वन सर दर घणां पाईप कूप अपारे ।। ६३ ।। नयर नवे नदी बहि सिमा नामि गंभीरे ॥ राय यसोधर नामि तिहां राज करि प्रति सूरो ।। ६४ ।। दाता धर्मी ववेकीय भोगीय गुणह भंडारो ।। समकित रयण विभूषी श्राफ तणउ प्राचारो ।। ६५ ।। चन्द्रमती राणी तिमु जाणे नारि अनंगी ।। भोगवि सौख्य विवधि परितेहसुनव नव रंगो ।। ६६ ।। पातियो वनराजनि राणीनी पूगीय पासो । उदर तरिण दुख वसतोलां पूरा मुझ नव मासो !। ६७ ।।
पुत्र जन्म
दरमि मासहं जनमीउ उत्सन्न हुइ अनन्त । जिनवर बिंबज पूजीनि दान सु दोधां बहुत 11 ६८ || जे जिणि याचक वांछीउ ते ति सुदीयो लु दान । कुटंब लोक सजन तिरिण मापीय वस्त्रनि पान ।। ६६ ।। सातमइ दिवस सजन मिली मिसी दीधु' तव मुझ नाम ।
पुत्र यशोधर एहज करसि तातनु काम ।। ७० ।। 1. मालवा प्रदेश
2. उज्जयिनी नगर 3. राजा का नाम
4. रानी का नाम ।
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आचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
जिम रहु तिहों उद्यरू तिम तिम राउ श्रवास । बधि सोवन गयवर हयवर केरा लास ॥ ७१ ॥ पंच वरस इसी परि गयां व्युत्पंज बालापण जाम । राइ जिणेसर पूजीनि भणवा मूकीउ ताम ।। ७२ ।।
उपाध्याय के बाद पढ़ने जाना
जैन उपाध्या भरणावतां भरणीयमि विद्यासे सार । पनरवरस लगि डुं भण्यु पाम्य् भावानु पार || ७३ ॥ राउ कति मुझ लेई गउ पंडित नीपनु जाणी । राष्ट्र पंडित मानी बोलीड मधुरीय वाणी ।। ७४ ।। राइ तव पूछीउ कहु वत्स भरण्बानी बात ।
कुरण कुरण ग्रंथ ज जोईया कुण कुरा शास्त्रती जात ।। ७५ ।। राजप्रति त म का सुरगाउ नरेसर बाज |
पंडित मे हूं भणावी कीधो लुजे मुझ काय ।। ७६ ।। पढ़े हुए विषयों का नाम
वृत्तनि काव्य प्रलंकार तर्क सिद्धांत प्रमाण || भर नह छंद सुपिगल नाटक अन्य पुराण ।। ७७ ।। आगम पोतिष देवक हम नरसू जेह । चैत्य चैत्याला गैहनी गढ मढ करवानी तेह ॥ ७८ ॥ माहो माहि विरोधी रूठा मनावी जेम | कागल पत्र समाचरी रसोवनी पाईइ केम ॥ ७२ ॥ इन्द्रजाल रस भेद जे जुयनइ भूझनु कर्म । पाप निवारण वादन नत्तन नाछि जे ममं ॥ ८० ॥
चली वली का पूछसू जे जे विद्या विसेष | जे जे यहुंय भावी नही पंडित षोडनी रेष ॥ ८१ ॥
पंडितनि तुठउ दिइ लाइ दीनार ।
वस्त्र ते झीलतरणां सबे भापीय सार श्रृंगार ।। ५२ ।।
किम करी शास्त्र जमुकीय झालीय श्रंगने वार । छवोस प्रायुधजे प्रछिते परिजागीय सार ॥ ८३ ॥ इम करो यौवन पासीय वुल्यु बालापण जाम । fare करा कारण राउ विभासिद्धि ताम ॥ ६४ ॥
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यशोधर रास
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राज जे ऋथ कैण कि तणि तीरि। पारधीउ जे दूत । देश विदेश छोडी करी नयरी उजेगी पहूत ॥ ५ ॥ राज सभा माहि प्रावीय बहछउ करीय प्रणाम । प्रादर राइ पूछीउ प्राध्यु तू कुण ग्राम ॥ ८६ ।। मर जोडी ते बीनावि सुरगउ रेसर काम ।। ऋप केशक नरपति अछि भूपाल तेहनु नाम ।। ८७ ।। नारीय रूपि मागली राणी श्रीमती जास।
अमत महादेषी अछि किन्या रतन ते तास ।। E८ || यशोथर फुगर का विवाह
कुमर यगोषर कारणि देवा किन्या ते सार। मोकल्यु राइ तह तणु देषवा घरह प्रावार ।। ८६ ।। दूत सणी भूपति मुरशी बोलिव राय उछाह । मुहां पाणी कन्या तुम्हे करउतु सहीय वीवाह ॥६. || दूति फोफल पालद्या राइ संतोषवा सेह ।। वस्त्र विभूषण मापीनइ मोकल्यु केशक एह ।। ६१ ॥ पहिलु लगन पठाचीनइ बहु दल मेल्यु छि राइ । सजन लोक सोहासणि माचि गीति ते गाई॥६२ ।। राउ राणी सजन सह मेली बह दल जाम ।
कन्या सहित महोत्सवि प्राच्या ऊमेणोय नाम ।। ६३ ।। वस्तु-ताम नगरी ताम नयरी भउ उत्साह
पुरह लोक तब सषि मिल्यु घरिहि घरिहि प्रक्षाघ । ल्यावीया राउ जसोधज हरषीउ वनह मझि मुणीयान भावीय तलीया तोरण उतीर्या सूडी ते वन्नरवाल । माम्या वरह वधावीद भरी करी मोती थाल ॥ १४ ।।
प्रथ दाल चउथी
वन्नोला घरि घरि हुए मालसके उछद सहित अपार । सुणि सुदरे उछव सहित अपार । तेल पडावि कामनीए मा० गीत गाइ पति सार 11 मु. ।। ६५ ।। नाहीय धोईय उठीउए । मा० । आणीय सवि सिणगार । सु० ।। पहिरीय उसीय नीसरयु ए। हूउ तिहाँ
जय जयकार । सु० ।। ६६ ।।
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श्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोवर
शांतिक पौष्टक सत्रि करीए । मा चउडी गय वर पूद्धि | सु० | राव राणी सहू चालीयाए । मा० । दान देउ भरी मूठ ॥ सु ॥ ६७ ॥ वन माहे तव प्रावीया ए मा० हुई यछि लगन नी वार 11 सु० ॥ तोरण पहु तुहुं वरू ए 1 मा० कीषु मंगलवार ॥ सु०॥ जब कन्या मि पेबीइए । मा० । अपतु अतिहि श्राणंद || सु० ।। रूपनी ऊपमा किम कहुं ए मा० मुल जिसु पूनम चंद ।। ० ।। ६६ हाथ वालुझलीड ए । मा० । चापीउ पारिए सुं पाणि ।। सु० ।। किन्या मुरकलु देई हसीए 1 मा० । बोलीय अमृत बाणि ॥ सु० ॥ १०० ॥ हाथ वालु मूकलां | मा० सुमरि आपीय रिद्धि ॥ ० ॥
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पाये लागी ग्रासीस देइए । मा० | बहू वर पामयो वृद्धि || सु० ॥। १०१ ।। वीवाह उत्सव वरतीय ए मा० 1 दीवोलु दान बहुत ॥ सु० || कन्या लेई सजन सुए । मा० | मंदिर बेगि पहूत || सु० ।। १०२ ।। बाहय बुलाबीया ए 1 मा जसहर करीम पसाउ । सु० ॥ नुत जन सहू परिगए । मा० पूजीया घरीय बहुभाव 11 सु० ॥ ।। १०३ ।।
सुख सागर भीलु सदा ए मा० । जातु न जाणु दोह || सु० || श्रमृत मद्दादेवी लहीए। मा० । सिंहनी पामीउ सहि || सु० || १०४ ॥ इणी परि राज करतडां ए मा० । बुलीउ प्रति घणु काल || सु० ॥ रा सिणगारज पहिरीउए । मा० । तिलक ते
रोयो लु भालि || सु० ।। १०५ ।। बउ राजा जसोहरु ए । मा० । संघली सभायते पूरि || सु० ॥ सुरतर सरीषु दान गुगिए । मा० । दालित करइ ते दूर | सुरु || १०६ ।।
यशोधर द्वारा वीक्षा ग्रहण का विचार
श्रासि मुख जोयतां । मा । कान सषा यि ॥ सु० || पलीउवाल पेपी करीए । मा । ही नई बहु तुभाउ || सु० ।। १०७ ।। जरां इवि गोउ लोक साहू ए मा कोजि प्रापणु काज || सु० || दीक्षा लेडं हूं जिनतशी ए । मा० | बेटा देव राज ॥ सु० || १०८ ॥ हं तराइ हकारी ए। मा० । देषा लागु सीष || सु० ।।
पुत्र को शिक्षा देना
प्रापरि कुल जे उपजिए । मा० । षडपरिण लेइ ने दीप || सु० ॥ १०६ ॥
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यशोधर राय
समकित रवा तुपालजे ए । मा० । टासीय सयल मिथ्यात 1 स्० ।। धर्म अहंसा मान धरी ए । मा० । बोलिम कूडीय साषि ॥ सु० ।। ११ ।। चोरीय बात तु मां करे से । मा० परमारी सही टालि ।। सु० ॥ परिग्गह् संख्या नितु करिए। मा । गुरुवाणी सदा पालि
|सु० ।। १११ ॥ न्वाय पास लीगाह सह ए | मा० । रयीय भोजन वारि ।। सु० ।। वली पली बेटउ सौषविए । मा० ।राउ ते कुलह प्रचार
|सु० ।। ११२ ॥ इणी परि पुत्रह सीखन्युए ।। मा० ।। दीधु तब मुझ राज 11 सु० ।। राइ तब दीक्षा लेई ए । मा० । की प्रापणु काज ।। सु०॥ ११३ ।। राउ राणी सवि बिस कीया ए | मा० । करीयनि युध बहूत ॥ सु० ।। देश विदेश सीपी' करीए । माs | प्रापरिण मामि पहत ॥ सु०॥ ११४ ।। प्राण न लोपि मुझ तशीए । मा० । राजनु एह ज सार ।। सु०॥ तव मुझ राणी पुत्र जण्यु ए । मा । उद्धरवा कुल भार ।। सु० ।। ११५ ।। अागि राणी बल्लही ए। मा० । पुत्र करीय विसेष ।। मु०॥ रूपरंगिरस रूपड़ी ए । मा० । कर इछइ नितु नवा वेष ॥ सु० ॥ ११६ ।। जाणे सो निसु घड्यु ए । मा० । राणी केर देह ।। सु.॥ दिन दिन दाधि प्रति घणु ए । मा० । राणीय सरिसु देह
|| सु०॥ ११७ ।। पुत्र जसोमति वाषतु ए ।। मा । आप्यु पद्मा हाथि ।। सु० ॥ शास्त्र सवे भावीयाए । मा० ॥ प्रावीउ पंड़ित साथि
॥सु• ॥ ११८ ।। अति घणु धनमि प्रापीउ ए ॥ मा० ॥ पंडित निमि रीझ
॥ सु० ॥ ११६ ॥ जु मुझ पुत्र पड़ावीए । मा० || काज अह्मारवं सीझ ।। सु० ।। पोवन करीय विभूषीउ ए | मा० ।। मांगीय किन्या म || मु० ।। १२० ।। सुकिन्या परणावीउ ए ।। मा || लगन हर कि ठाम || मु. ।। यसीमति कुमरज रूपडए ।। मा० ॥ मुझ सु प्रतिहि सनेह ।
॥ सु० ।। १२१ ।। बेट3 किम नवि वल्लहुए ॥ मा० || प्रापणु बीजु देह ।। सु. ।। इणी परि राज करंतहां ए॥ मा० ।। दिवसह पपिचम भाग
॥ सु० ।। १२२ ।।
2. विजय
1, रात्रि भोजन मत करना 3. रानी का नाम
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૪૬
श्राचाय सोमकोति एवं ब्रह्म यशोधर
हूं बिच सभा पूरी करीए । मा० । चित्त लागु घरि राग ॥ सु. ॥ तब राणी गुण सांभरयाए । मा० | मोहनु बडउं विना ।। सु ।। १२३ ॥ राणी गुरिंग रस बेबीउ ए मा० । मूकी सघलु माण ॥ सु. ॥1
राणी विण जे जीवीह ए। मा० | ते विण किसउं ममाण | सु. ।। १२४ ।। जे घड़ी जू जूर्या बिसीइ ए । म१० । तिणि खिणि प्रावि हारिए || सु. 11 अाज विहाणि देवसु ए मा० । सोमति नीयराज ॥ सु ।। १२५ ।। राणी विजु खिरण रहुं ए । मा० | तु मुझ श्रावि लाज ॥ सु ।। पहर एक रमणी गई ए मा विठोला सभाहा मकार || सु ॥ १२६ ॥ प्रारती अवसर तब ढूउए । मा । मालंतडे बोलाव्यु पढीहार ॥ सु. ।। पान देईनि मोकल्याए। मा० । नरपति सहूय प्रवास ॥ सु ।। साहविरुजी का
मंदिर पासि ।। सु ।। १२७ ।।
चस्सु
सम्म हुनु र गेह द्वारंति
शब्द बोलि ।
तिहां उभी वर कामनी, तेह मभि जय परि २ पगधीहूं चयु, तेह गेह सुर भवन तोलि । मातमी भूमि बुली करो, श्राठमी भूमि मारि सिहां थी राणी उत्तरी करती जय जयकार ।। ४ ।। १२८ ||
अथ ढाल पंचमी
पगि लागी राणीयिरिंग लौए नारे सूया राइ साही हाथि ।
राजभवन माहे गवांए नारे सुया राइ साही हालि ।। १२६ ।। प्रवरम बोजी साथि बिठउ राजा
सेजत लिए 1
र सिए || नरे ।। १३० ।।
राणीय कि बिसारि हसि रमि राजा व्यापु काम विकार, कामरंग सुख
भोगबीए ।
पुढयु हुं नरनाह, मुज पंजरि राणि करीए ।। नरे ।। १३० ।।
मन माहि उपनी नात, च्यार जात नारी तलीए ।
ते माहि पद्मनी जाति चद्रं यकु मुख रूपए ।। नरे ।। १३१ ।
नमरणे अतिहि विशाल, प्रायि चद्रं दीसि सुंदर भाल, जसु सोनुं
सरीषडु ए ।
तापब्युए || नरे ।। १३२ ।।
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यशोधर रास
जाये नारि अनंग, राणी गुणे श्रति मोहीउए ।
नोंद न धात्रि जाम, मनह कमालिहुं पड्युए || नरे ।। १३३ ।।
हूई विभासण ताम, जु चंपासि हाथ मुझ |
चायूय पूस मंगि, जु जागुं तु जगसिए ।। नरे ।। १३४ ।।
૪૩
रूप तजु होस मंग इस जाणी निज सास घरीए ।
"
कृषीयं नींदज की, येम रंगस्स भाकुलीए ।। नरे ।। १३५ ।।
तब राणी मन दोध, हूँ सब राणी जाणीउए ।
राणी विभासिए मा, भुख भीडी किम नीसरुए ।। नरे ।। १३६ ।। रानी का चुपचाप कोठी के पास जाना
सेज का छाडु कम काय संकाची कामिनोए ।
शिनि शिनि नोशरी हेवि, जिम सापि छांड़ि कांचसीए || नरे ॥
।। १२७ ।।
तीसरी बार उघाडि, जु स्त्री मारग छोडीउए । नथी कहिनि पाडि, इम देखीइंड पठीउए ।। नरे ।। १३८ ।। खडगज हाय बरेचि अंधार पडउ उठीउए ।
तव से राणी उतरी । न । १३६ ।।
पूठि नीसरीज एव पुहती बोलि बार केडि यकु हुं चालीउए ।
S
जातां न लागी बार, तिहां सूतउ छि पोलीउए । न ।। १४०॥
तेहनी कुष्टी देह, दुःखह भाषण एद्द, उंडीय कुलख्यरण जाम, राखी
मौखिज रातडीए । न । १४१ ।।
अंगि
महि प्राकुलीए ।
पग तिल बिठी ताम, मोडि अंगूठ जगावीउए ।। न ।। १४२ ।। साहीय भुटे तेरा, जु तु मुडी प्रावीयए ।
तु तु तैडीय केण, सांकलि घाइ ताडीइए ।। २ ।। १४३ ।। जीप जीय जंपि ताम, पापी राज न घुंटीउए ।
हाथ पाय सर्वे गलि गए ।
किम कटि भावु स्वामि, कोष्ठु जु मुझ उपरिए ।। न ।। १४४ ।। विहिली पावे सनाह, हसउ रमउ करूरा कसए ।
मी चाहिडी साह, इस चरितमि पेलीउ ।। १४५ ।।
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४८
प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
खडगउ लास्युताम, खड़मज तय ते गडमड्युए। हूं ईय विमासण साम, विरीय वृद निपातीयाए ।। १४६ ।। बाहीय खडगज एह, कोळीय नारी उपरिए । किम करी वाह तेह, जारणी पौवनि प्रापीउए ॥ न || १४७ 14 पुत्र यसोमति नाम, माइ बाप जे मुझ दीइए । तेह हणी कुण काम, एम बिमासी हूं गउए ॥ नं ॥ १४ ।। वेगि पहूतु पदास, खडग मूकीनि पुढीजाए ।
रीसि मूकीनी सास, नारी पापज खाण्डीए ।। न ।। १४६ ।। नारी निवा
मारी विसहर बेल, नर बंचे वाए घडीए । नारीय नामज मेलिह. नारी नरक यतोलडीए । न ।। १५० ।। कुटिल पणानी खाणि, नारी नीचह गामिनीए । साचुन बोलि पाणि, वाषिरण सापिण प्रगनि शिखा || न 11 १५१ । पर प्रालंगीय एह, दोष निघाने पूरीउए । नारी के देह, साहस माया नितु वसिए ॥ न ॥ १५२ ।। कामिनी काय मझार, नयधारा शुचि श्रावणीए । घिग पिग मामज नारि, इम चिलबंता पारणीए ।। न ।। १५३ ॥ मूक्यू संघलु देश, जिम सिम पहिलु' नौसरीए । तिम तिम कीयउ गवेस, साहस एसुपेखीउए । न ।। १५४ ॥ मन माहि हूईय प्रतिभ्रत, नागे साहस पार नहीए । नारी छाड्यु माहंत, पेश्वी लक्षण तेह तणाए ।। न 11 १५५ ।। मलीय पुराणी मीत, नारी चंचल जारणीइए । पतय ऊतरीय चित, देव देव करतडाए ॥ १५६ ।। सव हउ परभात, गांइ गीत पंचम सरिए । मंगल वंदरिण जात, तव सिध्या थकु उठीउए ।। न ।। १५७ ।। कीधु मात सनान. पत्राभरण विभूषीउए। बीस वीउ पूख वान, पुख उतरती पाहणीए ॥ १५८ ।।
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यशोधर रास
फूल बीरमइ नारि, वेश रहित घरणि पडीए ।
सूरछ मसि तिणी वारि, हसीय करी तवमि भए । न । १५६ जोउ नारि विचार, समुद्र तर्षा विद जोयताए ।
नारीय चरित नपार सकिल घाइ ग्राहीए || न । १६० ॥
जीय जीय जीय भरांति, फूल बौटिम दूवीए । ततक्षण तव ते उठीयए ।। न ।। १६१ ।
मूरछी घरणि पति,
डुं पण नासीय जाम, सभा महारज भावीउए ।
विउ सिंघाससिताम, नारे सूया राइ साही हाथि ।। १६२ ।।
वस्तु
जाम बिठउ जाम बिउ सभा पूरेवि
जिहां पुरा सकल शास्त्र लेई चली उपास प्राथ्यु |
वाचंतु सिद्धांत मझट्ट, मनि ते नव भाव्यु |
तव माता मुझ पालखी बिसी यात्री जाम ।
सभा सहित उठी करी, विउ करीय मरणाम || १६३ ।। अथ ढाल छठो
माता से वार्ता करना
संठी मुझ देख करि, माता दिवई प्रातीस |
पुत्र परिवार सजन सह हीडोलिडारे जीव यो कोड़ि बरीस ।। १६४ ।।
माता तब हूं पुढील कुशल बिहाणी रात |
शिर धूणी तिमि भरणउही, ही माता मसुदा । ९६५ ।।
माता सुमति इम भरिए, कहु बरस केहा काज |
तर्वाम माता सु कयुं ही. सोयराइड लाघो लु श्राज ।। १६६ ।।
I
बनि जाई दीक्षा लेजं, देईय बेटा राज ।
घरि रहुं तु उपजि, होडोलिडारे जरिए मदिमुझ लाज ।। १६७ ।।
माता मति हम भाणि संभलि तु मुझ बात 1
पूजिसु गोत्रिज प्रापणी, सोयण्डव वारसि तात ।। १६८ ।।
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५०
माता का उत्तर
श्राचायें सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
जल यस नाजे जीवड़ा. बलि वाकल नैवेद्य । कास्यापनी देवीय चि. ही. सोयराडु
दसि तेह्र ।। १६ ।।
हंसा वचनज संभचली, काप्यु होङ ताम |
प्रालि ए काइलीही, हंता केर
नाम ।। ही. ।। १७० ।।
शिरस्ती माता मतिमि वयगाज बोल् सार |
कुल शुद्ध राजकुमर हुड, हीडोलिडारे तेनवि बोलि मार || १७१ ।।
पापी इ पापी हुई, धम्मी इम्मी हो ।
राजा पदवी जिन लही, इम बोली सहू कोइ ।। १७२ ||
माता मुळे मति हम भणि, मूरख पराउ निवार 1
राज वाटजु जाशी, पापन लागि लगार || १७३ ||
वेद स्मृति वाणी इसी कारण पुण्यज होइ ।
ऊखध माहि विष खाइतांही, ती मरइ न को ।। १७४ |
माइ तायजु मारीइ अनि जीवह केरी राम
1
ताम ।। १७५ ।1
मन माहि नवि याणी, माप न लागाइ त्रिहुं करे राजकीयामि बोल्यु तब सार । काया वाचा मनि करो, हंसी हो वयरस निवार ।। १७६ ।।
जुतो हंसा बलही नीयसिर श्रापुं सोई ।
जिम जाणि तिम तुं करे जीवन मारजं तोइ ॥ ही ।। १७७ ।।
"
पान मतिमि मानीउं, लेईय पीठमि कुकड,
देवी के प्रागे कूकड़े को मारना
माना तब लिखी हुई, मुझ मुख वयण सुवि।
ककनी पाउ फ़ुकडु तीणि तुं पूजे देवि ।। १७८ ॥
लेईव एकाकार 1
पूहूतों लां देव दुवार || १७६ ।।
देवी नागलि ले हृयु पीठह् कुकट राइ
जीव घणा तु मान जो, एसउं बोस्युं माइ || ही. ॥ १८० ॥
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यशोधर रास
११
देवी मंडपि नृप देइ सघलु' राजकुमार । राणीय तव ते सांभष्यु, तिहां प्रावी तिणी वारि ।। १८१ ।।
राजा पागि लागी रही, राणीप बोलि ताम । रानी द्वारा घर पर भोजन के लिये निमारण देना
ए वैरागज एठडु, काहु स्वामी कुण काम ।। १८२ ।। प्राज मया करी मु यत्ति, मुझ परि करउ रसोइ । दीक्षा कालि लेईनि, तप करसां जण दो६ ।। १८३ ।। तोरणे नसणेमि मानीउं, भोलपरिण ते भूप । जिन पूजानिचानीउ, जाणनु राणी सरूप ।। १८४ ॥ मुडि मुष्टि तिहां गज, राणी तणइ प्रावास ।। कर जोडी साह्मी रही, बोलिङ ताहारडी दास ।। १५ ।। सोबन धालज मांडीइ, रूपा मासण दीघ । माइ सहित बिसारीउ, अति घगी भगतिज कीध ॥ १८६ ।। बेटु बहूयरनु तीया नारीच मलि ममि । जीमाडी अादर करी, कहि नदि प्रापद मुझ ॥ १८७ ।। साक पाकरगू रसवती मूकीय थालि भरे वि। माहि यिसि राणी जीमावही, हीयडोलि कुड धरेबि ।। १८८ ।। प्रध जमती राणी कहि. स्वामीय सांभलि बात ।। पीहर थी कांई मूखडी, पापा हुया दिन सात ।। १८६ ।। तो विण मो काई जोइवा सांगि अछि नेम ।
प्रसार तु नचि पामीउ, तुहूं जोयड केम ।। १६० ।। रामा को विष के लड्डू खिलाना
अध जमती ते उठीय जाईय माहि प्रवास । पेई प्राणी उघाडीइ, मूकी छिरा उनि पास || १६१ ॥ विप मादक दोइ कादिया, एक माय एक राई। रुडा ते नीजां दीया, बली वली २ लागि छिपाई || १६२ ।।
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५२
आचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
कुटकुतवमि चाखोउ, जांण व विनाए । तिगृह विषि हुषारीउ, राखी को लोगो न कारण ।। १३३ ।। far धारया धरणी पडयु हूउ एक पोकार 1
पड तिमि त इय भव्यु
विष तया वैद ह्कार ।। १६४ ।।
"
मुझ वाणी जब सांभली, राणी चितीताम |
वैद्य जीवाडि राजनि,
रानी द्वारा विलाप
तु मो विर्णसि काम ।। १६५ ।।
इम चीती हाहा करी, छोडिय केश कलाप ।
मूरछ मसि उपरि पड़ी, हीयउलि आणीय पाप ॥ १६६ ॥ तुझ दिण राणा राजला, आंगुलडीय देलाडि ।
निरधारी तु कां करि, कांइन करइ संभालि ।। १६७ ।।
रखमसि उधर पड़ी, गलई अंगूठउ देह |
चांगयि कंद सोहामणु, प्राण रहित कीषां देहु ।। १६८ ।।
राजा का दाह संस्कार करना
राय राणा तव सहू मिल्या मांडीय एक पोकार | माई यसोधर बिहूनि चंदन देउ संस्कार ॥ १६६ ॥ गाइ भूम सोनु देइ, मिलीया सत्रि परवान ।
ब्राह्मण सवि तेडी करी, अति घणु दोघो लु दान ॥ २०० ॥ यशोमति द्वारा राजा बनाना
राय राणे संघर्षे मिली, कुमार बिठास्यु पाट |
राज घसोमति थापीठ, जय जय बोलि छ भार || २०१ ॥
वस्तु
तेह राजन तेह राजन
पाप भरि भावि 1
जे जे दुःख वसीम सहां,
जोड़ा परिभव सहीउ ।
जिम जिम जिहां जिहां उपनो, जिसी २ गति दुःख भलीया । जिरी जिणी परि परि भव्य पीठी कूकड काजि
ते ते सविहं तुझ कहूं
संभलि तु महराज ॥ २०२ ।।
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यशोधर रास
अथ ढाल सप्तमी
गंगा हिमवन अंतरिए, गिरिवर प्रति उत्तंग तु 1 नाम सुबेल जेहन ए, बीसि प्रतिघणु श्रंग तु ॥ २०३ ॥
मोर का जन्म मिलना
कंटाकुल जे खडाए, काकर कठिन विशाल तु । प्रतिभीषण सुगामणुं ए, जाणे नरक निवास तु ।। २०४ ।। तिरिए गिरि बेल सरि उरिए उपनु हु ताम तु । माता मुझति पांख करेवि विद्वांकी ताम तु ॥ २०५ ॥ ति परबत पु दूकडउंए, प्रखइ मच्छी गाम सु ।
पुहुतु तिरिए ठाम तु ।। २०६ ।। खांब चढावी ल तु 1
तिहाँ कु एक पारधी, ततक्षण तीरिए बारण हगी नाहनु सु मुझ पेख करे घरि जाई घर भांगणिए, सवी केव ते गए,
चाल्यु फाटि मेल्हितु ।। २०७ ।। मूकी खारा मझार तु । मलीउ ताम तलार तु ।। २०६ ।
लीइए,
ठालु
भावपु गेह तु ।
एकादय् कूटी ते सु ।। २०६ ।।
देवऊ दीली तीणी कामिनी कृत्या तस तरणी मुलेई न पारधीए, गउ माणु सानु तिथि दीए, हुं दीधि तिथि तास तु ।। २१० ।। तिसुतलार परिकर ए, पाम् पूरू काय तु ।
तली एरह पास
जमिनी के राजा के पास ले जाना
उजेगी नयरी लीउए, जिहां जसोमति राउतु ।। २११ ।। भेटणु ते देखी करीय तब मनि हरध्यु भूप तु । जे माता साथि मूईए, सोमलि तेह सरूप तु ।। २१२ ।। करहाटक देखि हुजए, मोटु स्नान कराल तु । मोटी पाढे ऊजलुए, मुख तेनु विशाल तु ।। २१३ ।। राई तेह देश सरिए, सोवन संकलि जू तउ । पारभि रस तिणि जाणीउए, राउ जसोमति नित तु ।। २१४ ।।
५३
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५४
आचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म शाबर
ती ितिहां ते पाठथ्युए श्रन्यु सभा मझार तु तेह दर्शन राउ हरषीउए, जोऊ कर्म विचार ।। २१५ ।। उए, स्वानज पालण काज तु ।
लुड मसारणी न हुं पुर्ण गरहीनि दीउए,
संतोष नरराज तु ॥ २१६ ॥ राणी रमतो रंग तु ।
एक दिवस मिखीजं ए,
बिठी श्लीया इतईए, कुत्र तरिण उत्संगितु ।। २१७ ।।
जाती समरि जाणीउए, तब पनि उपनी रीस तु । नख रेहणीयां सीस तु । २१३ ।।
कोधि गर्मशिहि उडीउए राणी रीसि मुकीजए, निज भूषानु घाउ तु । पामीय मूरखा ते पड़ए, जिहां विद्धि राउ तु ।। २१६ ।।
I
तव रांइ एस भव्य ए. लिए लिइ ए सखि जाम तु । स्वानि संकल प्रोटि करे, ग्रहीत कंटि ताम तु ॥ २२७ ॥ तव रांइ माथि हव्यु ए, रमतां सोग स्वान तु । तिशि बाड़ ते स्थान तशी जीव हनी हुई हारिण तु ।। २२१ ।। से पटियां दोइ मेल करे, रांइ विलापज कीध तु I
वेडी सवि जन श्रापणाए, इसी सीरवामणि दीधतु ।। २२२ ।। संस्कार गरि देउ, देउ सोवह दान | गंगा अस्थिज पाठवुए, मोर तांनि स्वान वृ ।। २२३ ।। स्वगि जई सुख भोगविए, जिम बडीयाई तात तु । वांट गइथि जीवडिए, मितवमुरणीय बात तु ।। २२४ ।। ती ते सहइ की उंए, तब दोइ छडि सरीर तु ।
गिरिहि सुलि भीमवनि, गंगा केरि तौर तु ।। २२५ ।।
मोर एवं स्वान मार कर सर्व एवं सेहलि होना
मोर मरी निहां उपत कालु मोटु पतु | स्वान बली सेल हुए भोगवतु निज पाप तु ॥ २२६ ।। एक बार जब दोइ सिल्याए, सेहलि साम्हु नाग तु । सापि मेहलु फरिण हृयुए, आवर नहीं कोई लाग तु ।। २२७ ।।
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यशोधर रास
महलि पलग मारीउए, सब तरिछि जे जीव तु । नीमई सेटस्नु सब यू ए, करतु प्रतिघणु सेवतु ।। २२८ ।। उज्जे पी ताल जे वहिए, सिमा नदी सूसार तु । सेहलु मरी सिहा उपनुए, महामञ्छ सिसुमार तु ।। २२६ ॥ सांप मरी तीणी नदीप, रोहीतरिण अवतार तु। म गला गलि छिरयाए, जाति तरिण बिचार तु ।। २३० ।। एक बार रोही घरयु ए, जल माहि सिसुमार तु । दासी राजा केरडी ए, झीलेश तिरिण वार तु ।। २३१ ।। झा देई दासी पडीए. मच्छन्न उपरि जाय तु । हुं मुक्यु दासी ग्रही ए, नौगो बुलाब्यु ताम तु ॥ २३२ ।। दासी बीजी नासि गई, तेहे वीनवीउ राउ तु । तुझ दासी माद्धि गलीए, काई करू उपाय तु ।। २३३ ।। संघ मछ कालावी जाए, मोकलि धीवर घाट तु । जो सरि करी त्रीलाबीउए, सेनही कहि मिपाइतु ।। २३४ ।। राइ माई हे भल्यु ए, जोउ करम विचार तु । तवहूं नासीनि गउए, घीजाद्रह मझार तु ।। २३५ ।। एक दिवस तिहां प्रावीयाए धीमर धाडि विशाल तु ।। तेहे लांस्य जालि पड्य ए, रोही मछु जाण तु ।। २३६ ।। बाहिर काठी लांखीउए तेहे मछु जाम तु | ठेवाल हणता देख करे, बूढउ बोज्य ताम तु ।। २३७ ।। मम को एहनि मारसुए, रोही मझ उ नाम तु । मि जाण्य मूका बसिए सरयु, अम्हारू काम तु ॥ २३८ ।। ग्राज हण्य थुविशांसलिए, लईय चानु गेह तु । ते सवि लेई घरि गयाए, लांख्यक करडी ते तु ।। २३६ ।। तिहा राधा बहु दुःख सह्याएं, संपतु घरभात तु । राजभत्रनि लई गयाए, जिहां राजानि मात तु ।। २४० ॥ राजा माता मति भणिए, रोही मझु छन एह तु । करउ श्राद्ध ता तह तणु ए, स्वर्गह कारण तेह तु ॥ २४१ ।।
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प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
तिणी पापणी वली तिम किउं ए, लेडी बंभासार तु । माती सररण मुझ हुए, सजन तीणी वार तु ॥ २४२ ।। हवि अंतिज वारि ऊछर ए, नयरी उजेणी पास तु ।
और यमं रोष हुए, जाना याद तु : २१३।। सिसुसार मर कर बकरी होमा
सिसुमार माछु मरीय हुई, छाली तिणि ठाम तु । रोही मर कर बकरा होना
रोही मरी वली उपनुए, ते छाली उरि ताम तु ।। २४४ ।। मोटु नोकर तेहूबए, तिनु पय पान करत तु । बेथा नाथि क्लिोकिउए, मनि धरि क्रोष अपार तु ॥ २४५ ।।
कूखि सीगि सुहृण्य ए, सुभ सहित तीणि वार तु । मकरा मर कर फिर बकरा होना
नौसरी जीव तिहाँ एउए, छाली उयरि मझार तु ।। २४६ ।। प्रापि प्रापनी पाईए, जोउ संसार विचार तु । तेह गर्भ मोटु हूउए, जणवा तरिण यसभि तु ॥ २४७ ।। तेह छाली सुजूथ घणी, करिया लागु संगि तु। राउ जसोमति आबीउए, पारषि ध्युतिणिसेवितु ।। २४८ ।। कोधि वागज मूकीउए, तिरिण हरणीयां ते बेवितु । राजा घाई प्रावीउए, उदर फजायु तास तु ।। २४६ ।। पालक वाहिर काडीउए, साजु पूरे मास तु । प्रजापाल मति राउ भरिणए, जोनि रहित ए प्राज तु ॥ २५० ।। पावर माइ पय पान करे, इणि ऊछेरि कान तु 1 राजभवनि राजा गउए, लागु राज व्यापार तु ।। २५१ ॥ पाप रिघि घणु मोहीउए, पारधि करि प्रपार तु । पारघि जातां गउ वली, मान्याभिसा वीस तु ।। २५२ ।।
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यशोधर रास
जु मो पारधि सफलहुसि तुमि देवा ईस तु । देवयोगि ते सफहूई मारयाभिसा राई तु ।। २५६ ।। केता बिहिची प्रापीमा ए देवी केरि ठाइ तु | सूत्रपरि राजा बोनव्यु ए सांभालतु भूपाल तु ॥ २५४ ।। भिसा सवेवि टालीया ए स्नान अनि सीयाल तु । श्रुत योगई बंभण भणिए पोन रहित जे छाग तु ।। २५५ ।। श्राद्धयोग भिसा हुई ए लागि ते नि पाग तु । राउ विमामी प्राणीज ए चंद्र मृत्य जे नाम तु ।। २५६ ।। तब तलवर है प्रारणीत ए राजा भोजन ठामि करत ।
जब जीजन कह नाम तु ।। २५७ ।। अह्म न कांई पामीज ए तरस भूख दुःख ताम तु । बंभरण जीमीनि गया ए राजा सपरिवार तु ।। २५८ ।। बइठे जिमवा उपनुए जाति समर तिणि वार तु । घर पुर नारी पुत्र सहू ए, माहार अच्छि एह तु ।। २५६ ।। एकन देखु प्राण प्रियाए अमृत महादेवी नेह तु । तिणि अवसिर दासी भरिप ए सुणि सस्त्री वचन विचार तु
।२६० ।। एह गंभिसा तणु ए तुही प्रच्छि प्रगार तु । बीजी सखी तिहां इम कहीं नहीं ए भिसागंध तु ।। २६१ ।। मीनासनि कोढिण थई ए राणी पति दुरगंध तु । शिरधुणी भीजी भलिए नही मीनासन एह तु ।। २६२ ।। विश देई नाह मारीउ ए पाप तणु फल एह तु । खरखरति गलि बोलीउ ए राणी तामसूयार तु ।। २६३ ।। सायल कापी प्रापि मुझ छाला सेकि अंगार तु | तिणि पापी तब तिम कोउ ए बेटा संरसी मात तु ॥ २६४ ॥ षावा लागां श्राद्ध करी मूनि बोलि इसी बात तु । तिणि प्रवसरि वली उपनु ए माता तणउ विचार तु ।। २६५ 11
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श्राचार्य सोमकोति एवं ब्रह्म यशोधर
खाली मरी तद उपनी ए कलिंगह देस मकार तु । हीडि भार तु ॥ २६६ ॥
भिसु भारा
हुए वहि
बकरी मरकर भंसा होना
૫૬
वरणुजारा गरबस लगा ए वस्त्र गुणति शीवार तु । लह उजेपी आश्रीसाए ढाली गुराज यामि तु ।। २६७ ।। ताप कर चाल्यु ले गए जिन जीयज नाम कु भी ंत तिरिए यात्रीज ए राजासन तोषार तु ।। २६६ ।। कूलि सिगि सुं दृष्य ए जाणि तरिए बाचार तु 1
पालिइ राइ वीनव्यु ए जाप्यु पश्व विचार तु ।। २६६ ।। कोणि राइ पाटव्याए भिसां लेवल तलार तु । तिरिश आणी हुन् बांधीज ए राजा भोजन ठाम तु ॥ २७० ॥
हींग लूस पाणी भरीय घरीम कडाही ताम तु tfsss लोटि घणुए भूमि प्रति पुलकार तु ॥ २७१ ॥ तब रांड बोलावीउ ए श्रागलि रहा सुयार तु । पाकु पाकु छेद करे मानिला इमवार तु ॥ २७२ ॥ तिथि पापी वली तिम कोउं ए जांकुडि झांडी क्रीम तु । ते छालु तिहां सेकीउ ए करतु प्रतिघणु रीव तु ।। २७३ ।।
श्रतिष्टिते वे सूर्या ए सुखि राजन श्राचार तु । एक जीव व पामीरं दुःख घणा संसार तु ॥ २७४ ॥
वस्तु
ब्रह्म बोल्ड ब्रह्म बौलइ सुखि न
जेरणी दूकडु जेह पच्छि पावक लोक करि पूरीड पाप कर्म वली नरय वासु । कूकड़ी तिहां जेम्मीयां पाप विशेशि बेह |
जगतां मात बिलालेईतु पापतणां फल एह ॥ २७५ ॥
भूपाल |
तिवासु ।
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यशोधर रास
प्रय बाल पाठमी
राग राज बल्लभ
सखी कूकड युगलुतेह चुणत चुणा वृद्धि गरे । वली उपरीयां बह तेह सर्व कलापे पूरीयां रे ।। २७६ ।। एक दिवस तलार वन जाई पाछन बल्यू रे । सस्त्री दीठां तिणि ते बेह् अंगि लक्षणवली मविभरयारे ।। २१७ ।। लेईय ताम तलार राउ जसोमति भेटीउरे । सखी चली तेवा देषि राजा हरषि व्यापीउरे ॥ २५८ ।। माप्या तेहान ताम तु अछर माहरां रे । होसि रभवा काजि हावली एहनां पीलकारे ।। २७६ ।। सखी बोल्यु महा पसाउ तिरिंग दौड पंजरि घातीयां रे । सखी लेई वेगि तलार निज मन्दिर वली प्रावियो रे ॥ २८७ ।। सखी करण चणतां जल पान एक दिवस सुखिनी गम्यु रे । सखी प्राव्यु ताम वसंत वन वन वृक्ष जमुरीया रे ।। २८१ ।। कोइल करइ टहूक भमरा रुण झुण म्वनि करि रे । सखी फूल्या केसू फूल सहकारे माजिर घणी रे ।। २८२ ।। नाम जसोमति राउ राणी सुचली पनि गरे । सखी सांभलि तेह तलार ततक्षम बन भरणी सांचरचारे ॥ २८३ ।। पानि ले ईय सापि पंजिर थांबला वनि गउ रे । सखी प्राप्यु ते वन माहि जिहां राजानां पर अच्छि रे ।। २८४ ।। सात खणा रे प्रावास राणी सु नरपति रा रे। सखी तेह भागलि पटसाल वस्त्र ताउ गुडउ कीउ रे ।। २८५ ।। सखी पंजर तिणि चल गाड़ि वन पोवा मरणो सामय रे । सनी दीठउ तिणि प्रसोक इकडलु सुरतर समुरे ।। २८६ ।। तेह ललि मुनिवर राउ ध्यान घरी पासण कीउरे । सखी पंच महावय घार, पंच सुमतिहि विभूषीउरे १५ २८७ ।।
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आचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
देषी तेह तलार मनमाहि कोपि परजल्यु रे । सभी ते काढवा उपाय प्रतिघणु चित चीत विरे ॥ २८६ ॥ एना निरज राज राणी रमतां वनिरे ।
देखी प्रति घणु को
लघु तेणि उपाय सखी कुडी पूछ
करसि मुझ उपरि वलीरे ॥ २८६ ॥ मुनिवर वन थी काहिवारे ।
बात कहिसि ते नांव मानिवु रे ।। २६० ।।
ईम चीतवी तलार कूडि मुनिवर पनि पड्युरे |
सखी बिठउ भागिल जाइ मुनिवर ध्यानज मूक्रीउरे ||२६||
पूछि ताम तलार कद्दू स्वामी सुं पीतव्यु रे
सखी बोलि मुनिवर राउ दुष्ट तिभु जापरे ।। २२ ।। काया जीव विचार जु जू भाविजे श्रच्छिरे ।
सखी चीत्यु तेली वेद जिम जिम करी जू जू अस्थिरे ॥ २२३ ॥ काया भितर स्वभावि जीव स्वभाविछि जुउरे 1
सखी कभि बंधयु जीव किम बाझि किम छूटी रे || २६४॥
बलतु कहिन लार सुणि मुनिवर कुलि भोलग्यु रे ।
सखी कायानि जीव एक मम जाणे तु जूजूयां रे ।। २६५ ।। चोर एक मिलेनिनादिमाहि मइ घालीउरे ।
सखी ते बीडी वली लाख जीव नीसारु
जोईउ रे ।। २६६ ।।
नीसरे ।
जीवड परे ।। २६७ ।।
मुंउ माहि वीर जीवन दीठउ सखी इग जाणे बैह एक से काया ते बोलि मुनिवर ताम सांभलि तलवर पुरुष एक संत्र हाथि नादि माहि वली घातिउरे ।। २६ ।।
मनही रे ।
सखी बीडी ते वली लाषि संखनाद माहि कीउ रे ।
सखी सांभल्यु बाहिर लोक जोड ते कांइ न खीरे || २६६ ॥
तिम जागो ए भेद काय जीव बेजूजूयां रे ।
सखी बोल्यु वली तलार सखी चोर एक मिले वि घटि घाती नइ तोलीडरे ।
तेय हरणी करी ताम बत्री तीरण घटित हम कीउरे ।। ३०१ ||
सुखि मुनिवर तु बीसरे ।। ३०० ।।
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यशोधर रास
जे तु जीय समेत जीव रहित ते तुजहउरे । सली तिरिण कारणि तु जाणि कापा जीवन जूजूषां रे ।। ३०२ ।। बोलि मुनिवर 'राउ सुरिण न तलारजेहु कहूं रे । सखी पाणी एक निषंग ते पुणे पनि पूरीरिया तो ।। ३०३ ।। स्मुघट धरी तेह ऊतारीनि जोईउ रे । सस्त्री जे ती पुरी वाज, वाउ रहित ते ती हुई रे ।। ३.४ ।। तिणि कारणि तु जाणि कायानि जीम जुजुयां रे । सखी बोलि ताम तलार सुरिण मुनिवर डाहुनही रे॥ ३०५ ।। चोर एक वच माहि लेईनि तिल तिल बंडोउरे । सखी जोउ तह झरीर जीवक हीनवि पेषीउरे ।। १०६ ।। इणि भेदि तु जाणि जीव काया न बि जूजूमा रे । सखी मुनिवर पणि ताम सांभलि भद्र जेहूं कहूं रे ।। ३०७ ।। लेई भरणी का तिलपांइ नाही पंडीउरे । सखी जोई प्रागनि मझार लोक सबहू सतु कहिरे ।। ३०८ ।। नवि दीसि जोबत तिम काया माहि जीवडउरे । सनी नवि दीसि जोवंत तिम जरग सहू जूजूयां रे ।। ३०६ ।। बोलि ताम तलार सुरिण स्वामी निरू तरहूउरे । सखी देउ आदेण ज नाथ विउं करई तुझ ताणु रे ।। ३१० ।। वोलि मुनिवर राउ सुशिन वत्स तुझनि कहरे । सखी करिन करिन जिन घमी हिंसा रहीत सोहामणु रे ।। ३११ ।। जपि तलवर स्वामि घधिर्म मझ फल कहु रे । सखी जिम हुं जाणु बेह जे रूडउं ते पाचहरे ॥ ३१२ ।। बोलि योग निरिंद अति रूउउंति पूरिनउरे । सखी नारी बहु मुगावंत कुल लक्षण रूपि भलीरे ।। ३१३ ।। सात भूमि जे गेल राज रिधि मोटिम घणी रे । सखी पुत्र पौत्र संताव विनय विवेकादिक सहूरे ॥ ३१४ ।।
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आचापं सोमकीति एवं ब्रह्म शोधर
हाथी घोडा जेह रतन जात वली जे अत्यि रे । सखी जिनघम्म तणु फल ए जाणि न जे रुडु प्रतिय रे 11 ३१५ ।। पाप तरिण परमाणि बहु बोली बली चढ कणी रे । ससी काली मनि कुहारि नीचे लष्यण कामनी रे।। ३१६ ।। कूपिता जुच्चित गात्र निरखर माइ बांधव वली रे । सखी निरधन काणा खंज रोग रास करी प्राकुलारे ।। ३१७ ।। जे जे दुखद जाणि ते ते फल पापह सणु रे । केतु कई विचार कहितो पार न पामीइ रे ।। ३१८ ।। पंचाणुव्रत जाणि च्यार जे सख्यानत कां रे । सखी तीन मरिथ गुणवत ए वारि व्रत उचरे रे ॥ ३१६ ।। समफित साघु पालि दयामर्म घली जे भत्थि रे । सखी सुणी सहू बोलि तलार हिंसा रहित ए पालिदुरे ॥ ३२० ।। हिंसाकुल बत जाणि किम करी ते छांडीह रे। सनी बोलि मुनिवर राउ सुणिन वत्स जे हुं कई रे ॥ ३२१ ।। हिंसा तणि प्रभावि कुल पम्मइ वली घणु रतां रे । सखी कूकड युगल जाणि जाणि परि दुःख वह सहारे ।। ३२२ ।। पगि पंडित पूछित लार कहु स्वामी से किम हूयारे । सखी कोणी परिभम्यां संसार कहि मुनिवर बहू सांभलि रे
॥ ३२३ ।। जेह जसोधर राउ ऊजेणी नयरी हूउरे। चन्द्रमती तिसु मात पीठमि जीव प्रणावीउ रे ।। ३२४ ।। यसोमति केरि पाटि देवी मंडपि ते लाउरे। सखी हसीउ ताणइ राउ माइ प्रादेशि सचि काउरे ।। ३२५ ।। मा- राणी बेह धरि तेरी मोदिक दीयारे । सपी विषह तरिण रे विनाण मयनि विहां उपना रे ।। ३२६ ।।
पहिलि भवि ते स्वान मोर बेहू ते उपनां रे । सनी बीजि भवि ते बेह सेहलु निविसह रहुयारे ।। ३२७ ।।
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यशोधर रास
सस्त्री श्रीजि मंत्र ते बेह
भारही
सखी चुधि भवि बली तेह छालु छाली दोइ हुया रे ॥ ३२८ ॥
भिसु खासु बेह जिगी परि दुःखज प्रति सह्यारे ।
सखी तु पुख जारिए तेन परिसघली वली जिस मूयां रे || ३२६ ||
"
तिहाँ यका ए बेब कूकड युगलु ऊपनां रे । सखी पंजर घाती बेह लिए वन माहि श्रायां रे ।। ३३० ॥
बोलि ग्राम तलार कंपंतु मुनिवर प्रति रे 1
सली ए सहू भापरिण डाल कींधु निकरा बीउ रे ।। ३३१ ।। राति भोजन नोम तिन वार जल गालिसुरे । सखी समकित सहित विशेष तिपि तलवर पनि पडिली रे ।। ३३२ ।।
६३
नीय भव समरी ताम कुकड युगलि पुगग लीजं रे । सखी तीणी दिसी नमी मुनिराउ समकित स्वजे व्रत कह्यां रे ।। ३३३ ।।
पामीय धर्म विचार हरषि युगलु वासीउरे । सखी खीजी राजा ताम सबद वेध करी दोइ हृष्णां रे ।। ३३४ ॥ कुमावलि उरि बेह मरी तिहां यी उपनां रे ।
सखी राजा यशोमतितात धर्म पसाद पामीउ रे ।। ३३५ ।।
उयरि वसंता ताम माता निडोह रे ।
अभय दानती श्रारिंग देश नयर राजा दीइ रे ।। ३३६ ।।
वस्तु
लाम नर वयर नयर वजेण पूरे मासे । जनमीयां माई बाप वली नाम दीघां । अभयरुष अभगमती कला कुशल वाषंत कोषां 1
कन्या पंच विवाहीउ वाथ्यु मुझ राव देषि । कन्या ऋथ कंशक दिन जगत रहावी रेष ॥ ३३७ ॥
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प्राचार्य समकाति एवं अझ वश घर
अथ हाल नवमी विणजारा रे एक दिवस बनमाहि राजा पारपि सांचरयु वणजारा रे ।
। वि। वाग्युरीयों सई पांच पाइक साथि ते लिवा ॥ वि० । ३३८ ।। वृक्ष असोक ज हेउ मुनिवर दीठउ ध्यान रह । वि० । देषी मुनिवर राउ राजा कोपि घरजल्यु विण ।। वि० । ३३६ ।। पारिपनि फली प्राज मुनिदर्शन थां होइ सइ । वि० । मुक्या राइ स्वाम पांचसइ मूठि भूकीया । वि० ॥ ३४० ॥ से सबला वली स्वान मुनिवर पाषसि परिवरया । वि० । मस्तक भूमिम डाडि जाणे व्रत लेबा रहा ।। वि० ।। ३४१ ॥ कल्याण मित्र ज नाम विणजार क्षेशाउरी । वि० । राजतणु जे मित्र बालद लेई प्रावीउ ।। वि० वि० ॥ ३४२ ।। मुनिवर जाण्यु तेण वन माहि ध्यानि रा । वि० । इंदे वा मुनिराउ बानिद छांडी नीसरयु ॥ वि० ॥ ३४३ ।। दीठउ तेण नरिंद भेट भणी लेई भावीउ । वि। मेटिउ सेणि नरिंद राज साहामा पगला भरि ॥ वि० ॥ ३४४ ॥ पूछी खेम समाधि पान मान नरपति दीइए । वि। राइ प्रति ते मित्र वचन मनोहर उचरिए ।। वि० ॥ ३४५ ।। प्रात्रु यसोमति राउ मुनिवर वंदण कारणि । वि० । रूठ बोलि राउ सांभिल मित्र जेहूं कहुं । वि० ॥ ३४६ ॥ स्नान रहित अपवित्र नग्न अमंगल जाण जे । वि० 1 निग्रह करवा जोग्य हूं भूमिपाले बंदीउं ।। वि० ।। ३४७ ।। ते मुझ एह प्रणामतु वांछिय कराविया । वि० । जु इम बीजउ कोइ कहि तुमि मारिबु ।। वि० ।। ३४८ ।। ए सूराउ वचन सांभली तेमनि कम कम्पु । वि० । विमास्यु मनि साच राजामि प्रतियोधि ।। वि० ॥ ३४६ ।।
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यशोधर रास
बोलि किल्याण मित्र साभली राजा हुँ कहुं । वि० । स्नानि पवित्र न होइ ने प्राचारि बाहिरा || वि ॥ ३५० 11 मंत्र जाप वलि होम दिनकर वायु काल घणेई । वि० । भाटी निबली वार पवित्र पत्रणा घणा भेद छि। वि०॥ ३५१ ।। बभरण एक मुजाण वेद मृत सहूइ भण्यु । वि० । वाटिते जल हीण असु च पणा लगि से मूउ || वि० ।। ३५२ ।। कहु न तम्हे भूपाल कवरण गति ते दिज गउ ! नि । जु गज नरक ज तेह वेद भण्यु तेनि फलथउ ।। यि ।। ३५३ ।। जुगउ तेह ज स्वर्गि जातह निफल जल सोचियउ । दि० । मुनिवर सदा पवित्र मंगल परम ए जाण जे । वि० ।। ३५४ ।। नग्न अछि महादेव परमहंस नानु अस्थि । वि. । बोल्यु सघले धर्म नग्न घणु दोहिलु भत्थि । वि० ॥ ३५५ ।। स्त्रीय परीसह जेह तेह भागा भूला मि | वि० । सील रहित नरनारि ते पहिरयां नागां सही ।। वि० ॥ ३५६ ।। सोल सहित नरनारि ते नागां पहिर्यो सही । वि० । मंगलमि जे जेह शकन ते मुनिवर जाण जे ।। वि० ॥ ३५७ ।। श्रवण तुरंगम राउ मोर कुजर वृषभि सही । वि० । जातां वला एह परम सकुन तु जाणजे ।। वि० ॥ ३५८ ।। तिजे बोल्यु बोल निग्रह मो करिवा तणु । वि० । बालक ना जिसु बोल मुनिवर कुण हणी सकि || वि० ।। ३५६ ।। पाणिउ चामि मेर सायर बाहिं जे तरिवि । वि० । मुनिवर कांई केण कर यावली वालि नही ।। वि० ।। ३६० ।। जेति कहिउँ भूपहुं भूमिपाले प्रणमीठं 1 वि० । देश कलिंगह राउ नाम सुदत्त वाणीह ।। वि० ।। ३६१ ।। योवन पाम्थु घोर तलबरि राउ प्रागिल धरयु । वि० । राइ पूछयां विप्र अपराध एह पर तु कहु ।। वि० ॥ ३६२ ।। सेहे बोल्युताम चाचरिचु षंड कीजीइ । वि० । तेह सुणी नि भूप बैरागि राज बेटा देवि ।। वि० ॥ ३६३ ॥
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प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर लीधी दीक्षा जेह ते ए वन माहि भावीउ । वि० । शाहि जसोमति राड़ चालु न ते जोई।। वि० ।। ३६४ ।। किल्याण मित्र नि राज साथि मुनिवर प्रणमोह । वि० । ततक्षण पूरियोगइ धर्मवृद्धि बिहुँ जण दीइ ।। वि० ॥ ३६५ ॥ गुनिवर सरषु चित्त सत्तु मित्र राइ पेषीउ। वि.। राउ थ उ बैराग धर्म गेह ए मुनि अस्थि ।। वि० ॥ ३६६ ॥ एह तणाय शरीर जेमि विनाश घिमासी । वि० । तेह श्वेदे ना पाप गिर पंडी पूजा करू ।। वि० ।। ३६७ ।। तुहं छुटचं भज प्रवर उपाय न को अस्थि । वि.स मूक्या ते सवि स्वान राउ दयारसि परिषर !! वि० ।। ३६८ ।। मुनिवर राज न चित्त ज्ञापमान जागील नि। मुनिवर बोलि ताम राज विमासण मन करू 1 वि० ।। ३६६ ।। प्रातम हित्या पाप शिरछेदतां लागसि 1 वि० । राउ सुरणी मुनि वाणि मनि प्राचापि पूरीज || वि० ॥ ३७० ।। मित्र तणु मुख जोइ शिर धूणी बोलि वली । वि० । किम जाणी मुझ बात जे मइ मन माहि त्रीतवी । वि० ।। ३७१ ।। मित्र ज बोलि ताम ए मुनिवर ज्ञानी अस्थि । वि० । माइ ताद तुझ वात पूछि भवंतर पणमीनि ।। वि० ॥ ३७२ ।। हरव्यु मनि भूपाल कर जोडी मुनि वीननि । वि० । माजु भाजीता तमाइ सहित ते किहां गयां ।। वि।। ३७३ ॥ प्राजु जसोधर राउ पलित केश घिर पेषीउ । चि० । मनि उपनु बैराग राज ताम तोनि दीडं । वि० ।। ३७४ ।। लेई दीक्षा तेण प्रणसण पांचि निरिण कीया । वि० । पहुत माहेंद्र स्वर्गि देवी मुंलीला करि ॥ वि० ।। ३७५ ।। जे वली तोरी मात विश देई तिणी प्रीय हुण्यु । वि० । पामीय तीणीय कुष्ट मरीय नरक्रि वली ते गई ।। वि० ।। ३७६ ।। जे पाजी अनि तात चंद्रमती यशोधरा बह । वि० | देवीय भाग'इल तेह पीठी कुकष्ट मारीउ ।। वि० ।। ३७७ ।।
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यशोधर रास
विश देई तुझ माइ विषह प्रभावि मारीयां । विe : मरीय करीत बेह स्वान मोर होई प्रावीया ।। वि० ।। ३७८ ।। सेहलउ निवली साप सिसुमार रोही हूया । वि० । छालु छाली बेह छालु मिसु वली तूया ।। वि० ।। ३७६ ।। फूकड युगलु अह शम्द वेध करीति हण्यु रे । वि० । कुशमावली उरि तेह बेटउ बेटी तुझ हयां ।। वि ।। ३८० ।। हवडा ते तुझ गेहं राजरिद्धि सुख भोगवि । वि० । राजा दूह विरण चित्त प्रति प्राणि लोटि रडि ।। वि० ।। ३८१ ।। एकह जीबह पाप एनड़ा दुख एहे सह्मा । वि० । इणि रांइय भनेक मारया जीवकेथु हसिह ॥ वि० ॥ ३८२ ।। बोलि किल्याण मित्र रोइ राजन पामीइ । वि० | करिन जिनवर सार हिंसा पाप छोडी करी ।। वि० ।। ३८३ ।। राउ ज बोलि मित्र मुनिवरनि तुहा वीनवु 1 दि० । जिम दिइ दीक्षा देखि काजन संसारि पत्थि ।। वि. वि० ॥ ३८४ ।। वैराग विशिथ्यु राउ मुनियर पगि लागी र य । वि० । कुइ राजा घरि वात दीक्षा राउ लेवा तणी ।। वि० ।। ३८५ ।। मूको अध सिणगार राजलोक अनि प्राचीउं । वि० । बहिन भाई अह्म वेह पालिषविसी पनि गयां ।। वि: ।। ३८६ ।। दीठउ ताम नारद बैराग्य पनि साहमउ रह्य । त्रि । पूछि सघली नारि पैराग्य कारण प्रभ कद्दु ।' वि० ॥ ३८७ ।। राउ भरिण सुणु नारि जे जे प्रापुण पेषीलं । वि० । बेटा बेटी जन्म अजी तात नासाभल्या || बि० ॥ ३८८ ।। भह्म भव सांभल्या जाम ताम बेहू मूरछी पड़या । वि० ॥ माई करिय विलाप हाहाकार सहू करित्रि ॥ वि० ।। ३८६ 11 सीतल करि उपचार सजन सोके अह्म आगया । वि० 1 पूछि ताम विचार कुरिण कारणि ती मूरछयां ॥ वि० ॥ ३६० ।। जे जे भोगच्या दु ख ते ते सघलां वीनश्यां । वि० । राउ काहि सुशि मित्र दीक्षा से उतावली ॥ वि.] ३६१ ।।
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आचार्य सोमकोति एवं ब्रह्म यशोधर
पुत्र देख तो राज भाज असूरज को करू । बि० ।
राज सुणी या बात तात ज वेग वीनवु ॥ वि० ।। ३६२ ।। सुणीम मारा जन्म वैराग्य तर्ह्यनि उपनु । वि० । ते आह्म किम ल्यु राज काज करे सुरूं आपणु ।। दि० ।। ३६३ ।। मित्र ज बोलि ताम मारग ए एस प्रत्थि । वि०
देई बेटा राज बाप दीक्षा पहिली लिइ ॥ वि० ।। ३६४ ।। विज तो एह राज बाप दीक्षा लेवा देउ । वि०
दीषीयां ॥ वि ।। ३६७ ।।
विमायुं चित्त पिता पहिलु दीक्षा लेउ ।। वि. ।। ३६५ ।। काविली वेह दीक्षा लेस्युं श्राती | वि. । अह्म नइ देई राज तात माइ दीक्षा लेई । बि ।। ३६६ ॥ कल्याण मित्र धरी आदि राज पांचसित लीउं । बि । नारी सहखज एक कुशमावलि सु' धरणा महोत्सव साथि नगर माहि अ पांच दिवस रहि राज भवर माइ सुत तेहनि देई राज गुरु पामि तव हुइ गयां । वि. । मागी दौक्षा सार सुरु राजा वलतु भणिवि । दि. ।। ३६३ ।। बच्छ तम्हे बाल जिन दीक्षा प्रति दोहिली | वि. ।
गया । वि. ।
तेडीउ । वि. ।। ३६८ ।।
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खत्यक व्रत ल्यु आज महाव्रत पाछि लेख ॥ वि ।। ४०० ॥ विभास्युं ताम गुरु वारणी किम लोपीह 1 वि. | लहुडी दीक्षा बेगि गुरु श्रादेसि ब्रह्यं लेई || वि. १ ४०१ ॥ तेज मुनिवर राव विहरंतु महीयल फिरि । त्रि.
श्राज जवडिति दीह ते गुरु तुझ वनि भावीज ।। वि. ।। ४०२ ।।
यामि दिवस ज आज उपवासी सचलो यती । नि. ।
म जाई गुरु पास उपवास बिहु जणे मारणी || वि. ।। ४०३ ॥ गुरु जी बोलि ताम उपवास तह्यति नवि घटि । बि. ।
गुरु प्रदेस ज पामि श्राहार लेवा पुण भूमि || वि. ।। ४०४ ।। वाल्यां मारगि जाम ताम तलारे भेटीयां | वि. 1
अनि लई तेह तुम कहिए श्रारणीयां ॥ वि ।। ४०५ ।।
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यशोधर रास
हिंसा तबउ विचार जेछि तेमि तुझ का वि । वि.। जे तुझ मावि विचार ते तु ब्रह्मनि नृप करेवि ॥ वि. 11 ४०४ ॥ सांगली निमा मुत्र पीकहाव । वि. । छांगेय भीषण रूप अस्पाणु लेई प्रावीइ नि । वि. ।। ४०५ ॥ देई प्रदक्षण ताम पगि लागी तिसु धोनवि । वि.। ब्रह्म सुणु ती वात प्रति घणी हिंसामि करी वि ॥ वि. ४७६ ।। ते छुटे वा पाप जिनवर दीक्षा मुझ देउ वि । वि.। क्षुल्लक बोलि ताम देदीप दीक्षा नवि हुइ धि । वि. ॥ ४०७ ।
कहिय पलिक कटिय पलिक सुणि न तु देवि जिहाँ जिहो जीवां नरक गइ जेह जेह वली तरी वासु जे जे दिवस सुख भोगवि देवि विमान देवी सुपासइ सेह तेह्र दीक्षा नदि हुई संभाल देवि विचार व्रत सु समकित पाल जे जिम तिरोइ संसार ।। ४०८ ।।
प्रथ ढाल- बशमी
जे घरह ए च्यार कषाइ रौद यानि वली वीटीयाए । जे दहिए वनहनि गाम हिंसा कमि आगला ए ॥ ४०६ ।। जे वली ए गुरु हनि स्वाम बंधक पापड़ पूरीया ए। लेस्याए कृष्णज तोह जे परनारी लंपट्ये ॥ ४१० ।। ते बहूए पाप पसार नरया वासह उपजि ए। छेदनई ए भेदन तेह साउन हंसन बहु सहिए ।। ४११ ।। मोहमिए साती नारि तेस्यु प्रालिंगन करिए । तातु ए करीयक धीर तरस्यां च्याते पाईइए ॥ ४१२ ।। छेदीइए तास सरीर मूल्यां सोइष वाडीइए । इणि परिए दुःख अनंत नरयावासि भोगविए ।। ४१३ ।।
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प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
ते नरा ए जिनवर दोष दु ख घणां थी नवि हुइए । प्रतु ए ध्यान करति नील लेस्याए वीटीया ए ।। ४१४॥ रस तणा ए भेद करति कूडि मापि बुहुर ताए । कूडीए साधि देयंति थापरिण मोसु जे करिए ।। ४१५ ॥ घामसिए पजेह ग्रह निशि प्रतिघण्जे पुलइ। जेहनिए नवकार न मंत्र देव जावनी नवि रचिर ।। १६ ॥ प्रति घणा ए पाप पसाउ निर्यच गति ते नर लहिए। छेदनाए अंकन दो तान पाम्न जे सहिए ॥ १७ ॥ भूषिए तसइ सेह ताविज ताप न भांगवि ए। प्रति घमाउंए भारा रोपमाइ बहिन जारिण नहीए ।। ४१८ । ते नरां ए दीक्षा देवि तिर्यंच किम दीजीइए । लेस्था ए पचम ज जंह धर्म ध्यानि खे वासीया ए ।1 ४१६ ।। पूजा ए जिनवर जेह पाव दान ते प्रति दिइए । जपिए मंत्र नवकार पर उपकारज जे करिए ।। ४२० ।। साचीए बोलि वारिण कूडीय घीष ते नवि भरिणए । ते नर ए जाइ स्वगि देवी दे शेवीइ । ।। ४२१ ।। बिठाए फरइ विमान मानस सुख प्रति भोगदिए । यौवन ए निश्चल ताह जरा न प्रावि टूकडी ए ।। ४२२ ।। प्रति सुषए केरही षाणि सुस्त्रमागर भोलि घसाउए । ते नरां ए होइन दीप भोगासक्त परगे पकी ए॥ ४२३ ।। मानबी ए जाति लहेवि अंगोपांगि पूरीया ए। साह्मरण ए भत्रय जाति जे वलो वैश्पह कुल तिलाए ।। ४२४ ।। तेह नरां ए होइ नमाइ दीक्षा जनेश्वर तरणी ए । हदितुए समकिस पाल टालि मिध्यात जे पाइलउ ए ।। ४२५ ।। अरिहंत ए माने देवि गुरु निग्रंथ वषाणीहए । जे जिन ए बोल्यु धर्म दश लक्षरण ते जाणीइ ए ॥ ४२६ ॥ जे प्रत ए बारह देवि ते ते पाले निर्मला ए । पालजे ए साचि चित भूलगुण वली पाठ छिए । ४२७ ॥
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यशोधर रास
रातिए भोजन वारि जीव तणी अयगा करे ए । सांभली ए देवि विचार पाय पड़ी ते सहूलीउ ए ॥ ४२८ ।। सोवन ए जल भृगार पगिलागीनि वीनविा । यतवतीए विद्यसार लेउ तो गुरु दक्षण भएीए 1॥ ४२६ ।। बोलिए गलिक तामहुं विद्याइसु करू' ए । देवी ए लोधागोग जारंग त तलि सहु करथु ए. ।। ४३० ।। बोली ए देवी ताम लोभ रहित तब देयी ए। सांभलु ए राज सहित लोक सहू योगी महित ए॥ ४३१ ।। पालुए धर्म प्रहिस हिस नाम म लेयस्युए। ये कोए हिंसा नाम देशि ता हरि बली लेयसिए ।। ४३२ ।। पोषली ए मरकी मांद देणा शवलि वली थाइसिए । मूकिंवाए सघला जीव अभयदान परतावीउ ए । ४३३ ।। प्रणामीय ए अलक पाउ देवी वेगि प्रदृष्ट थई ए । ते तलिए मारदन राउ प्रणमीय पाय क्षुमक तणी ए।। ४३८ ।। मागिए दीक्षा देगि अंगि रागिहिं बासीउए । देउ प्रभ ए दीक्षा प्राज संसार सागर जिम तरिए ।। ४३५ ।। बोलिए षिलक ताम मुणि भूपति गेहूं कहूंग । प्री नहीए धेवा जोग्य दीक्षा श्री जिनवर तणीए ॥ ४३६ ।। जे मरिगए अह्म गुरु राउते तुझ दीक्षा देइसिए । सभिलीए ताम नरिंद चीतवि मन माहि अापणाए ।। ८३७ ।। हूं नृप ए नपतणु राउ लागउ देवीपय कमले । देवी एक्ष लक पाउ परामि भगति करी घणी ॥ ४३८ ।। से हुए देश विवेग गुरु वह्नि लेई जाइकी ए । थी जिन ए धर्म विशेष हूँ उन होसिएह समु ए ।। ४३६ ।। ते तलिए मुनित्रा राउ पलिक चरित ज जाणीउँ । प्राबीड ए संघ समेत देवी बनि उतावलउए ।। ४४० ।।
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आचार्य सोमकोति एवं ब्रह्म यशोधर
पुलिक ए सहित ते राउ श्री गुरु केरा पगि पड्यु ए । लिक ए कहि गुरु स्वामि दीक्षा देउ ताह्म राउनिए ।। ४४१ ।। भूपतीए पाठ समत मारदा बौक्षा लेइए । राणीए सई तिहां पाठ स्लीधी दीक्षा जननीए । ४४२ ।। क्षलक ए षुडीय समेत प्रणमीय पायज गुरु तणाए । मांगीए दीक्षा सार गुरु तूठउ तियां दीइए ।। ४४३ ।। श्री गुरु ए बिहार करंति पुहुतां भवीयां बोधिवा ए। ते बहूए तीणि ठामि लेई दीक्षा तव रह्या ए ॥ ४४४ ॥ अभयरुचीए मुनियर राइ अभयमती माशा हुई ए। ते वेहूए मणसण लेवि पाष दीहाडा पालोउं ए ।। ४४५ 11 सातमइए स्वर्ग पहूत इंद्र प्रतीद्रंज ते हूया ए। देवीए बृदज माहि सार सौख्य प्रति भोगविए ।। ४४६ ।। सुदत्त ए मुनिवर राउ सोलमइ स्वर्ग ज ते गऊ ए । किल्याण ए मित्रज प्रादि घरीय करी में मुनि सोहू ए ॥ ४४७ ।। पुहुता ए तेहज स्वगि पुग्यमानि प्रा पापरिणए । योगीए सघले साम मिथ्यात हिंसा छांडी करीए ।। ४४८ ।। पुहृता ए तेह सु ठाम कर्म मानि बली प्रागणिए । दयानिधिए एहज रास पढ़ह गुणि चे सांभलिए ॥ ४४६ ।। नवनिधिए मंदिर तास कामधेन तस प्रांगणिए । पापहए तरणउ विनाश धर्मतरूयर बाघि सदाए ।। ४५० ॥ कुबुधए केरऽ नास बुधि रूडी सदा उपजइए । जांद्रए सूरज भेरु महीपाए
॥ ४५१ 11 तां रहुए एहज रास राउ यसोधर केरडु ए !
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यशोधर रास
तां रहूए एहज रास राउ यसोपर केरछु ए ॥ ४५२ ।। गुणीयण ए जे नरनारि बेह कसर रूपडा ए । सोधीए एह ज रास करीय सायु वली थापिचु ए ।। ४५३ 1। कातीए उजलि पाषि पारिवा बुधवारि कीउए । सीतलूए नाथ प्रासादि गुबली मयर सोहामणुए || ४५४ ।। रिभिति ए श्री पास पासान हो जो निति श्रीसंघह धरिए । श्री गुरु ए चरण पसाउ श्री सोमकोरति भन्यु ए॥ ४५५ ।।
।। इति श्री यशोधर रात समाप्त ॥ ।। संवत् १५८५ वर्षे ज्येष्ट सुदि १२ रवौ ।।
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गुरुनामावली
मंगलाचरण --
नमस्कृत्य जिनाधीशान् सुरासुरनमस्कृतान् । वृषभादिबीरपर्यंतान् वक्षे श्रीगुरुपद्धितम् ।। १ ।। नमामि शारदां देवीं विबुधानन्ददायिनी । जिनेन्द्रवदनांभोज इंसिनी परमेश्वरीम् ॥ २॥ चारित्राणे वगंभीरान् नरमा श्रीमुनिपुगवान् । गुरुनामावली वक्षे समासेन स्वक्तितः ॥ ३ ॥
दहा बंध
जिण चुधीसह पाम नमी, समरवि शारद माई । काठसंघगुणवणं, पणवि गणहर पाइ ॥ ४ ॥ एक जीह किम बोलीइ, कट्ठसंघ गुण सार। सुर गुर बुषि जे समु, ते नषि लाभि पार ॥ ५ ॥ चुरासी गणहर हूया, मादि जिणंदह जोड । तिणि अनुऋमि वंदता, बीर एयारह होई ॥ ६ ॥ धुवीसह जिणवर तणे, गरणहर पाम मुनिदिन्न । सिर वालि ते जोयता, चौदिसि तेवन्न ।। ७ ।। वीर जिणंदह पट्टिपुण, बिठा गौतम स्वामि । नवनिधान धरि संपजि, पाप पणासि मामि ॥ ८ ॥ सौषम्मह मुनिवर हूउ, जंबू स्वामि वषाण । एबई सरसु सुपीऊ, यह केवल नाण 11 E
1. जीभ, जिल्हा
2. भगवान आदिनाथ के ८४ गणघर में
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गुरुनामावली
चौदह पुरव ज धरि, दश पूरक ना जाप । बहु विहि रिधि भूसीया, को लंहि तेह पमाहा ॥ १० ॥
प्रथ बोली ग्रहो श्रावको पुण्य प्रभाव को। निरमल चित्त करी, जिनवाणी मनिश्वरी सावचेत थाई, जिन भवनि जाई। श्रीकाष्ठासंघना मे, मुनिषर तेहनु अनुकम
हनां गुण सांभल्यां यकां, संसार समुद्र तारण परम महासुखना कारण इस जे गुरु सांभसु ।
प्रय छंद पाथी श्री वीर नाह अनुमामि जाण । भूनिदरनि तेजिजिपद भाग ।। सहू नत माहि जिम ब्रह्मचार । गिरवरह माहि जिम मेर सार ।। ११ ॥ चितामणि रमणह मज्झि जाण । सब नारण माहि केवलह नाण ।। चिंतामणि रयणह मझि एक । माचार सबहू सोहि विवेक ।। १२ ।। ग्रह गणह मझि जिम चंद सूर । जल रास माहि सायरह पूर ।। जिम देव सबह माहि ज छंद । महीयल माहि सोहि नरेंद ॥ १३ । पदवी सबढु तिअयर जेम । तस उपम दीजि कहु केम ।। भरहेसर जिम सन्नि चक्कयार । हृषि काहु पुछसि वार-बार || १४ ।। कप्पता तरवरह चंग । तिम संघ सरोमरिण कटु संघ ।। १५ ।।
अथ दूहा बंध संघ सरोमणि संघ ए, जोउ तेह विचार ।
नरह नरेंदे बंदीया, गरुया गच्छ चीयार ।। १६ ।' श्लोक-श्रीनंदोतटग पछाख्यो, माथुरो वागडाभिघः
लाडवा गड इत्येते गच्छाश्च विबुघस्तुताः ।। १ ।।
1. चन्द्रमा 3. समुद्र
2. सूर्य 4. कल्पवृक्ष
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प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोषर सेषु गच्छेषु विख्यातः श्री नंदीतटसंशकः । शीलसौभाग्यसंयुक्तो विर्या गुणगुणां निधिः ॥ १७ ॥
गणहर मुनिजनवर्णता, पढ़मह एह विचार । महा वल्लभसरिनु इणि गल्छ हुन उवयार ।। १८ ।।
छंद पायडो तेह पट्टधर प्रछि एह। नामि पंचगुरु कहुं तेह ।। श्री गंगसेन नामि पहाण । तेह् नरनारद बड्ड दिइ माग ।। १६ 11 श्री नागसेन नामि प्रसिद्ध । देवाहवि जेहनी भगति किल ।। पंचमि पट्टि सिद्धांत देव । अरणेंद्रि मादी किद्ध सेव ।। २० ॥ श्री गोपसेन मुनिराउ जाण । बोलतां वयए अमोघ वारिण ।। सत्तमि पट्टि श्री नोपसेन । नीय भुजबलि जीतु मयण जेण ।। ववरणह देश देश मझारि | श्री नंदी तट पट्टणह सार ।। २१ ।।
दहा दक्षिण देश मझारि जु, नंदी तट पुर जाण । मोपसेन मुनिवर रहिनीय तेषि जिम भाण ।। २२ ।। तेह मुनिवरनि रुया, पंचसइ वर सध्य । नीय बुषि प्रतिबोधीया, सेहनि दीधी दक्ष ।। २३ ।। से सस्य माहि रुयडा, मुनिवर च्यार प्रसिद्ध । रामसेन प्रादि घरी, बाद केरि निजबुद्धि ।। २४ ।। वाद करता दिछ जु तु गुरु दीधु बोल । माहो माहिसु सवु. ती मूरपनिटोल ॥ २५ ।। वादी तु ती आणीउ, विद्या बल घणु चंग । देश च्यार प्रतिबूझवी, रवि तल राहावु रंग ।। २६ ।। नरसिंहर पुर जाणी, देश मझि मेवारि । ते मिथ्याति वाहीज, नयी कहि निपारि ।। २७ ।।
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गुरुनामावली
७७
भागा देश जु जाणीइ, नमरी मथुरा सार । लाह देश नामि पछि, तिहां मिथ्यात प्रभार ।। २८ ।।
द्ध त्रोटक वाह्या सबिहीहि लोक बले । पडिता सवि दोसि भवाह ले । प्रतिबोध जुनीय बुधि नले । जस राषु तु रवि चनक तले ।। २६ ।।
श्री गुरु वाणी संभली, विमा सि नीय चित्त । करघु प्रापुरण एह जु, नही अछि इहां भाति ॥ ३० ।। गुरुछ चरण वंदी करी, चाल्या सध्य चीयार । सु सु चेलाथि जु, लीषा एह विचार ।। ३१ ।।
प्रथ छव पणमविनीय गुरु चरणं सरणं, चित्तेद जिणवरं चित्ते । थी रामसेन मुणि बंदो, प्रायो नयरम्मि धरवि प्रार्णदो ।। ३२ ।। माणदह धरवि ताम संघसा, घर नयरे नरसिंहपुरे । सरवर वर पीर नीर अलोबई, तिहीं बिठा मुनि ध्यान धरे ।। ३३ ।। भासो उपवास लेण उचरीयो, धम्म नुह वर गहन करे। श्रीरामसेन मुनिवर सुमरता, नासि पाउ ते विवह परे ।। १ ॥ ३४ ।। तस नयर पुरमि मझे, माहड नामेण नवसर सिट्टी । सतह पुत्त संयुतो, पुत्तह पुत्र न लभये कहबि ।। २ ।। ३५ ।। पुत्त चापुत्त कवि, नबि लमि तब सेठी उदेग भयं । वहूयर उबेस तथ संपत्तौ, जत्य गुवंदि मुसिद मयं ३३ ३६ ।1 चौंतीय नीय काज लाव गनि, प्राणी प्रगलि बिउ लग्ग पयं । श्रीरामसेन तव ज्ञान महालि मनि पाठवीया नाम लीयं ॥ ॥ ३७ ।। तह वयण सुरणधि सेठ्ठी, पुछि कन्जं च कहवि मुणिगउ ।
२. श्रेण्टि
१. चार ३. साव
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श्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
दुय दुस पुत्त वालपड़ीयं, घीय कूप नधि संयोहो || ३ || ३८ ।। संदेह विश्वास जब से दिठ्ठउ, तव लोक ग्राभ भयं । बेकर जोडबि प्रति बहु भक्ति, मुनि प्रादेशज सरसिलयं ।। ३६ ।। बोलि त सेठ्ठी कहि तो कज्जे, मी मंदिर छ दिव्य घणं । श्री रामसेन मुनिवर सुपधि करु धम्मं श्री जिनह तणं ॥ ४ ॥ ४० ॥ मिध्यात दूर दवडीय चापीय जिन धम्म नयर मम्मि | चुसठसि कुल रोपनि पतट्टीउ बहुरुपतीय जिनवर भवने तब मुनिवर चलति क्षणं ॥ पूछि तब सेट्ठी सीस पथ नामी कवण कज्ञ चलति तर ।। ४२ ॥ हविरेण धृष्ट कारण प्रति संभलि पडसि तुय नयरे पवरे ।
देव
बहुरुज ।। ५ ।। ४१ ।।
श्रीरामसेन मुनिवर इम बोलि जाउ उत्तर बापुरे ॥ ४ ॥ ४३ ॥ नरसिंहपुर नयर तजीयते तिथ पहूता ।
गामह नामि नाम ज्याति वाति रवितलि सुपचिता ॥ ४४ ॥ सत्तावीसह गोत्र तेण थिरु करि पदीय
नरसिंहराय गुण ताम जिए षम्मद्द प्रणीय १ ४५ || श्रीशांति नाथ सुपसाउ करि श्री रामसेन उवएस धरि ।
मंडलिदखीयर तपि । तां रिषि वृद्धि श्रावयह् रे ।। ५ ।। ४६ ।।
हवि बोली
हवि ते श्रीरामसेन देव सरगा गुण समुद्र नि पार पाम वा कुरा समर जिरिए श्री रामसेनि जिन भापणा ग्याननि बलि करी चित्त संदेह भांजो प्रत्यक्ष वृष्टांत वैषाली । चुठि सि कुलि मरसिंहपुर पाटण तेह तथा संपूरणं मिथ्यात्व कुलि का प्रतिबोध श्रावक नु धर्म लेवायु अनि श्रीरामसेनि बलो ज्ञाननिबलि धूल वृष्ट हती जाणी । उतरवादि समस्त धावक जनगारी नरसिंह पुरा सत्तावीस गोत्र संयुक्त न्यात थापी । तेह गुरुना मनंत गुण बोलतां पार न पामीद ||
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गुरुनामावली
हवि दूहा
रामसेन मुनि तिहां का चित्रकोट संपत्त । देश विदेशे जाती श्री गुरु केरी वच ।। १ ।। ४७ ।।
श्री रामसेन मुनिवर रिंग मेमिसेन मुनि तास ।
एक भरता पढिक मामि
सपता
दमासे || २ || ४८ ॥
मुझ वात |
बात ।। ३ ।। ४६ ।।
गुरु बोलि सम्यह प्रति संभलि तु तप करी काया पेंट से मूकी भरा नव गुरु वारणी संभली, मनि हूज गुरु वांदीति नीस, मूकी भरणवा बात ।। ४ ।। ५० ।।
उचाट |
जाजर नाम प्रसिध जे तेहना विषमा खोह | तिहा भावी मुनिवर रह्य मं की सघला मोह ।। ५ ।। ५१ ।। अन उदक सवि परिहरी, बिरु निजघरी ध्यान ।
जु विद्या दिइ सारदां तु मूकु
मान ।। ६ ।। ५२ ।।
मुनिराज ।
सात दिवस इसी परिगया, तप करत काया लागी सूकवा, तुहि न मूकि भाउ ।' ७ ।। ५३ ।। एक दिवस पद्मावती, मुनि उपरि जायंति 1
तव सरसत्ति साहामी मली, कैलासह प्रावति ॥ ॥ ५४ ॥ याक्ती सरसति प्रति वयराज बोलि ताम ।
ए मुनि काया पेटविरक्वहु सुंदरि कुरा काम ।। ६ ।। ५५ ।। पद्मावती अनि सरसती ते विहू तिहां संपत्त ।
माहाजमरति ।। १० ।। ५६ ।। करितु कट्टु |
तुझनि तु ।। ११ ।। ५७ ।।
उभी रही बोलावीउ मुनिवर तब मुनिवर सरसुभरि कां पद्मावती भनि सरसती असे सरसति तूठी प्रापीड, कास्त्र विद्या गवरणह गामनी पद्मावती सुविचार ।। १२ ।। ५८ ।। संपतु पर भात ।
तणु भंडार |
तु मुनि मणसण मूकी विद्या विहं विनूसीउ संर्भात तेहूनी बात ।। १३ ।। ५६ ।।
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प्राचार्य मो"कीति एवं ब्रह्म यशोषर
पथ बोली तबनंतर तिणि मुनिस्वरि तराफाल निसमि इसी प्रतिमानु उम्धार कोष, पंचतीर्थ दिन प्रति नमस्कार करवा । श्रोशत्रुजय । धौ रैवतकाचल । यो तु गेस्वर । श्रो पावागिरि । अनि श्री तारंगाचल । ए पंच तीर्यनी यात्रा कीया विना दिन प्रति पाहार नु नयम । पंच तीर्थनी यात्रा करी भी गुरुना चरण वोरवाणि कारणि चिरा कोटि पुहता । तदाकाल श्री गुरु अनुवंबना वेई समुम्ल गोलवा लागा ।
पथ पाथडी देस मझि मेवाः देश, भट्टपर पट्टण विशेस । तिहां वसि लोक मिश्यात पूर, घम्म पानासिज दूर ।। ६० ।। तू जाणूतो विद्या विशेष, परसमज तुझ नार सेष । सब नेमसेन बोलि विचार, मि करव स्वामी वयण सार ॥ ६ ॥ तिहाँ सहि गुरु चाल्यु करी प्रणाम, चित्तह पाठवीया एह काम ।। पट्ट पुर पट्टण मझारि, गया नेमसेन न लगि धार ।। ६२ ॥
मथ छंद नेमसेन मुनि नाहो पुतु भट्ट उर नयर मझमि । नय दीठ अवलोक विलोकह धरि बहुल मिथ्यात ॥ १।। ६३ ।। जरे बहुल मिथ्यात देषी मुरिषदो, महापाप तम नासधा एह पंदो । नीय न्यान पयोहोया तेण सबे, बी नेमसेनस्य बहु सक्ति तये ।। ६४ ।। जरे नाम भट्टउरा न्यात थापी, महापाप मिथ्यातनी देल मापी । पतिट्टीया तीथं युवीस प्रासाद माला, थीनेमसेनस्य कीति विशाला ॥६५॥ जरे जिगह त्रुवीस पपकमल भत्ता, तह कज्ज चउबीस गुतं संयुत्ता। भटे उरे विब चउनीस तिस्थइ, पतिट्टीया नेमसेनस्य इत्यइ ।६६। सजो गच्छ नंदीय नामि महावि, थी नेमसेनस्य गुरु पासि मावि । भावीसहि गुरूपासि भक्ति परणाम सुकिट्ठी ।। ६७ ।। पडिबोहीय ए ज्ञात अमर जस इणी परिलिको । भट्ट उर नामेण ताम भट्ट उर किया । पखंडावी मिथ्याच नेम श्रावकना
दिषा ॥ ६ ॥ जयवंता परीपण पत्त। श्री मादिनाथ सुपसाउ करि । श्री नेमसेन उपवेस तु थिर लछी श्री संघ परि ।। ६६ ।।
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गुमनामावली
बलोक
तस्य श्रीनेमसेनस्य पढ़ें ये मुनिपुगवाः । शेषां व्यावर्णनां कुर्वे भम्या श्रेण्यंति सादरा, ॥१ ||७||
पथ पायरी बंघ छंब भी रामसेन पट्टि सुजाण । श्री मेमसेन गाउ पमाण ॥ श्री नरेयसेन मामि पवित्त । वासबसेन मुनिमयणजित ।।७१। माहासेम मुनिवर सुजाण । भानिस्यसेन निज तेज भाण ॥ भी सहलकीश नामि प्रसिद्ध । भूतकीति मतिघणु कीतिलिद ॥७॥ भी वैनकीत्ति सोलमि पाटि । विहां मारसेन थाप्या पवार । श्री विनयकीति कितिहिं विशाल । चारित्त लीज पंचमिकानि ॥७३॥ केशवसेन लहूउ सुचंग । सहससेम मुनिवर अमंग । भी मेषसेन निर्मल सुगंग । कनकसेन राज्यु सुरंग ॥७४।। श्री विजयसेन सुपवित्त वित्त । हरसेन नामि महीयल परित्त ।। चारित्तसेम चारित्तचार । वीरसेन जिसौ बेगमार । कुलभूषण भूषणहसेन । तिममेर वदित्तो मेरसेन ॥७५ ।
अथ दूहाच शुभकरता मुनिवर हूट, सेन सुमंकर नाम । नयकोत्ति सुवर्णनु, चन्द्रसेन गुणधाम ॥१॥७६।। श्री सोमकीति गुरु पाए नमु, सहस्रकीत्ति सुविजाण । महकीति गुरुवर्णषु मयण मनाव्यु प्राण शा७७।। यसीति यस उजसु, जिम गयणंगरिण चन्द ॥ गुणकीति गुण बोलीह, घरी मणी परमाणद ।।३।।७।। पप्रकीति गुण योलता, किमिहि न भाविछेद । त्रिभुवनकीति मुनियर तरणउ, तपकरी निरमल देह ।।४।।७
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प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
श्री विमलकीर्ति नाम हूउ, मदनमति नमिराउ मेरुकीत्ति सहि गुरु तणे, मुरलर नमीया पाय ।।१५।।१०।।
प्रय बोली
हवि मितालिसिमि पाटि श्री गुणसेन इसि मामि माहा मुनिस्वर हूया । तुबिसा ते मनीस्वर । ध्याम नइ बलि रात्रि समि साधिराज प्रत्यक्ष पाई वाचा बोधी। तु किसो बाचा स्वामी संमसि । जव साहसीक मल्ल तु निहा ताहत वचन । ताहरू भनन । ताहरी पोछी बिहा फरिणे को साहरी प्रामा परि । तेहनि सप्पन विषदकर न याद । ए सहि जाणे । उते भुनिस्वरना ध्यागना विद्याना तपना इरयेवमादि अनेक श्रुण बोलतां सुर गुरु बृहस्पति प्राबिउ पार न पामा ।।
श्लोक रतकीर्ति तो जातो मुनिजंयसेनकः । बनककीनियातपट्टे भानुकोत्तिगुणोज्ज्वसः ।।१।। तनः संयमसेनारख्यो राजनीतिलघुस्मृतः ॥ विश्वन दिमुनीन्द्रोऽभूत् चारुकीर्तिस्य कीर्ति भाक् ।।२।।२।।
दहा
एकावमि पाटि जु विश्वसेन सुत्र ।। देवभूषभूषण सम ललसकीति संतु? ||१11८३:। श्रतमीलि जे पूरीउ, श्रुतकीर्ति मुनि राउ ।। जकिमयण हरावीउ,उदयसेन भरिवाज 11२||८४।। गुणगाहा रसि पूरीउ, श्री गुणदेव विसेष ।। विशाल कीति वादिकरी, जगति रहावीरेप ।।३।१६५।।
प्रथ बोली श्री अनंतकीति तुझ गुणसिमिपाटि । अनंत महिमा ।
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गुरु नामावली
अनंतगुण प्रनंतशील । अनंत तेज प्रादि गुण भरणेकमल्ल । जीतर भयण सल्ल । एवं विधि से मुनिस्वर हया । तेहनि पाटि श्री महसेन श्राचार्य बिठा । ती िमह्सेनाचार्थि वादिविटंबन | वादी गजांकुश | महावादी मस्तकाणून । मिध्यात्व कुरंदकुदाल । इसां विरक कहाव्यां । श्रनेक 'चनासमूह sit | प्रापणु नाम रहाब्यु तेना गुणावली प्रवेश प्रनंत प्रवृत्ति । प्रनि तेह गुरुनु नाम प्रभाति काल स्मरण मात्र अनेक सुषनुदात्ता प्रवृत्ति |
I
श्रद्ध पोटक
श्री विजयकीति निजकीति रसे। जिनसेन भाण्यु मया बसे । रविकीर्ति कीर्तितेजिय धणु । जिणिताद उतारयु मोह शु || १॥
श्लोक
चारुसेनकः ।।
श्रीकीत्ति भवकी ति भवांतकृत् ॥११॥ ८७ ॥ लोकको ति जगन्तुतः I मुनीन्द्रोऽपरकीतिक ॥२८॥
अश्वसेनगुणांभोभि
शुभवः शुभकीर्तिमव श्रीभावति कसे नामो श्रीमत्रिलोकीसिश्व
श्रथ दूहा
जयकीर्ति गुणरासि ।
श्री सुरसेन मुनिंद जय रामकीर्ति गुरुप्रणमता, जांइ से पातिक नासि || १॥ ८६ ॥ श्री उदयकीसि उदत्र भलि राजकीति गुरु जोइ ।
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कुमारसेन गुरण बोलतां पार न पानि कोइ ||२||६०॥ पूरव रिपि खलज घरण, पद्मकीत सुपसिद्ध । पद्मसेन पछि उ पद्मावतीवर
दि
।।३।। ६१ ।।
चोली
सेह श्री पद्मसेन पट्टोधरण संसारसमुद्र तारण तरण । सम्माचरण | पंचेन्द्रिय विलिकरण । एकासीमइपाटि
८३
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८४
प्राचार्य सोमकोति एवं ब्रह्म यशोधर श्री भुवनकोत्ति राउल उपना । पुजिभि श्री भवनकीतिक । द्वीलोनयर मध्य सुस्ताम श्री वा महिम वसाह सभातरि . प्रा विधान ला नि मार पायी असावी । भुसताण महिम वसाह संहथइ मान बोधु । तेहनयर मध्य पत्रासंबन बांधी पंचमिम्यात्व वाली वर राजसभा समस्त लोक विद्यमान औता । जिन धर्म प्राट को अमरजस इणी परिलीधु । प्रनितेह श्री गुरुतणि पाटि श्री भावसेम अनि श्री वासबसेन रूया । जे श्रीवासबसेन मालमलिन गात्र चारित्र पात्र निस्य पक्षीपवास । अनि सराध निसंयोग मासौपवास इसा तपस्वी इणि कालि हया न कोहसि । अनि तेहनि नामि तथा पीधीनि पशि समस्त कुष्टादिक व्याधि जाती । तेह गुरुना गुण केतला एक बोलीह । हवि भावसेन देव तगि पाटि श्री रत्मकीति उपग्ना ।
अथ छंच त्रिवसय
श्री नंदीतट गन्छे, पट्टे श्री भाइसेनस्प । नयसाषा शृंगारी, उपपन्नो रयणकीत्तीयो॥१।।२।। उपन रयगीति, सोहि निम्मलचित्त । हुउ विस्थात क्षिति । पति पवरो जीतु ।। जीतुरे गदनलि संक्यु न वाही छलि । बिनकर धम्मवली धुराधरो ॥३॥ आणि जाणि रे गोयम स्वामी। तम नासिजेहनामि ।। रह्य उत्तम ठामि मंडीयरण । छाड्यु र रे दुग्य क्रोध । अभिन५ ए ह योष । पंचे इंद्रीकीषु रोष एक क्षणं 1॥२॥१४॥ उद्धरण तेह पार । नरयनी भांची वाट । माडीला नवा प्रबाट विवह पार । प्राणि मारिण रे जेन माण । सर्व विद्या सणु जाण ।
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गुरुनामावली
प्राणि प्राणि रे जेनमाण । सर्व विद्या सणु जाण । नरवर वहि प्रारम । र गभरे । दीसिदीसिरे पति झ झार । हेमा माटि जीतुमार । घडीय न लागीबार । वरह गुरो। इणीपरिप्रतिसोहि । भवीयण मनमोहि । म्यान हम मारोहि । श्रीलष्मसेन पाएंव करो । ॥३॥६५॥
कहि कहि रे संसार मार । मजाणु सहा असार । अछि मति मसार। भेद करी । पूजु पूजु रे अरिहंत देव । सुरनर करि सेव । हविमलाउ घेव भावपरी । पालु पालु रे अहंसा घम्भ । मण्यनु लाधु अम्म । म कर कुत्सित कम्म । भवहवणे । तरु तर रे उत्तम जन । भवरम पाणु मनि । ध्या सर्वज्ञ धन । लमसेन गुरु एम भंग |६||
दीठि बोठि रे प्रति धार्णद । मिथ्यातना टालि कंद । गयण विहूण उच्चद । कुलाहि तिलु । जोई जोइ रे रयणी दीसि । सस्व पद लही कीशि । घरि मादेश शीसि । तेह भलु । तरि तरि रे संसार करसिज गुरु मूकिइ इ मोकलु कर दान भणी । 'छडि हि रे रखडीवाल । लेह बुद्धि विशाल । वाणीय प्रतिरसाल । लष्मसेन मुनिराज तणी [1।।६।।
श्री रयणकीत्ति गुरु पट्टि तरणि साउज्जल सपं । छडावी पाषंड पम्मि पारगि प्रारोपं । पाप ताप संताप मयण मछर मय टाले । क्षमायुक्त गुणराशि लोभ लीला करि गस । बोलिज पाणि पम्मी भग्गली साक्य जन धन चित्त दर ।
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प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
श्री लक्ष्मसेन मुनिवर सुगुरुयल संघ कल्याण कर ॥१६॥ ६८ ॥ ससुरण जगुल भंडार गुम्गहकरि जण मण रंजे । चडवि उवसम ह्यथर मयण महवाइ मंजे " रयणावर गंभीर पोर मन्दिर जिस सोहै ? लक्ष्मसेव दुइ पाट २६ विषण नौ । दीपंति तेज दणीयर जिसु मत्ती मण मारण हर । जयवंता चवय संघसु श्री धम्मंसेन मुनिवर पवर १६ पहिरवि सील सनाह तवह चरण कहिकलीय 1 क्षमा षडग करि धरवि गद्दीय भुजबल जय लखी । काम कोह मद मोह लोह श्रातु टालि । कट्ट संघ मृतिराउ म इणी परि प्रजुपालि ! श्री सम्मसेन पट्टोधरण पात्र पंक जे नरह नरिंदे बंदीइ श्री भीमसेन मुनिवर सही ॥१००॥ सुरगिरि गिरि को च पाच करि प्रति बलवती । कवि रणायर तीर पूहुत उय कोइ अामास पमाण इत्य करि गहि फर्मतौ कट्टसंघ संघ गुण परिलहि दुविह कोई लहतो । श्री मीमसेन पट्टह धरण गच्छ सरोमणि फुल तिली । जाणति सुजाणह जागा नर श्री सोमकीत्ति मुभलो ।। १०२ ।।
छिपि नहीं ।
तरंतौ ||
I
नरहसि अठार मास प्राषाढद्द जाणु 1 प्रक्कवार पंचमी बहुल षष्यह वषाणु
+
पुण्वाभद्द नक्षत्र श्री सोमीत्रि पुरवरि । सत्यासी वर पाट तणु प्रबंध जिरिए परि !| जिनवर सुपास भवन की श्री सोमकीति बहुभाव घरि । जयव ंत रवि तलि विस्तरू | श्री शांतिनाथ सुपसाउ करि ।। १०३ ।।
इति श्री गुरुनामावली
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रिषभनाय की धुलि प्रणमवि जिणवर पाउ तु, राउ तिह भवननुए । समरवि सरसिंत देवतु, सेवा सुर नर करिए । गाइ सु आदि जिणंद, पाणंद प्रति उपजिए । कौगल देश मझार तु, सुसार गुण प्रागलु ए ॥ १ ॥ नयर मनोध्याहां वास तु, प्रास जगि पूरविए । नाभि नरिंद सुरिद जिसु, सुरपुर बरीए । मुरा देवी तास अरषंगि सुर गिर भाजिसीए ।
राउ राणी सुखसेजि, सुहे जाइ नितु रमिए ।। २ ।। भाता की सेवा करना
इंद्र मादेश सुबेस प्रावीय सुर किन्यका ए। केवि सिर छत्र परति, करति केवि धूपरगाए। केविउ गट देव अंगि, सुचंगी पूजा घरणी ए । केविउ मर बहू अंगि, मामगीय पारण वहिए ॥ ३ ॥ केवि मयन अनि मासन, भोजन विधि करिए । केषि षडग वर्ग हाथि, सो साथइ नितु फिरिए । मुरा देवी भगति चि काजि, सु लाजन मनि धरिए । जू जूया करि सदि वेषतु, मा मन परिहरिए ।। ४ ॥ परभ सोष करि भाव तु, गाइ गुण जिन तणाए । बरसि प्रहठए कोडि करि, जोडि सोवण तणीए । दिन दिन नाभिनिबार, सो वारि वा दुःख धरणीए । एक दिवस मुरा देवी, सो सेवीइ अक्षरणीए । पुढीय सेजि समाधि, सु भपि कोइ पासणीए ॥ ५ ॥
अथ दाल मोनी मुरा देवी सोयगडां पेषि, विमुपन प्रण जिम देषि ।
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८८
प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
रयणीय पाछसि याम, देषीय जागिली ताम ।। १ ।। करीय शृंगार सु सार, भाषीय सभाह मझार ।
नाभि नरिंद पाए लागि, कर जोगी फल मागि ॥ २ ॥ सोलह स्वप्नो का फल
स्वामीय सुयगडां दीठा, दुःख सविही तूया प्रबीठा । उज्जल वणं सोभाऊ, पहिसि गयबर राऊ।। ३ ।। बीजि वृषभ ते गाजि, दीठि दासिट्र भाजि । वास सिंध से पीजि, सवल ऊपम गुण दीजि ॥४॥ चुधि लक्ष्मोर पाठी रयण, सिपासमान पंचमि पुष्प वी माला, ऊ गूधीय विवष विशाला ।। ५ ।। छठि चंद संपूरह, तिमर करि घण दूरह । सातमि सूर ते दीढ़, उदयाचल सिरे बीढ़ ।। ६ ।। मच्छ युगल संतु पाठमि, जल सिरिए झलकंतु । भुमि पूरण कुंभोउ, भक्तराउ प्रारंभो ॥ ७ ॥ सरवर जल भर्प सोहि, दशमि जनम मन मोहि । सायर लहर अपार, दीठा सपन ईग्यार ॥ ८ ॥ विष्टर भवन मझार, रयणमि सपन ते बार। तेरमि पमर विमान, रिपु सवे होया विमान ।। ६ चौदमि नागचावास, रंगि करिय विलास । पनरमि रमरण चापुंज, जाणे मेर नाकु ।। १०॥ सोलमि पग्नि अंगीठी, धूम रहित मिय दीठी। सोलि सपन विचार बोलि राउ ते सार ।। ११ ॥ तु उरि पुत्र ते होसि ज्ञानि त्रिभुवन पोसि । राणी मंदिरे पुहती दसह कुमारी संयुती । गर्म महोत्सव कीषु सुर मली दान बह दीषु ।। १२ ।।
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जन्म महोत्सव
रिषभनाथ की धूलि
अथ हाल श्रीजी
आउ हो पुत्र हौमा दश मास नाभि नरिदवी पूगीय प्रांस । जनम महोत्सव सुरपति आया । च विघ काय सुरासुर या
॥ १ ॥
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इन्द्र ऐरावण विसि पहूत । जय जय शब्द ले कर बहुत । सूत महिय इंद्राणीय जाई। मायामि बालक नयनोपाई ॥ २ । आरणीय बालक इन्द्रनि दीधु' । प्रणमीय सुरपति निज करि लीधु । गजपति बदसीनि सुरगिर जांइ । देव देवी जिनवर गुण गइ || ३ || पांडुक बन कंबल सिला नाम बिसार्या जिन करीय प्रणाम क्षीर समुद्र जल कुंभ भराव्या । सहस महोतर सुर वर लाया
11818
इंद्र इंद्राणीय करि अभिषेक श्राप प्रापरिण संग रचियां
विवेक । स्नान करावित्र सोल विभूषण भूव्या से जिनवर सहि जु
सुलक्षण ।। ५ ।
इन्द्र अंगूठि श्रमृत देइ । ज्ञानीय चर्म वदन नवि लेई । उत्सव अति घरिण भाव्या ते ग्राम सुर नर सज्जन हरषीया
ताम ।। ६ ।। प्राणी इन्द्राणीह माइनि प्राप्यु । नृषभ कुंबर वर नाम जु थाप्यु | नाचीय सुरपति पूजीया तात । ग्या निज मंदिर करता
ते बात ।। ७ ।।
वाघए कुमर ते नव नव रंगि । धनपति भगत करि बहु संगि योवन लक्षण गुए। करी मंड्यु । बाल पणुं जिन सहि जियां
छांड्यु | ८ ||
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प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
इन्द्रि कर्युय बीवाह अनोपम । नंदा सुनंदा दोह नारी
निरोपम । ज्ञान विज्ञान ते सबलायां दापि । प्रजाय लोक सवेत्तय अका
६॥ इणी परिभोगवि सौख्य प्रसंस ! पूरब बीत त्रियासीय लश । राम्य भावना
प्रपछर देषि वैरागिय वास्यु । भोग सौख्यनीया मूकीय प्रास ।। १०॥ स्थिति संसार प्रसार ते जाशी । चारित्र लेवानि निज मति ।
प्राणी ।। ३ ।। प्रप दाल थी लोकातिक सुर प्रादीपाए । तिहां जय जय शब्द बघावीयाए। मारणीय पालषि सुर घडीए । विहां रमण होरेय सोधण
जडीए ॥१॥ विसीय जिनवर संचर्याए ।
तिहा आणे संयमश्री वऱ्याए ।
समस्या
वह प्रिया गतलि जाई रह्या ए ।
तब लोयतया दुल अति सहा ए ।। २ ।। दिगम्बर त उच्चरथुए।
तिहाँ वीस सहन राए परिवरयु रे । बरस दिवस उपवास भए ।
तिहा हथणा उर पुरवर गउए ।। ४ ।। राउ यास बघावी ए।
तिहां प्रांजलि रसह घटादीउए । करम मिरी संधारीपाए।
तिहा दोष अठारह वारीयाए ।। ५ ।। संबोधि मुर नर वरुमे ।
समकित त्यसह घिर कझए ।
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रिषभनाथ की धूलि कंबल्य होना सहन वरस न्यान उपनुए।
___ समवसरण तिहाँ नीपुनुए ॥ ६ ॥ जिणवर जस प्रति महिमघ.ए।
तिहां जिण सासरा प्रति गहि गा ए । संबोधि सुर नर वरुये ।
समकित रयाह थिर करू ए ।। ७ ।। गिरि कैलासह स्थिति करीए ।
तिहां मुगति रमणि जिनवर बरीए । राज राणिम सवि सुख सहए।
श्री सोमको रति कहि दिउ बहू ए ॥ ८॥ घुल श्री ऋिषभनु गाइसिए ।
तहाँ चितत फल सहू पाइसिए ॥ ६ ॥
इति श्री रिषभनाथ धूल समाप्तः
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1.
लघु चिन्तामरिण पार्श्वनाथ जयमाल
तिहुवा चूडामणि जय चिंतामणि, भूषण कमल सरसय । नागद्दहमंडणू दुरियनिडणु, जय जय पास जिणेस || जय पास जिणेसर बीयराय, जय जय सयं सुर सामिव पाय । जय केवल किरण फुरंत देह, जय हिय मइ तुह वाणी प्रमोह | वाखारसि पयरिहि लद्ध कम्मु, पामावर पाचाथ पोम | धरनिदु सुवियसामि साल, तुव चला नमइ पणमंत काल । नंदन अश्वसेणु नरेसु राय, वम्मादे माई पुरवई ग्राम । मन वह्नित पूरण सञ्जु सुखु तुहु पाय मत जाइ दुहुँ । रिपुरि गिरि मंदिर मदुस रणिरावलि देवनि प्रदुभि । जलि यलि महियलि जे तुह संरति, तद्दु निश्चय दुरिय दुख यहुजंति । जे स्वामि तह गुरण असेस, तसु पाय पणासइ खास सासु जो दाहविजं चिय को हुति, जे तुह गंधोवहि खयहु जति । जे चलण स्वामि तु पय जुवंति, जे कर जे तुहु पूजा रचंति । जे नयगा धन्तु तुहु मुहू जुवंति सा जीहाज तुहु पय गुण थुनंति । जे श्रवणजि तुहु वाणी अमोघ जम्मणु तुहु हिवरे । जिहि दीठा हासद भयह पापु, जिहि घ्याया सीझइ मंतु जाप । जिहि यहि फिes भय रोग, यह पूरइ सग्गु पवग्गु भोज । हउ पास जिणेसर तराउ भिच्चु, दम भरणइ सोम सेवग्ग सज्ज । फल पदमु तासु मंदिर घरेण चितार्माण चित्यउ प्रभु देइ । जो कामधेनु तहि घरि दुइ, जे पासणाहुहियजद्र वरेड 1
घशा
तू मुव दिवायरु गुणरयणाय
मद्द मोह दुह खंडणू ।
तू तिहुव मंडण, भत्रहखंडण जय जय पास जिणेसरु | 2
गुटका संख्या - शास्त्र भण्डार श्री दिगम्बर जैन मंदिर सोनियों का (पार्श्वनाथ मन्दिर) जयपुर |
पृष्ठ 2-3
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कविवर सांगु
राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में कविवर सांगु की एक मात्र काव्य कृति "सुकोसलराय चुप" नंगचा के शास्त्र भण्डार के एक गुटके में संग्रहीत हैं । इसी गुटके में प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर की रचनाएं लिपिवद्ध हैं 1 गुटका प्राचीन है जिसका लिपिकाल संवत् १५६४ ज्येष्ठ सुदी १२ रविवार है । इस गुटके ने गुजरात एवं राजस्थान के कितने ही शस्त्र अप्ठारो की यात्रा की थी । संवत् १६४४ द्वितीय वेशाख सुदी १५ के दिन राजस्थान के प्रसिद्ध दुगं रणथम्भौर में इस गुटके पर टोका (सूची) लिखी गयी थी। इसके पश्चात् उसने कहां-कहां की यात्रा की थी इसका उल्लेख नहीं मिलता लेकिन वह रम्यम्भोर सेवा के शास्त्र भण्डार में पहुंचा और फिर जयपुर पहुंचा ।
सांगु का दूसरा नाम सांसु भी मिलता है । कवि कहां के थे किस भट्टारक के शिष्य थे। माता पिता स्त्री सन्तान श्रादि के बारे में भी कवि की कृति मौन ही है। लेकिन जिस गुटके में इनकी कृति संग्रहीत है उसकी अन्य कृतियों के आधार पर यह अवश्य कहा जा सकता है कि कवि राजस्थान के ही निवासी थे और श्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म मशोधर से इनका निकट का सम्बन्ध था । यद्यपि चुपई में कवि ने अपने नाम के उल्लेख के अतिरिक्त किसी दूसरे विद्वान् का नाम नहीं दिया है। लेकिन उन कवियों के साथ इनकी रचना का संग्रह होना ही इनके पारस्परिक सम्बन्ध को प्रकट करने वाला है ।
रचना काल
यद्यपि इस दृष्टि से भी "सुकोसलराय चुपई" में कोई उल्लेख नहीं मिलता लेकिन लिपिकाल के आधार पर इस कृति को हम संवत् १४४० के आसपास की रचना मान कर चलते हैं । इस कृति को एक पाण्डुलिपि देहली के एक शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है जिसका उल्लेख श्री कुन्दनलालजी ने किया है 11
काव्य परम्परा
सुकोसल का जीवन जैन जगत में पर्याप्त रूप से लोकप्रिय रहा है इस कथा का मूल स्रोत हरिषेण कृत "बृहत् कथाकोश २ के १२७ वें एवं १५२ वें
1. देखिये
2. वृहत्कथाकोष (सिंत्री जैन सीरिज बम्बई संस्करण १६४३) 3. बही पृष्ठ ३०५-३१४,
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प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
प्राध्यान में मिलना है लेकिन अपन शके महाकवि रइधू' ने सर्वप्रथम संवत् १४६६ में सुकौसल के जीवन को 'सुक्कोसल चरि" के नाम से खण्ड काव्य के रूप में प्रस्तुत करके उसकी लोकप्रियता में चार चांद लगाये। इस खण्ड काम में चार संधियां हैं जिनमें ५४ कडवक है। रइधु ने महागजा नाभिराम से कथानक का सम्बन्ध जोड़कर प्रपने चरित नायक को भी इण्यावशीय प्रादि तीर्थङ्कर ऋषभदेय वा वंशधर सिद्ध किया है। इसलिये लण्ड काव्य की प्रथम दो संघियों में ऋषभदेव का ही जीवन वृत्त दिया गया है। काश्य की शेष दो संधियों में सुकोसत मानीत काम कर ली में प्र; ना मन है ! इधू के समकालीन ब्रह्म जिनदास हुने जिन्होंने अनेक रास काव्यों की रचना करने का यश प्राप्त किया । ब्रह्म जिनदास के इस काव्य के एक पाण्युलिपि डूगरपुर के शास्त्र भण्डार में मुझे देखने का प्रबसर मिल चुका है।
ब्रह्म जिनदास के पश्चात् सांगु कवि ने सुकोसल जीवन कथा को अाकर्षक नंग से प्रस्तुत किया। उसे काव्य रूप प्रदान किया तथा सुकोसल को युद्ध भूमि में भेज कर तथा सभी देशों के राजामों पर विजयश्री दिलवा कर उसने जीवन को एक नया मोड़ दिया। उसने रइघु के समान प्रपने काव्य को महाराजा नाभिराम से प्रारम्भ कर दिया किन्तु मंगलाचरण के पश्चान् ही अयोध्या का वर्णन प्रारम्भ कर दिया तथा उसके राजा कीतिघर एवं रानी महिदेवी को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करके कथा को लम्बी नहीं की तथा साथ ही पाठकों को प्रारम्भ से ही सुकोसल ने जीवन कथा को सुनने की रुचि पैदा करने में सफलता प्राप्त की। यही नहीं काव्य के अन्त तक पाठकों की रुचि बनाये रखने में भी वह किसी अन्य कवि से पीछे नहीं रहना चाहता। सुकोसल का जन्म, शिक्षा-दीक्षा, युद्ध एवं विजय का विस्तृत वर्णन, विभिन्न विजित देशों के नामों का उल्लेख, विजय प्राप्ति के पश्चात् नगर प्रवेषा, प्रजाजनों द्वारा स्वागत, राज्य सुख, अकस्मात् बैराग्य होना, घोर तपश्चर्या, व्यानिनी द्वारा शीर भक्षण, कैवल्य एवं निर्वाण मादि घटनायें एक के बाद दूसरी जिस क्रम में प्राती है उससे पूरा काव्य ही रुचिकर बन गया है। काम्प का अध्ययन
कवि ने अपने इस चुपई काव्य में सभी वर्णनों को सजीव बनाने का प्रयास किया है । सर्वप्रथम वह अयोध्या नगरी' की महिमा एवं उसके निवासियों की रूमृद्धि का वर्णन करता है। वहां ऊंचे-ऊंचे महल हैं जो ऊंचाई में विन्ध्याचल के काल
।
विस्तृत परिचय के लिये डा. राजराम जैन का "घु साहित्य का पालोचनात्मक परिशीलन" देखिये ।
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कविधर सांगु
के समान लगते हैं। नगर के घरों पर गुडियां उछलती रहती है। यहां की कामनियां अपने प्रापका श्रृंगार करने में ही अस रहती है। घरों में मोतियों के र लगे रहते हैं जैसे मानों वे उसी नगर में पैदा होते हों। नगर के निवासी स्वर्ण दान बहुत करते हैं । वहां के प्रत्येक घर में वैभव बरसता है उनमें लक्ष्मी निवास करती है । यही वर्णन कवि के शब्दों में निम्न प्रकार है -
घिरि धिरि बन्ध्यापरि के कारण, घिरि घिरि राउत गुडि निसाण । धिरि घिरि नारी करि सिणगार, घिरि घिरि बंदी जय जयकार
घिरि घिरि सोबग दीजि घर्णा, चिरि घिरि नही मोती नीमणा । घिरि घिरि रयण प्रमूलइक जेहा घिरि घिरि नहीं लक्ष्मी नु छेड
।। ७ ।। सुकोमल का युग सात्विक युग था । विषय वासना, भोग विलास एवं खान-पान में रुचि आयु लने के साथ-साथ स्वत: कम हो जाया करती थी और राजा महाराजा भी अपना अन्तिम समय राज पाट त्याग कर साघु जीवन के रूप में व्यतीत करना चाहते थे । इसलिये राजा कीतिघर मे भी पपनी यही इच्छा व्यक्त की
धन योवननि जाषिम घणु, सहि जी शरीर नही आपणु । अह्म दीक्षा लेसु बनि जाई, पंच महावत पानु सही ।
भुगति तणा सुख जो ना काजि, तिणि कार्राण हूं मग राज ।।१४।। लेकिन तब तक कीतिधर पुत्र विहीन थे। इसलिये मंत्रियों एवं महाजनों ने पुत्र होने तक राज्य काज करते रहने की प्रार्थना की। राजा के मन में बात बैठ गयो और उन्होंने वैराग्य लेने के विचार को कुछ समय के लिये स्थगित कर दिया। रानी के गर्भवती होने के पश्चात् पुत्र जन्म का भेद खुल ही गया। फिर क्या था चारों और उल्लव प्रायोजित किये गये। मंगलगीत गाये गये । ब्राह्मणों को एवं याचकों को खून्य दान दिया गया। इसी की एक कनक कवि के शब्दों में देखिये -
नयर माहि गुडी उन्ली, रायतणी मनि पूगी रली।
वध्यामणि ब्रह्मरिंपनि दीष, जन्म लगि प्रधानक कीच । एक ओर पुत्र जन्म के उत्सव प्रायोजिन हो रहे थे तो दूसरी ओर राजा ने नवजात शिशु को राज्य भार सौप कर मुनि दीक्षा धारण कर ली। चारो मोर
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प्राचार्या सोमकीति एवं प्रा यशोधर
प्रसत्रता के स्थान पर हाहाकार मच गया। सबसे अधिक वेदना एवं दुःख राती को हुप्रा । वह रोने पीटने लगी और अपने मन के भाव निम्न प्रकार प्रकट करने लगी
माहिदेनी झूरि घण', होयडा आगिल बाल । रे रे कुथर सलख्यणा, किम नीगम सु काल ॥ २६ ॥ अंतेतुरक धंघलु', जभी मेल्ही प्रावि ।
ए कह पीडा कारणि, हषि हया निर नाथ |1 २७ ।। रानी को अपने पत्र के लिये पति विरह के दुःख को मुलाना पड़ा। वह पुत्र पालन एवं उसकी शिक्षा दीक्षा में लग गयी और पाठ वर्ष की प्रायु में ही उसे सब कलाओं में दक्ष बना दिया। उसका रूप निखर गया तथा उनके मनोज्ञ व्यक्तित्व को देख कर सभी ने उसे अपना राजा स्वीकार कर लिया ।
वरस पाठनु थउ जे जस्लि, सर्व क्रता सीस्यु ते तलि 1 सोवानी परि झलकि देह, सेवक सजन साहू नव नेह ।। ३२ ।।
सुकौसल बालक राजा थे इसलिये राज्य में दुश्मनों ने तोड़-फोड़ भारम्भ कर दी। प्रजा में खलबली मचने लगी। कौन अपनी जान जोखिम में डाल कर शत्रुओं का मुकाबला करे । लेकिन जब सुकौशल को उपद्रव की बात मालूम हुई तो उसने शत्रुषों को अच्छा सबक सिम्नाने का निश्चम किया । माता ने उसे बालक जान कर रोकना चाहा लेकिन मुकोसल ने माता से निम्न शब्दों में अपना दृढ़ निश्चय व्यक्त किया-..
कु'यर कहि तु सलि मात, पिमुण तणी छि थोड़ी बात ।
भाजि नयर देश लूटीइ, शूशी पिठा किम छुटी६ ।। ३६ ।। सुकोसल ने युद्ध की पूरी तैयारी की। सेना को सब शास्त्रों में सज्जित किया गया। हाथी, घोड़ा, पदाति, रथ आदि की सेना तैयार की। इसके पूर्व सब राजाओं को सन्देश भेजे गये जिनमें उन्हें मुकोसल की अधीनता स्वीकार करने के लिये कहा गया । लड़ाई के बाजे बजने लगे । मुकोसल स्वयं रथ में बैठे तथा पैदल सेना को सबसे आगे रखा गया। समुद्र के समान उसकी सेना दिखाई देने लगी । इतनी धूल उड़ी की सूर्य का दिखना बन्द हो गया।
घड्यां कटक जिस सायर पूर, खेहा रवि नवि सूझि सूर ।
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कविवर सांग सूकासल यद्यपि प्रायु में बहुत छोटा था लेकिन उसकी वीरता, साहस एवं पराक्रम देखते ही बनता था। उसकी सेना प्रत्यधिक दक्ष एवं संगठित थी तथा शत्रु सेना को परास्त करने में सक्षम थी इसलिये अधिकांश राजा महाराजा बिना युद्ध के ही अपनी पराजय मान कर सुरिल की शरण में ले भोर यथोचित दण्ड देकर उसकी पराधीनता स्वीकार करली । बह अपनी सेना के साथ गुजरात, सौराष्ट्र, कोंकरण, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि सभी प्रदेशों को रोदता हुमा उन पर विजय पताका फहरायी।
गूजर सोरठ प्राणि लीध, नयीयाडा बंदर विसकीध। भांजि तरुपर पाडि बार, साध्यु कुकणन करणाट ।। ५८ ।। लाड़ देश मरहठ मलहार, साध्या कन्नड तिणि वार । कुडलपुर नु कहीइ पीस, पापी सावए नामी शीस ।। ५६ ।।
सुकीसल राजस्थान के मेवाड़ एवं मारवाह भी गये तथा हस्तिनापुर एवं मुलतान भी गये । वे गौड देश एवं खुरासारण भी गये और वहां के सभी राजापों को सहज ही वश में कर लिया। जिसने भी उसका मार्ग रोकना चाहा उसी को बन्दी बना लिया गया।
मेदपाट मुरकु मुलतारण, खांडा बाले माघ्यु खुरसाण । मरुस्थली बहुली बहु जाण, गौड चौड़गा जणु बखाण ।।
वृथा डर सु साध्या देश, पोयणपुर कीधु परवेश ।। ६३ ।। इस प्रकार सुकौसल ने पारों दिवानों को जीत लिये । सब जगह उसकी प्राज्ञा मानी जाने लगी। उसे अनगिनत लक्ष्मी, सम्पदा एवं सम्पत्ति प्राप्त हुई। हाथी, घोड़ा प्रादि की लो संख्या ही नहीं थी। कितनी ही राजकुमारियों से भी उसने विवाह कर लिया ।
राह देश सब साघिया उत्तर दिक्षण जाणि । पूरब पश्चिम साधिया, चिहु दिशि वरती आणि ।। ६६ ।।
लक्ष्मी प्राणी लक्ष गणी, धन करण कंचणसार । परणी प्रलीयल पपणी, हय गय रयण मंडार ।। ७० ।।
सुकौसल अयोध्या भाकर सानन्द राग्य करने लगा। चारों ओर सुख
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प्राचार्य सोमकोति एवं ब्रह्म यशोधर
शान्ति भो । प्रजाजनों को अपार सुख था । नगर में कहीं कोई दुःखी एवं निर्धन नहीं दिखता था।
सुकौसल की रानियां भी क्या थी सौन्दर्य एवं लावण्य की मानों प्रतिमूर्ति ही थी । के विभिन्न प्रकार के शृंगार करती और अपने प्रियतग का मन प्रसन्न करने का उपक्रम करती । कभी ये काले वस्त्र पहिनती, कभी पीले कभी केसरियां रंग के और कभी दूसरे रंग के । वस्त्रों का पूरा मैचिंग रहता। से ही प्राभूषण, एवं वैसा ही रंग सभी मिल कर इतनी अधिक सुन्दर लगती कि उनका सौन्दर्य देखते ही बनता था।
पीला सोवरण सोहती ए, पीली चूडी नाहि तू । पीली झालि झलामलीए पीला केर त्यहि तु ॥ उजल झंझार झलफत्ती ए, उजल रयण प्रपार तु ।
उजल दरपण नरपती ए, उजल मोतीय हार तु। इस प्रकार अपार सुख सम्पति को भोगते हुए पर्याप्त समय निकल गया। समय को जाते हुये देर नहीं लगती । पुण्य की महिमा को कौन नहीं जानता | पुण्य से ही मश, कीसि, धन सम्पत्ति तो मिलती है।
पुन्मि कीरति उजली, पुगिय जम मंडार ।
पुणिइ पिसुण पीडि नाही, पुण्य पृथ्वी माहि सार ।। सुकोसल के लिये १६ वें वर्ष में राज्य सम्पदा त्याग कर वैराग्य लेने की भविष्यवाणी यी । इसलिये राजमाता ने नगर में साधु मात्र के लिये प्रवेश बन्द कर दिया था। कुछ समय पश्चात् मुनि कीसिवा प्राये लेकिन वे भी नगर प्रवेश नहीं पा सके । राजमाता सहिदेवी का हृदय मात्सर्य से भर गया। लेकिन जब सुकौसल को यह बात मालूम हुई तो शीघ्र ही नगर के बाहर गये और मुनि महाराज को विनय सहित नगर में लाने का निश्चय किया। सुकोसल ने वहाँ जाकर निम्न प्रकार निवेदन किया
जई सकोसल नामि मोस, तम्हे कहि उपरि पाणु रसि 1 काया कष्ट करुवां घणु, राज रिधि सहूइ तम्ह तणु । माहारि नहीं संसारि काज, तिरिय कारणि मि छोड्युराज ।
1. प्रजा सहू सुख भोगत्रि सा• दुखीय न दीसइ कोछ ।
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कविवर सांग
सुकौसल ने भी वैराग्य लेने का निश्चय कर लिया। उसके वैराग्य लेने को मुचना लत्काल चारों पोर फैल गयी। नगर में हाहाकार मच गया। जिसने मुना वहीं रोने बिलखने लगा। रानियों के विलाप का हृदयविदारक दृश्य था। कवि ने इन सबका पन्छा एवं प्रभावोत्पादक वर्णन क्रिया है
एक झूरि एक करि विलाप, एक कहि इम लांगु पाप । हा हा कर्रानि कटि होउ, भाज अंसेउर सुनु थऊ । एक अबला साखि सिणगार, एक तोडी नवसर हार ।
धीर दोर एक भाजि वाली एके घरणि पड़ी टल बाली । सुकौसल के वैराग्य लेने के पश्चात सारा घर ही चौपट हो गया। राजमाता महिदेवी बुरी तरह विलाप करने लगी पोर महल से गिरकर प्रात्मघात कर लिया । वह प्रात्तध्यान से भरने के कारण अगले जन्म में व्याघ्रिणी बनी।
इस प्रकार पूरा काच्य विभिन्न वर्णनों से प्रोतप्रोत है। सभी वर्णन स्वाभाविक है । मगर वन, सकोसल जन्म, शिक्षा-दीक्षा, शत्रु देशों पर आक्रमण एवं उनमें विजय, सौन्दर्य वर्णन, विषय दु ख वर्णन, विरह वर्सन, तपस्या वर्णन, परिषह वर्णन, आदि सभी वर्णन एक से एक निखरे हुये हैं । कदि ने उनमें जीवन पता है इसलिये व सभी सजीव बन गये हैं।
सकौसल यद्यपि राजकुमार थे । दुःख को कभी जाना ही नहीं था। लेकिन जब तपस्या करने लगे तो गर्मी, सर्वी एवं वर्षा की भीषणता की जरा भी परवाह नहीं की । भाद्रपद मास में डांस एवं मच्छर भयंकर रूप में सताते सेकिन वे तो प्रात्मध्यान में रहते । सर्दियों में जब कण्ड से सारा शरीर कांपता था तब भी वे एकानचित्त होकर नदी किनारे ध्यान करते रहते । गर्मियों में दोपहर की वेला, तपती हुई शिलाएं और तेज धूप सभी तो एक से एक बन कर ध्यान में बाधक थे। फषि ने इन सभी का अपने लघु काव्य में अच्छा वर्णन किया है
ताती बेलू तपती सिला, ते उपरि तप सापि भला ।
माथा उपरि सूरज तपि, निभर फर्म घणेरा खपि ॥ एक ओर वह व्याघिणी सुकौसल के शारीर को खाने लगी। दूसरी पोर सुकौसल मुनि प्रात्म ध्यान में इतने लीन हो गये कि शारीरिक कष्ट का उन्हें भान हो नहीं हमा। भोर ये कर्मी की निर्जरा करने लगे। प्रशारह दोषों से रहित होकर पांच महावतों का पालन करने लगे ।
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प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर कर्म टालि टालि प्रतिहि सुजाण मटवी मांहि एकलु मन माहि मातम ध्यान माणि । परमानन्द सेवि सवा जाणि धर्म विचार 1
बिहि मुनिवर प्रति सूपडा हवि लेंसू भव पार व्याधिणी द्वारा भयंकर आक्रमण का एक वर्णन देखिये
वाविणी घर हरि सिरिण अंबर परहरि पीडा न जाणिए ना तरतएगीए। एह पापिणी पीड न जारिण मडला एहनां करणी
पुछउ लाली उची उडि थर भर धूजी घर रखी । छन्व—प्रस्तुत काव्य में चौपई एवं दोहा छन्द की प्रमुखता है लेकिन अन्य छन्दों में द्वाल हीडोलानी, बस्तुबन्ध छन्द का भी प्रयोग हमा है। पूरा काव्य गेय काव्य है जो गाया जाकर जन मानस में सुकौसल के प्रति श्रद्धा के भाव उडेलता है।
भाषा--भाषा की दृष्टि से काव्य राजस्थानी भाषा का काव्य है। मांगु, लांगु, धिरि धिरि सिगार, आपणु, जनप्यु सुबू जैसे किया. पदों एवं अन्य शब्दों का प्रयोग बहुतायत से हुआ है। सांगु कवि का यद्यपि गुजरात से सम्बन्ध था लेकिन मुजराती भाषा का प्रयोग नहीं के बराबर हुया है। फिर भी कहीं कहीं क्लिष्ट शब्द भी प्रयोग हुमा है उससे यह काव्य सामान्य पाठकों के पल्ले नहीं पड़ता। नगरों का वर्णन
भयोध्या के विशेष वर्णन के साथ २ अपने इस काध्य में कितने ही प्रदेशों एवं नगरों का उल्लेख किया है। इससे काव्य के प्रति प्राकर्षरण सहज ही बढ़ गया है । गोपाचल (ग्वालियर) उज्जयिनी, गुर्जर देश, सौरठ (सौराष्ट्र) कोंकण, लाड, मरहरु (महाराष्ट्र), कन्नड (कर्नाटक) मेदणाट (मेवार) मुलतान, खुरासाण, मरुस्थली (मारवा}, हथणाउर (हस्तिनापुर) पोयणपुर (पोदनपुर), चम्पापुर, पाधापुर, अंगदेश, बंगदेश, मगध, चीरा (चीन) पंचाल, राजगृही, प्रादि के नाम उल्लेखनीय है।
___ समाज वर्णन-सुकौसल चुप में सामाजिकता वर्णन के प्रसंग बहुत कम माये हैं । पुत्र जन्म, प्रावि के अतिरिक्त कोई विशेष वर्णन नहीं मिलते । लेकिन
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कविवर सांगु
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राजा भी राजपाट छोड़ कर साधु जीवन ग्रहण कर लेते थे तथा कभी-कभी छोटी अवस्था में भी ये मुनि जीवन अपना लेते थे। साधुमों का समाज पर विशेष प्रभाव था।
इस प्रकार ‘सुकोसल चुपई' हिन्दी के मादिकाल को एक उत्तम कृति है। जिसके प्रचार प्रसार को पावश्यकता है। काव्य की पूरी कषा का सार निम्न प्रकार है।
कथा
इस पृथ्वीतल पर असंख्यात द्वीप हैं। उनमें जम्बूद्वीप सबके मध्य में स्थित है। उसी जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र है जिसकी विशेष महिमा है। उसमें अयोध्या नगर है जहाँ दान पुण्य होता रहता है। धनिक लोगों की जहाँ घनी बस्ती है 1 गरीब तो कहीं दिखता ही नहीं। नगर में चौरासी चौपड हैं तथा दुकानों की तो संख्या करना भी कठिन है। नगर की पूरी लम्बाई-चौड़ाई १२ योजन प्रमाण है । यहाँ कं धे गकान थे जिन पर ध्वजाए फहराती रहती थी। महलों में बैठी रमणियां गार करती रहती थी : जिनमें समय 5 राशि संग्रहीत थी। नगर उद्यान, सरोबरों से युक्त था तथा जिसमें पनेक महल थे।
इसी अयोध्या नगरी में 'कीतिधवल' राजा सपरिवार राज्य करता था। उसकी रानी महिदेवी थी जो सुन्दरता की खान धी। एक दिन कीतिधवल के मन में जगत से वैराग्य हो गया तथा उसने मुनि दीक्षा लेने का भाव प्रकट किया। उसने अगने मन्त्रिमण्डल के सदस्यों को बुलाया और दीक्षा लेने के विचार उनके सामने रखे । वे उस समय तक पुत्रहीन थे इसलिये प्रधानमन्त्री ने उनसे पुत्रोत्पत्ति तक वैराग्य नहीं लेने के लिये निवेदन किया। क्योंकि पुत्र के प्रभाव में मारा राज्य ही समाप्त हो जावेगा । कुछ समय के पश्चात् रानी गर्भवती हो गयी। रानी ने पुत्र जन्म दिया तथा उसका नाम सुकोसल रखा गया । बालक को छिपाकर रखा गया जिससे राजा को पता नहीं चल सके । एक बार सरोवर पर बालक के वस्त्र धोने गयी थी तभी बात ही बात में एक ब्राह्मण से दायी ने कह दिया कि रानी सुकौसल को पाल रही है। ब्राह्मण के मन में बात कब रुकने वाली थी। उसने तत्काल राजा से पुत्र होने की बात जाकर कह दी।
सारे नगर में पुत्रोत्सव मनाया गया । गुड़ी उछाली गयी । राजा ने ब्राह्मणों को सूब दान दिया । यारकों को वस्त्राभूषण से तृप्त कर दिया। रानी महिदेवी राजमहल में गयी। राजा ने बालक को गोद में लिया । उसे खिलाया, पालना झुलाया तथा प्रजा की पालना करना ऐसा कहा और उसका राजतिलक कर के राजभवन से चल दिया। राजा के इस प्राचरण से नगर में हाहाकार मच गया ।
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आचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
रानी महिदेवी के दुःस का ठिकाना ही नहीं रहा। वह जिला करने लगी कि फिस प्रकार राजा के बिना उसका जीवन कैसे व्यतीत होगा । वह पति होते हुये भी अनाथ हो गयी ।
जैसे तैसे करके रानी ने अपना मन लगाया । पुत्र का पालन होने लगा । आठ वर्ष का होने पर उसने सभी कलाओं को सीख लिया। कुछ दुष्ट राजाश्रों ने जब उसके राज्य में लूटमार प्रारम्भ की तो सुकौरान बालक होने पर भी लड़ने को तैयार हो गया। माता ने उसे बहुत मना किया। लेकिन सुकील ने एक नहीं मानी । उसने सभी मित्र राजानों को पत्र लिखा। घोर सेना एकत्रित करके युद्ध के लिये प्रस्थान कर दिया। चतुरंगिनी सेना तैयार हो गयी घुडसवार, रथ सवार, प्रादि योद्धा तैयार होकर चलने लगे। ढोल ढमाके बजने लगे । संख फूक दिया गया । एक रथ में स्वयं राजा बैठे। उसके साथ ही अन्य वाद्य यन्त्रों के साथ शहनाई बजने लगी ।
राजा सुकोसल अपनी सेना के साथ सर्व प्रथम मथुरा नगरी पहुंचा। वहाँ हाहाकार मच गया। यमुनापुरी को नष्ट कर दिया गया। उसके पश्चात् अयोध्या नगरी आये। वहाँ से गंगा किनारे पर आकर पड़ाब डाला । गोपाचल के राजा से दंड लेकर छोड़ दिया गया। इसी तरह उज्जैन नगरी के मामले में भी दण्ड स्वरूप उसे अपने में मिला लिया । चारों ओर सुकौशल की जय जयकार होने लगी। कोई अपनी कन्या देकर कोई हाथ पैर जोड़कर अपनी जान बचाने लगे । इसके पश्चाद गुजरात, सौराष्ट्र, कटक, लाडदेश, महाराष्ट्र, काशी देशों पर विजय प्राप्त की । विधाधरों के साथ उसने लंका पर विजय प्राप्त की ।
कौसल का वाट (मेवाड मुलतान, हस्तिनापुर, पोदनपुर, पाटलीपुत्र, श्रादि नगरों में जोरदार स्वागत हृभा । अष्टापद (कैलाश) के थालयों की उसने चन्दना की इसके अतिरिक्त अंगदेश, बंगाल, मगध, पंचाल, राजगृही नगरी के राजाओं से दण्ड लेकर उन्हें छोड़ा गया। इस प्रकार चारों दिशाओं में अपूर्व विजय प्राप्त करके पचनी रानी से विवाह करके, हाथी, घोड़े, सेना के साथ मुकौसल ने नगर में प्रवेश क्रिया । राजा के स्थान पर तोरण द्वार समाये गये, मंगल गीत गाये गये। करके पुत्र को गले लगाया ।
रत्नभण्डार एवं विशाल
स्वागत के लिये स्थानमहिदेवी माता ने दौड़
राजा सुकौसल श्रानन्दपूर्वक राज्य करने लगे । तथा उसकी रानियां राजा को अपने विभिन्न हाव भावसार आदि से प्रसन्न रखने लगी। एकएक बरस व्यतीत होने लगा । सोलहवें वर्ष के प्रासे ही माता ने अपने रक्षकों स
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कविवर सांगु
१०३ कहा कि यदि कोई माधु नगर में प्राता हुप्रा दिखलाई पड़े तो उसे नगर में प्रवेश नहीं मिलना चाहिए।
कुछ समय पश्चात् कीतिधवल मुनि उधर प्राये। नगर के बाहर ठहर गये । मुनि के शरीर पर घाव का चिह्न देखकर महिनेत्री ने उसे पहिवान लिया वह रोने लगी। सुकौसल राजा ने इस बात को सुन लिया। अपने पिता मुनि को पाहार न मिलने की बात से उसे और भी दुख हमा। और वह भी दुखित मन से वहीं चला गया जहां मुनि बैठे हुए थे। सुकौसल ने वन्दना की तथा मुनि से उपदेश सुना । और स्वयं ने वैराग्य लेने की घोषणा कर दी। अपने प्रिय पुत्र के वैराग्य लेने के समाचार से उसकी माता को प्रत्यधिक पीडा एवं संताप हमा मौर परिणामों की संक्लेशता के कारण वह मर कर ध्यानि योनि में उत्पन्न हुई।
सुकौसल मुनि तपस्या करने लगे । ग्रीष्म ऋतु में पहाड़ की शिला पर, वर्षाऋतु में गिरिकन्दरा में, शीत ऋतु में बर्फ पर उन्हें प्रात्मध्यान करने में बड़ी प्रसन्नता होती । बारह भावनाप्नों का वे निरन्तर मनन करते, मार्तध्यान एवं रौद्रध्यान का उन्होंने सर्वथा परित्याग कर दिया, अठारह दोषों से वे रहित होने लगे। चारों काषायों को छोड़ दिया, पाठ प्रकार के मदों का त्याग कर दिया, बारीस प्रकार की परिषहों एवं पन्द्रह प्रकार के प्रमादों से वे मुक्त हो गये । इस प्रकार की अवस्था को प्राप्त होने पर जब वे एक दिन तपस्या में लीन थे वह ध्यानी घूमती हुई उधर मा निकली वह भूखी थी इसलिये उसने तपस्या में लीन मुनि के एक-एक प्रग को खा लिया । लेकिन मुनि का ध्यान भी सर्वोच्च था । वे जरा भी विचलित नहीं हुए और तेरहवें गुणस्थान में पहुँच गये। उन्हें कैवल्य हो गया और तत्काल मुक्ति पद को प्राप्त किया तथा जन्म मरण, सुख दुःख से सदा के लिये मुक्ति हो गये।
क्यानिनी ने शरीर को खाने के पश्चान जब उसने अंगों के निशान देने पांव के नीचे का कमल विह्न देखा तो उसको पूर्व भव का भान हो पाया। यह स्नेह बिडल होकर रोने लगी। एक मुनि के उपदेश से उसने जीव हिंसा न करने का निश्चम ले लिया और अनशन करके देह त्याग दिया और स्वर्ग प्राप्त किया ।
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सुकोसल राय चुपई
जिन मुख्य वाणी २ मनि धरेस ।
पा लागी पूजा र सदा सिद्धि समत्ति माशुं ।
कर जोडी सांगु कहि सदगुरु सेव कुपर सकोसल चुपही हूं संख्येप
अनुकंपा करु श्रह्म तरणी देवाध्यदेव ता लगि लागु । कर्योस | भण्योस || १ |
चूहा
भारत मदसु
जाति
सरिस सवि काम ।। १ ।।
सांगु केहि मनमा हरि जिम भूत भाव्य सअनि बसमान सिद्ध अरिहंत मर्या भरीया तेहुनि करू प्रणाम ।। २ ।।
साधु जेह नाम |
चपई
अवनी दीप प्रसंख्या जाए, ते मध्य जंबूदीप प्रमाण |
प्रभव नहीं तिहां कोही तथा ।। ४ श सेरी छाट तणु नही पार ।
P
भरत क्षेत्र जे नामि सुणु, तेह तणु महिमा प्रति घणु ॥ ३ ॥ तेह मध्य नयर अयोध्या एक, दान पुण्यनु लहि वदेक । धनवंत लोक दोसि प्रति पक्षा, चउरासी बहुटा प्रतिसार, जोया चार से किरतु बसि तिरिण दीठि नर हीयडु हसि ॥ ५ ॥ घिरि घरि बंध्यारिके काण, विरि घिरि राउत गुष्टि मीरा! | घिरि घरि नारी करि सिणगार, थिरि घिरि बंदी जय जयकार ॥६॥ घिरि घरि सो दीजि घर्णा, घिरि घरि ती मोती नोमरणा । घिरि घरि रगा अभूलइक जेह, घिरि घिरि नहीं लक्ष्मी नु छेह ||७|| वाणि सरोवर लागु याद ठामि यामि दोसि प्रसाद | झालिर ढोल कंसाला गुडि, कविता कहि मुखि जिल्ला एक, नयर तणु किम कहुं विवेक | ए ऊपम फिम जाइ कही, जोतां जमलपुरी का नहीं || ६ ||
नित परमेसर पूजा चेदि ।। ८ ।।
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सुकोसलराय चुपई .
१०५
दूहा अजोध्या नयरी अति भली, उत्तम कहीइ ठाम । राज करि परिवार सु', कौत्ति धवल तस नाम ।। १० ।। तस परि राणी रूयडी, रूपवंत सुवसेष । सहिदेवी नामि सुण, भक्ति भरतार विवेक ।। ११॥ एक दिवस मनि चीतवि, मन माहि आण्यं ध्यान । विषय तणां सुष परिहरी, साधि भुगति निधान ।। १२ ।
घुपई राइ प्रधान ते डाव्या सही। राज तणी सोषामरिण नाही।। धन योयननि जोषिम घणु । साहिजि शरीर नहीं प्रापणु ॥ १३ ।। ब्रह्म दीक्षा लेस बनि जाई। पंच महावत पार्नु सही ।। मुगति तणां सुख जोवा काजि। तिरिय कारण हूँ मेल्हुँ राज ।। १४ ॥ कहि प्रधान सुणु चीनती । पुत्र बिना किम थासु यती ।। राज भार सुतनि संभालि । पछि महाव्रत निश्चल पालि ॥ १५ ॥ पर धानि राजा प्रीव्यु । नयर मोहि उछल नव नवु ॥ सहिदेवी प्रभ धरित जिसि । राय मंदिर थी टाली तिसि ।। १६ ।। राइ कहि राणी किहाँ गई। ज्याष विणेषि विह्वल थई । इणि भोलावि राख्यु भूप । जु सुत जन्म्यु असंभम रूप ।। १७ ।। सहिदेवी सुत जन्म्यु जेह । दीघु नाम सकोशल तेह ।।
आपरिण मंदिरि छानां बिहि । उग्यु सूर न ढांक्यु रहि ।। १ ।। कुयण तणां अंबर जे वली। दनि लेई महिलीनी कली ।। मजडि रान सरोवर जेह । तिहां जाई वस्त्र पपालि तेह ॥ १६ ।। ते सरपालि ब्राह्मण अछि । तिणि वटंतर पूछ्यू पछि ।। ऊर्जाड रानि भाबि सा भणी । तेविमासरण छि मुझ घरणी ।। २० ॥ दासि कहि सुणि ब्राह्मण बात | कुयर सकोशल पालि माति ।। जु सुत जन्म्यु जागि राउ तु तप लेईनि वन माहि जाइ ।। २१ ॥ ति रिण अबसरि ब्राह्मण वलकल्यु ! लेई भेट राजानि मल्यु ।। तोहारि सुत जन्म्यु संसारि । प्रणि महोछवि दान दे वारि ।। २२ ॥
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प्राचार्य सोमकोति एवं ब्रह्म यशोधर नयर माहि गूडी उछली। रायसरणी मनि पूगी रली ॥ बघा मणी ब्राह्मणनि वीध ! जन्म लगि प्रयाच कोष ।। २३ ।। सहिदेवी राइ मंदिर गट । जाई कुगर उचेलि लीउ । खोलि लेई हूलरावि बाल । तु करणे परजा प्रतिपाल ।। २४ ।। तिलक करी राजा संचयु । हाहाकार मयर माहि धऊ ।। राजभार लेई सुप्यु पारन । नीधी दीख्या परजा पालि ॥ २५ ।। प्रास्या बेस होती ब्रह्म सरणी । ते छेदी वनि वाल्यु घणी।। सहिदेवी दुख प्राणि घणु । पूरब पुण्य नही ब्रह्म तणु ॥ २६ ॥
साहियेषी झरि घशु', होयडा प्रागिन्न बाल । रे रे कुबर समस्यणा, किम नौगमसु काल ।। २७ ।। प्रसउरक धंधतु, ऊमी मेल्ही माथि । एकह प्रीयडा काररिश, हरि हा निरमाथ ॥ २८ ।। संबम सेनाः बिरया; का तात्र शिप राज । महल्यु मोह मही सणु, मुगति सणां फल काजि ॥ २६ ।। पवक श्रेई गलि बंपीउ, कुंथर विसारयू पारि । मागिए कुल उजलु, सुदा सुमारग वाटि ॥ ३० ।।
सुकोसल की शिक्षा बीमा
पुत्र प्रशंसा माता करि 1 नहाल राडा हरषि उरि । मापरिण पारादि बेलि बाल । ते देवी वीसरयु भूपाल ॥ ३१ ॥ बरस पाठन था तलि । सर्व कला सीन्यू ते तलि । सोवनी परिभाकि देह । सेवक सजन सह नव नेह ।। ३२ ।। राय तणी छिल धुनीवेश । दुर्जन मिली विणासि देश । राय मागिल को न कहि इसि । असन भणी होउं छोडसि ॥ ३३ ॥ शस्त्र सणुए न लहि सम । अझ तणुचि दारुण कर्म । सेवक बात करि सवि मली। तितलि नपकाने सांभली ॥ ३४ !!
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सुकोसल राय चुपई राइ सकोशल बोलि इसु । पिसुण ममी मुझ कसि किसु। मछरचड्यु नोलि तीणी वार । पिसुरण सवे मना हार ।। ३५ ।। इसु बाली राजा संचसु । तब सहिदेवी बांति पर्यु । तु लघुवेसी नाहं बाल । फाटक समा किम मलसु ताल ।। ३६ ।। कुयर कहित संभाल मात । पिसुण तरणी छि थोडी बात । भाजि नयर देश लूटीई। पूणी पिठी किम जटीइ ।। ३७ ।।
रोड प्रधान तेडावीया, राम राणा सहू तेड 1 दुर्जन प्राच्या तुकडा, हवि न कीजि जेड ।। ३ ।। चीठी चाली चिहूं दिशि, कहि सकोशल पीर । मासा प्राणि अा तणी, ले रहीमषीमुनीर ।। ३१ ॥ धाजित्री बहतेहीमा, देवाही रणभेर। सवल ही राजा तणु, जारणे प्रचल गिरि मेर ॥ ४० ॥ प्रस्थानु परगट कर्स, निपुष्ठि दीधु गाम । राइ सकोशल इम कहि, फेडु दुर्जन ठाम ।। ४१ ।।
सुकोसल द्वारा विभिन्न देशों पर विजय
राजा सीषम साहारगी कही । सार तुरंगम छोडु सही । कर 'डाक्या हाका नील किसोर गंगा जल बहू हीया छोड ।। ४२ ।। पवन वेगी पीलाधितुरी। पाणी पंथा महंडा हरी। कलषा कन्नर कबल देह । होसारव जिम गाजि मेह ।। ४३ ।। तुरी पलाणीच्या प्रसवार। तेह तणु नवि लामि पार ।। मेगल माता दलकि हाल । बुज्जन तणां सला विशाल ।। ४०४ ॥ ते उपरि नेजा लह लहि । वरि लागी वाताह कहि । रथ षोध्या जेवा गिरि माल । से उपरि बिठा महिपाल ।। ४ ।। ढोल ध्रसूके कपि मही। सुसमित संख समावि सही । रोडसाद पोरि नीसाण । फपि कायर परि पराण ।। ४६ ॥ बरंगा मेर भासिर झडडि ! सिणि प्रलंदि परवत पडि । सरणाई बाजि वर सार । प्रवर वाजितनु न लहू पार ॥ ४७ ।।
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प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
रथ विसी राजा संचZ । पायक परिगह प्रागलि करयु । हीसारव नवि सुणी इसाद । जाणे सायर मेल्ही मरयाद ।। ४ । चयां कटक जिम सायर पूर | बेहा रवि नवि सुझि रूर। विरीतपणा उतारिक . पूरीपुर गई साभ्यु :: :: 5fi: मथूरां नगरी पढीउ त्रास | जमणपुरी ने कीधु नास । सामा डामनि संका घणी । प्रारुयू नयर प्रजोध्या धगी ।। ५० ।। साधि भोम सकोसल वीर | कटक पड्यु गंगानि तीर । ते भागलि विहां नाठा लि । दंड देई राजा नि मलि ।। ५१ ।। राय तरिण मनि पुहुती रली। कटक पहूतु जमशावली । गोपाचल नु राजा जेह । देई दंड नि मलीउ तेह ।। ५६ ।। चालि कटक दोयंगम वाट । परवत माहि कीधा बाट । जे राजा उजेणी तणु। दंड लेई की प्रापणु ।। ५३ ।।
वहा लक्ष पंचास सुभट तणु, केकी बाहि पराण । कोटी भट कहीइ सदा, कवरण सहि तेह बाण ॥ ५४ ।। एक कन्या देइ रूयडी, एके नामि सोस । एक रिधि प्रापि घणी, एक सता राखि देश ।। ५५ ।। साझा सूर समुभडि, प्रवर न घालि घाउ । रख्या करि प्रजा तरणी, सही सकोसल राउ ।। ५६ ॥ पुन्यि लक्ष्मी पामीइ, पुन्यि निरमल देह । पुण्याइ रिषि प्रावि, पुण्य तणा फल एह ॥ ५७ ।।
पपई गूजर सोरठ प्राणि लीन । नमीयाडा बेदर विस कोध । भाजि तख्यर पाडि वाट | साध्य कुकरणनि करणाट || ५८ ।। लार देश मरहट मलबार | साध्यां कन्नड तिणि वार । कुंडलपुर न कहीइत्रीस । मापी साबण नामि शीस || ५६ ।।
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सुकोसलराय चुपई
१०६ राय विद्याधर मलीयां बहू । बजी विमान काग्यू सहू । मेघवाहन सुत लंका राइ । मेल्ही मारहनि लागु पाइ ।। ६० ।। सार बिसारी आणि भेट । समुद्र तरणों साध्या सहू बेट! सूरा लम महि जिवाधीस 1 हेल मात्र सायर साघीउ ।। ६३ ।। संद कटक नु कीषु बंध । ग्रडूठ लाप सवि साधा सिंघ ! मेवपाट भुपु मुलताण | पांडा बलि सांध्यु खरसाण ।। ६२ ।। मरुस्थली बटुली बहु बारा । गौर चौडगा जणु वषाण । हथणाउर असाध्या देश । पौयणपुर कीषु परवेश ।। ६३ ।। विजयारथनू करू बखाण ।। दाहोत्तम नगरी तह जाण । नगर नयर पर तिजे कोडि 11 इतलां गाम कहां कर जोडि ।। ६४ ।। तिणि परत्रति विद्याधर चंग । राय तरिण दलि दौठ रंग । से प्रसंसा करि पति घरगी। धन जनरगी सकोसल तणी ।। ६५ ।। विजयारष थू था वलि । नासि देश दुनी वलभली। अष्टापद जई नाम्यु सीस । चैत्यालय वंधा जगदीस ।। ६६ ।। चम्पापुर नु मल्यु नरेस । सहिजि साभ्यु डाल देस । चक्रवतिनी परिचालि घणु। पावापुर कीषु पाहणु।। ६७ ।। अंग बंग साध्य बंगाल । मगध घोण सरिसु पंचाल । राजगृहो नगरी नृप मल्यु । ते दंड लेई रा पाछु चल्यु ।। ६८ ।।
राह देश सब साधिया, उत्तर विवरण जारिग 1 पूरब पश्चिम साधिया । चितु दिशि वरती प्राणि ।। ६६ ।। लक्ष्मी माणी लक्ष गणी, घन कण कंचरण सार ।
परणी प्रलीयल पद्मणी, हम मय रयण भंडार ।। ७० ।। विजय के पश्चात नगर में प्रवेश
नगरि पधारया प्रापरिण, सूरयवशी राव । तालीयां तोरण बंधाइ, घरि घरि मंगलबार ।। ७१।। मदिर आव्या मा तरिण, अधिक सकोसल सूत्र । सहिषयी साईए मलि, उदल लीवु पुत्र ।। ७२ ॥
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आगाई मोगनिए महा यशोधर
प्रय बाल हीडोलानी मंदिर प्राध्या प्रापशि साहेलजी रै, घरि घरि मंगलाचार । सजन व लोक व धरमणु सा.। रयण ममूलिक सार ।। ७३ ।। प्रसंसा जलरणी करि सा० । धन धन साहस धीर । देश तविमि साधिया सा• । जीतु सकोसल वीर ।। ७४।। मेघाबर हयडु सार । उपरि छत्र धरा । सिंहासण सोहि भलु साम । पात्र नचावि नु गइ ।। ७५ ।। प्रजा सङ्क सुख भोगवि सा० । दुखीय न दीसइ कोइ । देवाले पूजा पनि सा । भगति करि सहू कोई ॥७६ ।। वाड़ी निरूपी रूयडी सा। तस्यर मुहिर गंभीर । तिहां नि सोहि षठोकली सा० । भरीयां छिति अल नीर ।। ५७ ॥ फरि सकोसल झील सा। तहसीय तरणां रे घलूर । पूरवं पुरिणइ पामीउ सा | सहीम सकोसल सूर ॥ ७ ॥
वसंत मायु बसंत प्रायु प्रतिहि भाणंद, बनसपति पनि गहि गहि ससरसाद कोयल दीसि । रामाराती राइस नवरग पौवन तरुणि वेसि । सामा सवि सोहामणी वंश विसूधा नारि । राय सकोसल खेलबा सुदरि कीया शृंगार ॥ ॥ ७ ॥
पथ ढाल राती पगनी धारणही ए दोसि तुकूलोल । तुराता दंत दाहिम कली ए राता मुषह तंबोल 1 तु ।।१।। ८० || काला का पहिरसी ए, काली घेणी देखि तु । काली कस्तुरी महि महि ए, फाली काजल रेष ।। २॥१॥ लीला चरणा पहिरसी ए, दीसि नव नव रंग तु नीला मणिती मुंदडीए, नीला पान सुरंगसु ॥ ३ ॥ १२ ॥ पीला सोवरण सोहती ए, पीली चूरी बाहि तु । पीली झासि मलामलीए, पीलो फेर त्यहि तु !! ४ ॥६३।
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सुकोसल राय चुपई ऊजल झंभर भबकती ये जबल रयण भपार तु । ऊजल दरवप नरपती र, अजल मोतीव हार हु।। ५। ८४ ॥ झीणि कटियंत्र कामिनी ए झीणी सुललित नापितु। झीणीय वेण बबावती ये झीरखा बस्त्र प्रमाण ।। ६ ।। ८५ चंपु मरून पालवी ए सोच सेमंत्री फूल तु । चालूबेल सोहामणी ए टोडर अति सहित तु॥ ७ ॥ ८६ ।। केसर ससेम कंवोलडी ए मलयामर महिमंत तु । छांटरवडा प्रोपसु करि ए रायसु रातीय रंथि तु ।। ८ ।। ७ ।। पुरुष लेई लेई ताहती ए पापणा स्वामीय मंगितु । सोलकला सिशि सोहती ए जेहबू पूनिम बंद तु ॥ ६ ॥ ८८ ।। गते मनिह पौट ए दादागी माहि इन्द्र तु! क्रीडा करो परि प्राचीया ए पागिल नाचि रंभ तु ॥ १.१ चोया चंदन महि माहि ए मृग मद पतिहि सुरंभतु ।। ११ ॥६६ ॥
नित नित इसी पिरि रमि मुमध समा महीपाल । सुख सासर माहि झीलता जातु न जारिए। काल ॥ १२ ॥१०॥ पुन्थि कीरति उनी, पुग्यि बस मंगर । पुणिइ पिसुण पीरि नहीं, पुण्य प्रथवी मारह सार ।। १३ । ११ ॥ सहिदेची इम उच्चरि, सभिल तु प्रतीहार । सती जोए तु मामतु, परिहरि नकर दूयार ।।१४।। ६२ ।। धर्म कमा जु संभलि तु, मनि बसि विराग । सोले वरखे सकोसलु तु करसि सबि स्वाग ॥ १५ ॥३॥
चपई माव्या मुनिवर पादर नही । राज भनि रखवासा रहि । यती बार वा कीधु कर्म : राइ न अमरिण तेह नु मर्म ।। १६ ।। १४ ।। छठा मास तरिण पाररिंग । पाब्यु पोल आणि पारणि । सहिदेवी तस माही मीट । कीरत घर तत्र नमरपे दीठ ।। १७३ १५. 1 सहिदेवी मनि मछर यज । योवन भरि मुझ मेल्ली मउ । वकनि सीधामरिण देइ । तु मुनिवर ज्या पोनि ह ॥ १८ ॥ ६ ॥
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प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
चल्या मुनीस्वर वगछि गया । कसम लेईनि बन माहि रया । देषी षाय ते वली पई। नयर नीर भरि स्पा रही ।। १९ || तेह रोयंती राजा सुशी। मसित भूप रोइ सा भयो । भाव कहि उधारु वातः । प्राहारन पाम्यु ताहारू तात ।। २० ।। ६८ ते राणी ते सेवा एह ॥ भगति भली परिकतर बेह । सह सदारय मापा परिण । स्वामिन राष्यु धरि पारस्थि ।। २१ ।। ६R Ik हुँ राजकरू वन सेवि नाप । एता ऋमि ऋमि लागि पाप । महासाट मनावी तेस: विकामानिस रेस : २२॥१०० ।। इसु सुणी सांचरीउ राम । पजला जो तु पालु भाइ । रूदन करि मनि विह्वल भउ । जिर्दा मुनिवर तिहां
राजा गड ।। २३ ।। १०१ ।। जई सकोसल नामि सास । ती कहि उपरिमाणु रीस । काया कष्ट करूका घणु । राजरिधि सहइ त सणु ! २४ ॥ १० ॥ माहारि नहीं संसारि काज । तिणि कारणि मि छोड्यु राज । राज तणां छि कारण जेह । सांभलि बन्छ
सकोसल तेह ॥ २५॥ १०३ ।। बडे बड़े राजे नप हस । ते परलोके गया वहत । राज रिद्धि सलूई धरि रही । ते उभी मेल्हीम्या सही ॥ २६ ॥ १०४ ।। पुत्र कलित्र कहिन परिवार । कहिना लक्ष्मी कहिनी नारि । मन पटल जिम दीसि मेह । तिसु कहीर संसार सनेह ।। २७ ।। १०५ ॥
वहां विषय तणां सुष रूयखां, सांभलि राय सुजाण । सुख हुइ सरस बस, दुःख ते शेर प्रमाण ।। २८ ।। १०६ ।। विषया केरी बेलद्धी, जेह न छेदी जाणि । धारि फूली फल गागेमी, स्मारि दुख देसि निरवारय ।। २६॥ १०७ ।। जे नर नारी माहीया, सुरिंग न सकोसल मूप । ते नर बाहोद बापहो, पड्या संसारह कूप ॥ ३० ॥ १० ॥ विषय तणां सुष परिहरी, चंडेवा भक्यार । चलणे लागु गुरु तणे, मागि संयम भार ।। ३१ ॥ १०६ ॥
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सुकोसल राय चुपई
सुकोसल के वैराग्य के कारण चिता
तिहा मली सहू प्राय जिसि । पाला पुर मते घर निसि । राय राणी सह मागि मान । पायलागी वीनवि प्रधान ॥ ३२ ।। ११० ।। असन धफुरा न लहि हेत, बालपणि ताप फर वु केत । हवडी र अजांध्यां माहि, वृद्धि पाण तप लेयो राय ।। ३३ ।। १११ ।। राई कहिमि छोडी या साथ, पदक प्राल्यु परधानह हाथ । गर्भाधान प्रसव जेहसि, ते राजा पृथ्वी पालसि ।। ३ ।। ११२ ॥ मेला सोतरण जटित' प्रवास, मेहली घरि घोडानी लास । मेही छि अबला सवि सती, पापणा स्वामीनि
नरखती 11 ३५ ।। ११३।। मे हा सजन सह परिवार, मेहा मोती ग्यण मंडार । कर्मतरणां वह बंधन टलु, तिम्गि संयम लीधु उजनु ॥ ३६॥ ११४ ।। जे होता राणा राजीया, प्राय प्रापणे धरि सहू गया। केतला रजा तप लेइ प्रबला सह बलाकी दे ।। ३३ ।। ११५ ।। एक झुरि एक करि विलाप, एक कहि दम लागू पाप । हा हा करीनि कुटि होउ, प्राज मलेउर सुनु ।। ३ ।। ११६ ।। एक अबला लालि सिणगार, एके नोडी नब सर हार । चीर दोर एक भाति यली, एके घरगिा पड़ी
टलि वलि ।। ३६ ।। ११७ ।। प्रजा सहू बुबा रब करि, वली बली राजा संभरि । भूष तिरस सयि निद्रा गई, मू नयर ते दीसि सही ।। ४० ।। ११८ ।। गुख चड़ी सहिदेवी जोड, पुत्र मनावी लावि कोइ । नयर तगा जब पाव्या लोक, माता मनि घराउ ।
सोक ।। ४१ ।। ११६ ।। माता की दशा
पुत्र नणी जब तुटी प्रास, पडी प्रथ्वी गति न ल हि सांस । घड़ी विचार अचेतन हूइ. नाषि वाय तब बिठी थई ।। ४२ ।। १२० ।। मछर घडी भनि प्राणि रीस, लेई पाथरनि कुटि सोस । धरणी लोटि पाडि रीव, होउं फाटी सनि आइ जीव ।। ४३ ११ १२१ ।।
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प्राचाय सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
सूनां ते मन्दिर मालीयां, सूनु दीसि पाट । ए दुख किहि प्रालि, कहुं तुब सति उठी वाट ।। ४४ ।। १२२ ॥ मोवन भरि प्री परिहरी, अनि पुत्रि प्राप्यु छेह । रे रे पामर प्राणीया, अजीय न छोडि देह ॥ ४५ ।। १२३ ॥ बुवा रख बहुली कहि, श्रोडि ते वेणी दंड। मुख चडी झपाची उं, सरीर करयुसत पंड ॥ ४६ ।। १२४ ।। प्रारति पामी प्रति घणी, मातम घात पमाउ । मोह करयु मनि पुत्रनु, वाणि भई वन माहि ॥ ४७ 11 १२५ ।।
वस्तु सूर सकोसल रमनि धरि भाष भगति विवेक । भली करि से वि सगुदरू पाय मन माहि जाणी। धर्म दया गुग पागनु प्रण गुप्ति मन माहि मारपी। च्यार कपाय मनि मेल सु इंद्री दमन कर्योस । गर्मवास दुःख दोहिलो तु मुगति तणां
फल त्योस ।। ४८ ।। १२६ ।।
चुपई सुकोसल की तपस्या
वर सालि वृछ हेठलि रहि, मेह तरणी धारा सहि । तरुवर पान पछि नीतार, तिमतिम कर्म सवे निरजरि ॥ ४६ ॥ १२७ ।। भाद्रवडा गिरि किंदर रहि, डांस मछर ना चटका सहि । झड मांझी वरसि विकराल, बाघ सिंघ इह उहि
हढाल || ५० ॥ १२८ ।। कासग धरी महानत पाल, वेला घडि वलि मेवा काल तरूयर जाणी अहि रूवडि, पग तले डाभसी जडि ।। ५१ ॥ १२६ ।। तप साध्युनयलनि तीर, विस्त्र विहूणा दीसि धीर । मीयालि शिर हीमजठरि, तिमतिम तप पणा पाचरि ॥ ५२ ।। १३० ।। महा मास घणु जामिहीम, नीझण रहि न लोपि नीम । पबिटाङ तिहिं प्रच्छज पलि, मेर तणी परिचिंतन
चलि ॥ ५३ ।। १३१ ।।
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सुकोसल राय चुपई उहालि झल' वाजि वाय, तडका ताप सहि मुनिराज ! दुगर बलि दय दाभि जेह, तत्पर छांह न सेवि तेह ।। ५४ ।। १३२ ।। ताती केलू तपनी सिला, ते उपरि तप माधि भला । माथा उपरि मूरज तपि, तिमर कर्म घणेशं षपि ॥ ५५ ॥ १:३ ।। कासग लेई उभा निरधार, जारणे थंभ रोप्या तिणी चार । देमि देह जिसां पांजरा, पाठ कर्म कीधा जाजरां ।। ५६ ।। १३४ ।। हादश अनुप्रेक्षा प्रणसरि, चार भेद तप मूधु करि । भारत रौद्र तज्यु तिणी वार, प्रातम हस लीउ
प्राधार 11 ५७ ।। १३५ ।। पांचि इन्द्री ते परिहार, सेष तादीस विपि निरअरि । दोष प्रयारह अलगा जेह, पंच महाव्रत पालि तेह ।। ५८ ।। १३६ ।। सहस बटारि पालि सील, मुगति तणां फल लेवा लील । च्यार करायनों छेद्या मूल, तप करतां तृष्णा गई तूल ।। ५६ ।। १३७ ।। . मदतु भनि मोट, जिणि निरदलीड काम कठोर । बायोसह परीसा सवि सहि- पनर प्रमाद न उभा रहि ।। ६० ।। १३८ ।।
वस्तु व्याघ्री द्वारा सुकोसल का भक्षण
कर्म टालि कर्म टालि प्रतिहि सुजाण । अटवी माहि एकलु मन माहि मातम ध्यान प्रागिा । परमानंद सेवि सदा जारिग धर्मा विचार । मुनिवर प्रतिसूयडा हबि लेसु भवपार ॥ ६१ ।। १३६ ।।
जे जलरणी मुनिवर तणी, सहिदेवी गे साल । ते भूषी वन माहि भमि, वाघिण थइ विकराल ।। ६२ ।। १४० ।। भूष तिरस बहु सेवती, सोपंती वन माहि । दीठा मुनिवर रूपडा, मछर घर.यू मन माहि ।। ६३ ॥ १४१ ॥
राग बिराडी सहि गुर बोलि रे मन रषे डोलि रे सीहिण आदि सूर सलक्षणा ए
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प्रामा कामकोलिए ब्रह्म यधर
तुझ तणी यामती मुझ तगी कामनी प्रातम घातिए
बाघिण हुई ए ॥ चलायु ।। मातम घाति वाघिण थई रे प्रापण सरसी बालि । मछर चटीमलपंती आदि पूरब दुःखमनि सालि । एह तणा परिसि सहिस पराणा ताहारि कुगा कहुं तीलि । सीहिण प्रावि सूर सकोसल मुनिवर इणी परि
वोलि रे ॥ १।। १४२ ।। बल तुनि इम भणि काई मधुरी वाणी गुरु सुरिण | पापुण कायां इतुकीजिदए च्यारां गति माहि अवतरयु । घुरासी लष रसवाडयु छहलानि भवनुए जो खोलीच रे ।। च ।। छेहला भवनु एह बोलीउ हवि प्रातम सत साधु । सदगुरु केरी सेव करी निरूपातीन पाराषु।। सुध चिप जोया गति जाणु हरष घणु मनि ब्रह्म तारा । कासग करीनि प्रशसरण लीधु तु गुरु परति हम भणि ॥ २ ।। १४३ ॥ सामानि द्रिष्टि रे सीहिण वाहिरे दीठा नि मुनिवर
विहि रूडवाए।
बाघिणी घरहरि तिणि अंबर थरहरि पीडा न जारिगए
सां परतपीए ।। च. ।। एह पापणी पीउन जाणि महला एह ना कारणी। पुछाउ लालीची उडि थर थर धूजि धरणी। हहि रत्ती डाला गरि लीधु मछर घणु मन माहि । ध्यान धरी गुरु मागलि उभा साहनी दृष्टि चाहि ।। ३ ।। १४४ ॥ काई दल भरी बुकिरे नपरतरणा घाम करे। ध्यान न चुकि मुनिवरनि न तणु' । मछर चड़ो मोडिरे धसी रधं धंधोलि रे पगतरणे पडघाट
जो पीडा करिए । च.। पुग तणे पडिघाह करीनि मुनिवरचें सिर दूरि । विकराली तिहां वलगिविरणि विसमेनहर वलरि ।
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सुकोसल राय चुपई
११७ ए परीसह सहिया कुरण समरथ झडपि सम्पर सूकि । सीह नादंत करी सिर खंडि वात्रिम बल भरी बुकि रे ।। ४ ।। १४५ ।।
वस्तु सणि पंडि इसणि डि प्रति प्रणि रोस नग्वरि व हारि देह यहि उपपात करि प्रति बल प्रमाणि । अंग छेदन भरीर भेदन महर घडी तनु तारिण । रहिर पीइ ररिए रातडी सोख्खि सर्थ सरीर । परीसह सहि वाघिण तण ध्यान न कि बीर ।। ५ ॥ १४६ ।।
चुथि पाद पड बडिनि, साधि सुकल सध्यान । गुणस्थानिक ग्यु तेरमि, उपनु केवल न्मान ।। १।। १४७ ।। स चराचर व्यापी रम्य , न्मान करी नह जेह । प्रापि प्राप जऊ लष्य, भागु सर्व सवेह ।। २ ।। १४ः ।। फेवल न्यानि नरखतां, व्यापि लोक असोक । हाथ तरणी पण लोहडी, तिम देखि त्रिलोक !॥ ३ ॥ १४६ ।। बंधन काटयां करमना. जन्म जराना जान । पुरा दुःख वटु संसारनां, पामु मुगति निधान ।। ४ ।। १५. ।।
चुपई जिहां प्राकार न दीसि सोई । कर्म तणा नवि बंधण होइ । जामण मरण तणां दुख नहीं, ते काम सकोसल
पाम्यु सही ।। ५॥ १५१ ।। भूष तिरस नही निद्रा नाम, वर्ण न गंध सदा सुख ठाम । रूप न राग निरंजन जेह, पाम्यु ठाम सकोसल तेह ।। ६ ।। १५२ ।। मुनिवर सरीर पठ्यु सिंहा सही, बाधिरण भरूप करि
तिहां रही। तेह कलेवर करि पाहार, अंगि चिह्न दीठां तिणि बार || ७ ||१५३ ।। पग तलि दीटु पयज सार, करतलि दीठउ छ प्रकार । नयण सुरंगा ते नरखती, राती रेख दशनि झलकती ।। ८ ।। १५४ ।।
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प्राचार्य सोमकीति एवं ग्रह्म यशोधर मगि चिह्न दोठु ते तरिण, चित चमकी मानि प्रापणी । खोलि लेई देती पम पान, तिणि अवसरि
से प्राबी सानि ।। ।। १५ ।।
ढाल बराजारामी मुनि द्वारा व्यानिणी को उददेश
सहि गुरु बोल्या ते बार एव प्रखत्र काइ श्रादरयु घेतहईडलारेन कसमल भरयु रे भंगार । ग्राज सकोसस बध करयु रे । चेतह ।
।। १५६॥ पूरक प्रीति संभारए ताहरी कृषि जो अबतरयु । अक्तयु कूस्थि, रुहिर सोलि मिह पोखितुतणु । ।। १५७ ॥ संसारि सगरण कोई न जाणि पुत्र ए परिभा तमु । रीस गाही प्रारण काडी व घग्य वाघिण तणु । ॥ १५ ॥ सिहि गुरु बोल्या तिवारि ए बडु असत्र कांइ प्रादरम् ।। माविण करि रे बिलाप पूरव भव मनि चौतवि ।। . ।। १५६ ॥ मोह घरयु मन माहि ढोर तणी परि वाइहि ।। के । ढाढहि ढोरज तणी पिरि दुःख संभारि प्रति घणु।। सीस कूटि जीभ त्रुटि उदर फाडि आपणु ।
॥ १६० ॥ परजल्यु पंजर रोस पूरीहोइ दुख सालि सवि । वापस कर रे विलाप पूरव भव मनि
चीतवि ॥ चेत. ॥ २ ॥ ११ ॥ सहि गुरुदेइ प्रतिबोध प्राप हुत्पा जीव मां करे ।। कीयां छि करम कठोर, बलीरे ना कोई प्रावरि ॥
लागी छि सहि गुरु पाय, मुनिवर वाणी मनि धरि ।। व्याध्रिणी द्वारा पश्चाताप एवं अनघाम लेना
सांभलीय मुनिवर तणीय वाणी रोट्र भारत परिहरि । कोष टाली क्षति पाणी भाव हीयहा सुधरी। परणसण लीघुफाज सीधु देवलोक ज अवतरी। सहि गुरुवेइ प्रतिबोध पाप हत्या जीव मां करे ॥ ३ ॥ १६४ 1 काशग लेई निरधार मूनिवर वन माहि तप करि ।। अचल उमु जाणे मेर देहडी मि नित भाषणी ॥ १६५ ।
१६२ ॥
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सुकोसल राय चुप
ध्यान घरि महावीर तारन जेहन कोइ नहीं ॥ . ॥ सीरज संहनि कोलमड सुक्ल ध्यान परमेशे की सुरास्थामिक ग्यु सेरभि उपनु केवल महा निरमल मुगति नारी से वरि । कासम लेई विरार मुनिवर वन माहि
हा
मुनिवर बिहि सुगति गया, सहिदेवी स्वर्ग सार 1 खासु कहि इम उच्चरु, जिम बासु भववार ।। १६६ १६
११६
तर करि ॥ . ॥। ४ ।। १६७ ।।
॥ इति श्री सकोसल राय चुबई समाप्तः ||
।। १६६ ।।
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ब्रह्म गुरणकीत्ति
ब्रह्म जिनदास के सात शिष्यथ । जिनके नाम हैं ब्रह्म मनोहर, ब्रह्म मल्लिदास, ब्रह्म गुरदास, ब्रह्म नेमिदास, ब्रह्म धर्मदास, ब्रह्म शान्तिदास्त्र एवं ब्रह्म गुणकीति । ये सातों ही शिप्य साहित्य सेवी थे तथा ब्रह्म जिनदास को साहित्य निर्माण में सहयोग दिया करते थे । ब्रह्म जिनदास ने अपनी विभिन्न कृतियों में अपने शिष्यों के नामों का उल्लेख किया है। लेकिन उन्होंने अपनी कुतियों में जिस प्रकार दूसरे शिष्यों के नामों का उल्लेख किया है उस प्रकार बल्ल मुणकति का उल्लेख नहीं मिलता है । इससे पता चलता है कि ब्रह्म गूगण की त्ति जनके कनिष्टतम शिष्य थे और उनके सम्पर्क में भी बहुत बाद में मारे थे । यदि ऐसा नहीं होता तो ब्रह्म निदास उमा सल्लेख किये बिना नहीं रहते ।
गुणकीति नाम के एक भट्टारक भी हो गये हैं जिनका पट्टाभिषेक संवत् १६३२ में डुगरपुर में बड़े उत्साह से हमा था। लेकिन हमारे नायक गुणकीत्ति तो ब्रह्मचारी थे। उनके गार्हस्थ एव साधु जीवन के सम्बन्ध में नामोल्लेख के अतिरिक्त अधिक दुछ नहीं मिलता । कवि ने अपनी एक मात्र कृति में चित्तौडगढ़ के नाम का दो बार उल्लेख किया है इससे यह तो अनुगान लगाया जा सकता है कि कवि का सम्बन्ध चित्तौड़गढ़ से रहा होगा लेकिन उनका शेष जीवन कि.स प्रकार व्यतीत हुप्रा इसकी प्रभी खोज होना शेष है ।
ब्रह्म गुरुतकीत्ति की एक मात्र कृति 'रामसीतारास" अभी तक हमारे देखने में भायी है । इसके अतिरिक्त कवि की ओर कितनी कृतियां हैं इसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन रामसीतारास को देखते हुए इनकी ओर भो कृतियां कहीं मिलनी चाहिये । ब्रह्म जिनदास ने संवत १५०८ में विशालकाय रामरास की रचना की थी। अपने गुरू की विशाल कृति होने पर भी गुणकीत्ति के द्वारा एक लघु रास काव्य के रूप में राम के जीवन पर कृति लिखने का पर्थ यही हो सकता है कि पाठकों को संक्षिप्त रूप में राम कथा को जानने की इच्छा रही होगी।
1. राजस्थान के जैन सन्त-व्यक्तित्व एवं कृतित्व-पृष्ठ १४०
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ब्रह्म गुणकोत्ति
१२१
प्रस्तुत रामसीताराम को पाण्डुलिपि उसी गुटके में संग्रहीत है जिसमें भट्टारक सोमकीति, ब्र. यशोधर एवं अन्य कवियों के पाठ हैं। मुझे तो ऐसा लगता जैसे इस गुटके के पाठों का संकलन मैंने ही अपने उपयोग के लिये कभी किये थे। प्रस्तुत पञ्चम भाग के अधिकांण पाठ इसी गटके में से लिये गये हैं।
_रामसीतारास एक खण्ड काव्य है जिसमें राम और सीता के जन्म से लेकर लंका विजय के पश्चात् प्रमोध्या प्रवेश एवं राज्याभिषेक तक की घटनाओं का संक्षिप्त वर्णन किया गया है । इसमें १२ ढालें हैं जो ११ अध्यायों का काम करती है। जैन कवियों ने प्राचीन काल में इसी परम्परा को निभापा था। महाकवि त्रजिनदास ने भी अपने रास काम्पों को ढालों में ही विभक्त किया है। यह गीतात्मक काम्प ने जिसकी हालो को गा करके पाठकों को सुनाया जाता था।
समय-रामसीतारास का रपना काल तो मिलता नहीं जिससे स्पष्ट रूप से किसी समय पर पहुंचा जा सके लेफिन प्र. जिनदास का शिष्य होने के कारण तथा गुटके के अन्य पाठों के समय निर्णय के देखते हुये प्रस्तुन सास फो संवत् १५४० के पास पास की रचना होनी चाहिये । ब्र- जिनदास का संवत् १५२० तक का समय माना गया है 1 प्रस्तुत कृति 'उनको मृत्यु के पश्चात् निबद्ध होने के कारण उत रचना काल मानना उचित रहेगा। इगी तरह हम इस कृति के प्राधार पर ३० गुणकीत्ति का समय भी संबत् १४९० मे १५५० तर, का निर्धारित कर सकते हैं।
__ भाषा--स की भाषा राजस्थानी है यद्यपि गजरात के किसी प्रदेश में इसकी रचना होने के कारण इस पर गुजराती शैली का प्रभाव भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है लेकिन क्रिया पदों एवं अन्य शब्दों को देखने से यह तो निश्चित ही है कि कवि को राजस्थानी भाषा से अधिक लगाव था। विचारी (विचारकर) मांडीड (मांडे) अाबीयाए (माये) यानकी (जानकी) घणी (बहुत) पाणी (हाथ) प्रापणा (अपना) घालीइ (डालना) जाणए, बोलए, लीजिए जैसे किंवा पदों एवं अन्य शब्दों का प्रयोग हुआ है।
सामाजिक स्थिति–रामसीतारास छोटी-सी राम कथा है। कथा कहने के अतिरिक्त कवि को अन्य बातों को जोड़ने की अधिक प्रायश्यकता भी नहीं थी उनके बिना वर्णन के भी जीवन कथा को कहा जा सकता था लेकिन कबि ने जहाँ भी ऐसा कोई प्रसंग पाया उसके वर्णन में कवि ने सामाजिकता को अवश्य स्पर्धा किया है। प्रस्तुत रस में रामसीता के विवाह के वर्णन में सामाजिक रीति-रिवाजों का वर्णन मिलता है । राम के विवाह के अवसर पर तोरण द्वार बांधे गये थे।
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१२२
प्राचार्य सोमकोति एवं ब्रह्म यशोधर
मोतियों की बादरवाल लटकापी गयी । सोने के कलश रखे गये। गंधर्व एवं किर जाति के देवों ने गीत गाये । सुन्दर स्त्रियों में समाना लिस: 1 सारण द्वार पर माने पर खूब नाच गान किये गये। सास ने द्वारा प्रेक्षण किया। जब चंवरी के मध्य पाये तो सौभाग्यवती स्त्रियों ने बधाचा गाया। लग्न वेला में पंडितों ने मंत्र पढ़े। हधने वा किया गया । खूब दान दिया गया ।
उस समय वृद्धावस्था पाते ही प्रथबा अपनी सन्तान का विवाह होने के पश्चात् संयम लेने की प्रथा थी। संयम लेने के लिये सभी प्रकार के सांसारिक ऋणों से मुक्ति ली जाती थी । कर्ज चुकाया जाता था। दशरथ को भी अपने दिये हुये वचनों की निभाने के लिये कगामती की दोनों बातों को मानना पड़ा।
नगरों का उल्लेख-राम लक्ष्मण एवं सीता जिस मार्ग से दक्षिण में पहुंचे घे उसी प्रसंग में कवि ने कुछ नगरों का नामोल्लेस्त्र किया है। ऐसे नगरों में चित्तुङगढ़ (चित्तौड) नालछिपाटण, अरुणग्राम, बंशयल के नाम उल्लेखनीय है।
वगन की पुष्टि से अध्ययन-कवि ने रामकथा की लोकप्रियता, जनमामान्य में उसके प्रति सहज अनुराग, एवं अपनी काध्य प्रतिभा को प्रस्तुत करने के लिये रामसीतारास की रचना की थी। महाकवि तुलसी के सैकड़ों वर्ष पूर्व जैन कवियों ने रामकथा पर जिस प्रकार प्रबन्ध काव्य एवं खण्ड काव्य लिसे यह मच उनकी विशेषता है। जैन समाज में रामकथा की जितनी लोकप्रियता रही उसमें महाऋदि स्वयम्भु, पुष्पदन्त एवं रविषेणाचार्य का प्रमुख योगदान रहा है। सुलसी ने जब रामायण लिखी थी उसके पहिले ही जैन कवियों ने छोटे-बड़े बीसों राम काव्य अथवा रास लिख दिये थे। अस गुणकीति का रामकाव्य भी इसी श्रेणी का है जिसका संक्षिप्त अध्ययन निम्न प्रकार है
काभ्य का प्रारम्भ--कवि ने सर्व प्रथम जिन स्तुति की है जो ऋपभदेव से लेकर मुनिसुव्रतनाथ तीर्थकर स्तवन के साथ समाप्त होती है। दसरथ साकेता नगरी के राजा थे अपराजिता उनकी महारानी थी। इसके अतिरिक्त मुमित्रा, सुभमती एवं केगामती ये तीन और रानियां थी चारों रानियों के एकनाक पुष हय जो राम, लक्ष्मण, शत्रुधन एवं भरत कहलाये। जनक मथुरा के राजा थे। विदेहा उसकी रानी थी। सीता उसकी पुत्री थी जिसको वैदेही भी कहा जाता था। सीता बहुत सुन्दर थी । कवि ने उनकी सुन्दरता का निम्न प्रकार वर्णन किया है--
ते गुणह ग्राम मन्दिर काम रूपधाम रसातली । कद्रवदना मृगह नयना सधन धन तन पाताली ।
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ब्रह्मगुणकीति
ते हाव भाव विलास विच मलय लावण्य वापिका । गौरव सुवर्ण छाया सुगंध परिमल कृषिका ॥ ॥ ७ ॥
मीना का स्वयंवर रचा गया । अनेक राजा महाराजाओं ने इसमें भाग लिया । धनुष चढाने की शर्त थी लेकिन धनुष घढाने में जब प्रभ्य राजाओं को सफलता नहीं मिली तोमर ने अपने पूरा नहाने के लिये कहा । राम ने पिता की आज्ञा की शिरोधार्य करके आनन्दित मन से धनुष चढा दिया ।
आपणा पिता ती बारणी सुम्पति स्वामी प्रदीमा सिंह जिस सिहालग मेलीय सकल सुर नर बंदीया ॥ वीय इन्द्र ते कनकधारे रत्न बरिषा करि घणी । जय जयारच साधु कलिरव का नब तिहुरण घी ॥१०॥
X
X
x
निरमलह बेदीय उपरि चडि करि बाम हस्ति धनुलीउ । दक्षिण हस्ति गुण परिनि रामिवि ज्ञावतं चावीयो ।
टकर नादि दह डिसि गंगन मंडल टलटल्या 1 पाताल शेषनि असुर सुर नर दैत्य दानव खलबल्या ||१७||
१२३
राम द्वारा धनुष चढाते ही नागर हिलोरे लेने लगा, नुमेरु पर्वत कांपने लगा, कितने ही तालाब फूट गये, देवता जय-जमकार करने लगे, सुगन्धित वायु बहने लगी एवं अमर भंकार करने लगे ।
जय जय श्रीराम देवह कंठि वरमाला घालीयि ।
स्वयम्बर में वरमाला द्वारा पति स्वीकार करने के पश्चात् राम और सीता का विवाह हुआ | लग्न मंडप तैयार किया गया । तोरण द्वार बांधा गया। मोतियों की बांदरवाल लटकायी गयी । स्वर्ण कलश रखे गये। स्वयं राम भी विभिन्न अलंकारों से सज्जित किये गये। गंध एवं किन्नर गा रहे थे। उनके सिर पर छत्र सुशोभित थे । चंवर बोले जा रहे थे तथा सौभाग्यवती स्त्रियां मंगल गीत गा रही थीं तथा लवाछना ले रही थी ।
राम जब तोरण द्वार पर आये तो द्वारा प्रेक्षसा किया और जब लगन मंडप में
सब आनन्दित हो गये । उनकी सास ने प्राये तो सौभाग्यवती स्त्रियों ने बबावा
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१२४
आचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
गाया। पंड़ितों ने लगन पढ़ा तथा शुभ बेला में विवाह सम्पन्न हुमा । हथलेवा हुश्रा | चारों ओर जय जयकार के मध्य राम और सीता का विवाह सम्पन्न हुआ ।
विदेहा प्रक्षाणु लघु, सासू वर खणु कीषु । वर चवरी भाहि श्राव्या साहासीय बषाव्या । पंडित बोलए मंत्र, लगन तथा प्राण्या मंत्र । सुभ बेला तिहा जोड, वरति मंगल सोई ।।६।।
अब योग सघलुङ भागु, सुलगन हथोलू लागु । सब उ जय जयकार, परणीय यानकी नार ||७||
राम के विवाह के पश्चात् लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुघ्न इन तीनों भाइयों का भी सुन्दर कन्याओं से विवाह हो गया । वे सब मथुरा से अयोध्या लौट आये और राज्य सुख भोगने लगे। कुछ समय पश्चात् दशरथ ने वैराग्य लेने का विचार किया। उन्होंने अपने इस विचार को सभी को बता दिया। मन्त्री परिषद् की मीटिंग बुलाकर राम को राज्य तिलक देने की घोषणा कर दी। दशरथ की इस घोषणा से चारों और प्रसन्नता छा गयी। लेकिन भरत की माता केगामती को राम का राजा बनना अच्छा नहीं लगा। उसे चिन्ता हुई कि राम के राजा बनते ही भरत को उनकी प्राज्ञा माननी पड़ेगी । पहिले तो उसने भी दीक्षा लेने की सोची लेकिन बाद में भरत के प्रति मोह के कारण उसने अपना विचार बदल दिया । और राज्य सभा में जाकर दीक्षा लेने के पहिले दिये हुए दो वचनों की पूर्ति करने के लिये वशरभ से कहा ।
घणुयन मागु देव भरत नरेसर थायो ।
दिउ मुझ पुत्रनि राज, तो स्वामी संयम लीयो ॥ १२॥
जब दशरथ ने केगामती के प्रस्ताव सुने तो तत्काल भरत को राज्य देने का निश्चय किया गया। वैराग्य लेने के पूर्व सांसारिक ऋणों से मुक्ति पाना श्रावश्यक माना जाता है क्योंकि जिसके कर्ज होता है उसे दीक्षा नहीं दी जाती
वाचारण पिता तणुं पुत्र उतारि दस जाणी । गामती का पुत्र भरत राज देवा भाखीइ ।
राम स्वामी मुगति गामी पिता भाव ते जाणीज । भरत कुमरहबांह साही रामि राज सभा माहि श्राणी 11
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ब्रह्म गुणकीति
१२५
भरत को राज्य देने के पश्चात् राम पिता के चरण छूकर तथा धनुवाण हाथ में लेकर अपने भाई लक्ष्मण एवं पत्नी सीता के साथ बन को बल दिये।
राम पिता पनि वेग लागी धनुषवाण ते करि लीउ । बंधव लक्षमण सहित स्वानी सीता साथि बनवास गज ॥
राम वनवास में चले तो गये लेकिन अयोध्या उनके बिना सुनी हो गयी। चारों और हाहाकार मच गया। दशरथ तो कितनी ही बार मूस्थित हुए लेकिन दोष किसको दिया जावे। कर्मों को लीला विचित्र होती है---
राम गये वनवास कर्मना अधर क्रिम
लिए ।
दोस न दीजि काम मुरछा यानी घरखी पर्युए ।
राम का वन गमन ----
प्रयोध्या से राम मेवाड देश में आये और चित्तोड़गढ़ गये। वहां से वे तीनों नलकलपुर मालपाटण) आये । विन्ध्याचल पर्वत को पार करने के पश्चात् रामपुरी बनाने का यश प्राप्त किया। फिर सोमापुर माये और तप एवं ध्यान करते हुए कुलभूषण एवं देशभूषण परमाये हुए उपसर्ग को दूर किया । इसके पश्चात् दण्डकवन में श्राकर रहने लगे। और वहाँ भी दो चारण ऋद्धिषारी मुनियों का उपसर्ग र क्रिया ।
rush वन में राम सीता और लक्ष्मण रहने लगे । यहाँ भरत का शासन नहीं था इसलिये एक अलग ही नगर बसाने की योजना के लिये राम ने लक्ष्मण से कहा | लक्ष्मण उपयुक्त भूमि देखने लिये निर्भय होकर घूमने लगे। शंबुक ने
लक्ष्मण का मार्ग रोकना चाहा । इस संघर्ष में लक्ष्मण द्वारा शंबुक मारा गया । खरदूषण की स्त्री चन्द्रनखा अपने पुत्र की देखभाल के लिये वहाँ अब मात्री श्रीर अपने पुत्र को मरा हुआ देखा तो रोने लगी। जब चन्द्रनखा ने राम सीता तथा लक्ष्मण को देखा तो उसे अत्यधिक क्रोध आया और वह पाताल लोक में जाकर खरदूषण से जाकर शिकायत की। खरदूषण चौदह हजार विधाघरों के साथ वहीं श्राये जहाँ राम लक्ष्मण थे। लेकिन श्रले लक्ष्मण के सामने वे कोई नहीं टिक सके । इसके पश्चात् चन्द्रनखा रावण के पास गयी और उसने राम लक्ष्मण के बारे में पूरा वृतान्त कहा | चन्द्रनखा की बात सुनकर रावण के हृदय में राम लक्ष्मण के प्रति विद्रोह हो गया और वह पुष्पोत्तर विमान द्वारा वहाँ पहुंचा । उसने सीता को देखा और उसका हरण करना चाहा। वहां उसने मायामयी लक्ष्मण का रूप बनाया और वन में सिंहनाद किया ।
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१२६ आचार्य सोमकोति एवं ब्रह्म यशोधर राम छता किम हरू ए रामा, तत्क्षण विद्या समरी माया
वामाभेद जणाव्यो माया सपि लक्ष्मण कीयो, सिंघनाद तीगी तब दीयो
लीयो धनुषते बाण रावण ने सीता का हरण कर लिया और उसे अशोक वाटिका में रहने के लिये छोड़ दिया । सीता बहुत रोयी मिहलायी हाथ पर पीटे लेकिन उसकी एक भी नहीं चली।
विलाप करती दु.म्न घरंतो राम नाम उच्चार ए
स्वामी लक्ष्मण वीर विचक्षण एह संबर टालए ॥ १॥ कवि ने सीता के बिलाप एवं रावण के साथ वार्तालाप का बहुत अच्छा किया है । इसी तरह राम के बिना का कवि ने जो वर्णन किया है उसमें दई है, वियोग जन्य बेदना है।
सीता सीता माद फरता कीधां कर्म ते सहा ।
तरवरह दुगर परति श्रीराम सीता सुधिज पूछए ।।८।। राम सरीवर के पास जाकर चकोर से पूछने लगे कि उसकी सीता कहां गयी। क्या कोई दुष्ट उसे ले गया अथवा किसी च्यान ने उसका भक्षण कर लिया प्रथवा किसी सिंह के मुख में पड़ गयी।
पूछए सुधि श्री राम नरेश्वर सरोवर कांठि जमु रही रे । कह न चकोर तम्हे चक्रवाकी दीखी सीतल मुझ सहीरे । सहीय सीता हरण हषो कवण पापी लेइ गयो । कि ध्यानी प्रावी भक्षण कीध तेह तरणो कटिण होयो। सार्दूल सफल कि सिंघ स्वापद सती सीता मुखि पड़ी।
बनह मज्झिम कोई मेहली कवरण पुहती यम घडी ||६|| धीरे धीरे सीता हरण का रहस्य खुलने लगा । सुग्रीव ने सीता हरण की पूरी बात राम को बता दी। साथ ही रावण की शक्ति एवं वैभव का भी उसने अच्छा बन कर दिया जिससे राम लक्ष्मण को भी उसकी शक्ति का पता चल जावे। लेकिन राम को तो यह भी पता नहीं था फि लंका किस दिशा में है। जब सुग्रीव ने राम की बात सुनी तो वह भी हंसने लगे
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ब्रह्म गुणकीदि राम पूछि कहु न सुग्रीव लंका कवरण दिशाई बसि ।
सुग्रीव तरणो मम वाणी राम तणी सुग्ग विहसि ।।१४।। इसके पश्चात् राम ने सुग्रीव की सहायता से युद्ध की बड़ी तैयारी की। सर्व प्रथम हनुमान को अपनी मुद्रिका देकर लंका भेजा और उसमें अभूतपूर्व सफलता लाने के कमला राम ने माना किया।
रामचंद्र दीउ मान धन धन जनम बन तम्ह पिता 1
पनि जननी कवि भानु । सा० । रामचंद्र दीउ मान ।। लंका में अपनी पूरी सेना उतारने के बाद भी राम ने रावण से सीता को गपिस लौटाने का प्रस्ताव किया ।
सीता दीजि प्रीति कीजि राम राज भाषीइ । अन्त में राम रावण के मध्य घमासान युद्ध हुप्रा । सवरण में पक चलाया जो लक्ष्मण के हाथ में आया । वही चक्र लक्ष्मण द्वारा चलाया गया जिससे रावण का अन्त हुआ।
युद्ध में विजय के पश्चात् लंका में चारों ग्रोर राम की जय जयकार होने , लगी। मंगल गीत गामे जाने लगे। गरीबों को खूब दान दिया गया । चारों ओर स्वर्स ही मानों बरसने लगा । इतने में ही नारद ऋषि ने प्राकर राम से माता के दुःख एवं पुत्र वियोग का वृतान्त कहा 1 नारद की बात सुनकर तत्काल प्रयोध्या जाने का निर्याय लिया गया । और पूरे दल के साथ राम लक्ष्मण एवं सीता यहाँ से चल पड़े । राम की सेना अस का कवि ने निम्न प्रकार वर्णन किया है
नव कोडी तोरंगमा तु पाघदल कोडि पंचास तु, रथ लक्ष बयालीस तु, गज तेतला गुण रास तु । सोल सहस मूगट बंध तु, सेवा करि राम पाय तू।
लच्छ तशी संख्या नहीं तु विभीषण प्रागिल जाइ नु । राम ने सपरिवार अयोध्या में प्रवेश किया। उस समय अयोध्या को खुद सजाया गया चारों प्रोर तोरण द्वार बनाये गये । बाजे बजने लगे तथा जय जयकार के नारों से प्राकाश गूज उठा । कवि ने नगर प्रवेश एवं आगे राज्याभिषेक का प्रच्छा बर्णन किया है ।
बाजि हुंदुभि नाद सु, साद सोहामणाए । मदन भेरीय झणकार तु, डोल नीसा घणाए ।
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१२८
प्राचार्य सोमकोति एवं ब्रह्म यशोधर कुशम दरसिप प्रकास तु, पंच शबद नादिए ।
मलपत मयमल कुभि तु, झरइ सुगंध मदए ॥३॥ राज्याभिषेक का एक वर्णन निम्न प्रकार है
कलस कनकतणा जारिग तु, तीर कने नीरे भरिए। पंच रसन तणो चुक तु, पूरीउ मनि रखीए ।
रयण मरिणगय थापितु, सिधामण तिहाँ बली ए । राम ने राज्याभिषेक के पश्चात् लक्ष्मण को युवराज पद, शत्रुघ्न को मदचिन मथुग का राज्य, विभीषन को लंका का राज्य दिया । हनुमान, नत्न नील मादि को अलगप्रलग उपहार देकर सम्मानित किया।
कवि ने रास समाप्ति पर अपनी लघुता प्रगट करते हुये लिखा है कि रामायण ग्रंथ का कोई पार नहीं पा सकता। वह तो स्वयं ही मतिहीन है इसलिये राम कथा को प्रति संक्षेप में वर्णन किया है।
ए रामायण ग्रंथ तु एह नु पार नहीं ए हु मानव मतिहीण तु, संवेपि गीत कही ए विद्वांस जे नर होउ तु, विस्तार ते करिए
ए राम भास मुणेवि तु, मुझ परि दयाधरा ए ॥३४।। राम को ग्रंथ प्रशस्ति में कवि ने अपना कोई विशेष परिचय नहीं दिया है केशव प्रपने गुरु ब्रह्म जिनदास एवं बाई घनश्री एवं ज्ञानदास जिनके आग्रह से प्रशुत रास की रचना की गयी थी का नामोल्लेख किया गया है
श्री ब्रह्मचार बिणदास तु, परसाद तेह तगाए । मनवांछित फल होइ तु, बोलीइ किस्यु' घणुए ॥३६॥ गुणकीरति क़त रास तु विस्तस मनि रलीए बाई धन श्री ज्ञानदास तु, पुण्यमती निरमलीए । गावउ रली रंगि रास तु, पावउ रिद्धि वृद्धिए।
मनवांछित फल होह तु, संपनि नवनिधिए । प्रस्तुत रास में १२ ढालें हैं जिनकी पद्य संख्या निम्न प्रकार है
प्रथम द्वाल दूसरी ,
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ब्रह्म गुणकोति
१२६
तीसरी ,
चौथी ".
पञ्चम
पाटम
मतम
प्रष्ट्रम
नवम
दशम
ग्यारहवीं. बारहवीं ,
२०७
इस प्रकार १२ वालों में २०७ पद्य हैं जो अलग-मलग भास रागों में निबद्ध हैं।
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रामसीतारास
प्रयमछ प्रणमीइ श्रीय जिन गरणहर सारदा सुंदरि नियगुरूए । तस पाय मनिषरी प्रणबु विविध,
परिसमय सिद्धांतवरी एक चित्त। नोटक-एक चित दृढ़ करी बंदु, भक्षीयण प्रादि जिणवर बटुवे ।
अजित संभव प्रह, घामतरणो जिन कंदए । मभयनंदन सुमति पाभ जिन सुपामु ए । बन्द्रप्रभह पुष्पयंतह, सौतल श्री गुरणवासुए ।। गुरगहतणा स्वामिश्र यांस जिपवर । वासुपूज्य भवहर विमलनाथ । मनंत परमनाथ शांति कुथ भरनाथ ।
मल्लिनाथ जिन मनिसोबत नाथ । घो-मुनिहिसोबत स्वामि वारि पाठमु
हलि उपनु तस तणय बंधव हरि । हरष सुरज बसि नीपनु । साकेता नपरोय राय दशरथ । अपराजिता तस भामिनी। लक्षारय सादस रूप निरुपम । चन्द्रवदना कामिनी ॥शा पन्द्रबदनी सती सुमित्राए । सुभमति वीजी राणी केगामती सुप्रजा बुथी। ध्यारि राणी रायो घरे करि । राजदणी परे दशरथ पुण्यकारि जयवंताए ॥ोका। जयवंत जय जुगिसार सुदर रामचन्द्र बहाणीह ।
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सीता स्वयंबर
रामसीतारास
लक्ष्मीयश्वर अर भरत सत्रुधन पारि पुत्र घर जाणी ।
कुलकम दिनकर ता
देव परमह गुरु परीक्षरण रामचन्द्र क्षतिपती ॥ ३ ॥ क्षतिपती मथुरा नयर नरेसर जनक भूचर बर राज करीए, तस तणी पटराणी सतीय सिरोमणी.
विदेहा सुंबरी एह गुए धरिए ।
- ती जे पाणि बागी सारद सामिण आशी ।
१३१
तेह विहि सुदरि यानकीय वपाणी |
कालान विज्ञान संपन रूप युथन अवतरिये !
जनक जणी पुत्री सीता महादेवो घरमभार तिणी वरये ॥४॥ धरयो धरम भार जनक नरेसर देषीय रूप मनिगमको ए ।। हक्कारिया परवान रायां दीड बहुमान गयल मली तिहां विचारीउए ।
शोक-विचारी तिहां सयल भूपति सीता समंवर मांडीइ ।
अवर राजा दुष्ट दुरजन तेह तणां मन खांडी
नयर बाहिर बन निरोषम मेडा मंडप घालावीया ।
कंकोतरी चिहुँ दिल भोकली राय तन समल ग्रुप बोलबोया ||५|| श्रावीया सर्वेमली बंशु सुष महाबली ।
पगधरा मंडलीक भावीयाए ।
मलीयाए च्यारि बंस छत्रीस ए ।
कुलई तिहां रामनरेश र भावीयाए | त्रोट |
धनुषे लोपीया ||६||
प्रावीया बिदिश चपटचुरी कनक फेरी तिहां घडी । रण माणिक उर मोतील हीरा हौर करण घणी जड़ी । झगमगति दह् दिशि मुइ सरासन पवरी उपरि रुपीया । बारवीयर तणु तेजह लिहा तो लोपीया शशिकर वजवि परिकर, सागरावर्त्ती वर अनुयनाम | सपल श्रृंगार करो यानकी सुधरी, अवनि उपनि परिसुण ग्राम 1
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१३२
प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
सीता का सौन्दर्य
से सुबह ग्राम मंदिर काम रूपघाम रसातली । चंद्रवदना मृगहनयना सघनधन तन पातली । ते हाव भाव बिलास विच मलय लावण्य वापिका । गौर वर्ग सुवर्ण छाया सुगंध परिमल कूपिका ।७।। कूपिका सुषतरणी सहीयर ए साथि घणी, वरमाला लेई पाणी प्रावीयाए । वेर्दाय उपरि चढावीय, इणीपरि यानकी सुंदरि भावीयाए ।॥ो०।। भावीया जन मन सबल सुदर देषि राय चमकीया । रंभराणी कि तिलोत्तम अंब पदमनि समकीया। एह पंध सर वर समरभेदीय प्रनंग रंग बहु उपना ।
चित्त चपल चलति चलब सकल मनोभाव नीपना | स्वयंवर का वर्णन
नीपना जय जय पंच शबद घन. कलिरव करि जन मन उलास । बोलए विरद घना अनेक रायां तणा | प्रताप सोहामणा गुगा निवास ॥त्रो०॥ गृणनिश्वास सहास बोलयि, सयल भूपति जोवए । प्रहंकार धरी करी एक उठवे धनुष कहिलू जाई सोवए । एक राय उपाय चीतवि घनुष साहामु जोथए । सबल बल अभिमान सुदर सकल महंकार खोबए ।।६।। षोबर पुरुषारथ तब राजा दशरथ । सबहुं परिसमरथ इम भणिए । उयउ तम्हे राम देवनुरकरि तह्म सेव, घनुष बढाच हेव आपणु एवोका
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रामसीतारास
सम तारा धनुष बढाना
प्रापणा पिता तणी वाणी सुधणि स्वामि पाणंदीया । सिंह जिम सिंहासरण मेह्वीप सकल सुर नर बंदीया । वंदौमा इन्द्र ते कनक धारे रस्मवरिया करि घसी। जय जवारन साधु करिन रव ऊच्या तब तिहूयण यणी ।।१०।। हिं पंड तणु राय लागो पित्ता तो पाय । धनुष साहामु जाय प्रतिबलूए । मलपतु पग मेहि वररिंग टोडर बोलि । नही कोए राम तोलि निरमलोए ||श्रो०।। निरमलह वेदीय उपरि चडि करि बाम हरित धनु लीउ । दक्षिण हस्ति गुणधरवि रामिवि ज्ञावतं चहाचीयो। टगाकार नादि दह दिरिस गगन मंडल टलटल्या । पालान नि अमृर पुन र पनि बलवस्था ।।११।। खलभल्या सायर भष्ट कुल गिरवर कंपीया मूधर तिहां घणाए । तडाग फूटा सही श्वरहरी एह मही जब सही तिहा कही
देवतणाए कोमा देव शब्द सुगनि सृदर सार मार मीरावती । करहि माला फुशम परिमल भ्रमर रम झणकारती । हंस गमणीय सुभस रमप्रिय सीसा लिवर ग्रालीए । जयो जयो श्रीराम देवह कठि बरमाला पालीयि ॥१२॥ धालीइ वरमाला मोहाए कमला । वाम पासे निरमला उभी रही । सयल विद्याधर सुर नर नर बर ।
कुसुम प्रांजलि भरी तिहां नहीए ।. .. कुशमांजलि सबि भावि,
राजा राम स्वाम बधाषिया । . ...
या
.
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१३४
प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर जनकभूपनि विदेहा राणी साथि वेष वर मन भावीया । रयण मणिमय जडित घन घन करीय परीयल माग्मी । मोतिय थालि भराषि सासू मनह रंगि बधावती ।।१३।३१) मास मध्यात्व मोड़नी बधावए सबिमली निरमसी मागिल नामए पावरे, धन धन सीसस बहु बर धन धन रामनी मातरे ॥१॥ धन वन एह कुल निरमल सोहए सूरज वंस रे । पुरुषोत्तम एह उपनो नीपनो रघुराज हंस रे ॥२॥ मुधन धन राय दशरथ समरथ कौशल्या माए रे । रामदेव सेवा सुर करि समरसा पातिक जाह रे ।।३।। तब जनम राउ हरपीउ नरखीत चहूबर चंग रे। रामन तव बरची 5, भीडर १ ग रे ॥४॥
विवाह वर्णन
थाम कनक केरी घडीयाए, जहीयाए रयणमिमा तीरे । वेल भरी परवाल देषण, पण हीरलायोति रे ।।५।। कुसम माला तिही लह लहे महमहि परिमल बाम रे। रिमझिम करि भमरला समरला गाव ए भास रे ॥३॥ तौरणि मोरणी प्रतिषणी, मोतीड़े बन्दरवाल रे । मण्डप डार समारीया समीचित नाटक साल रे ॥७॥ पट्ट कूल बहु प्राणीय मारणीय मणाप छाउ रे ।।। राय कनक जनकह तिहां सीलल पिताय उमाघ रे ।।८।। थांभला परतिय निरमली सोहजली लह लहे घज रे । सोना कलश माणिक जड़ी स्रोमाघड़ी झवझए तेज रे ॥६॥ छत्रीस कुलीय प्रति मली च्यारिसते पाण्या रे । हद फुणेंद सुचंदह मानसि श्रीराम भास्या रे ॥१०॥ सयत्न शृङ्गार ते मङ्गहि रंगहि रचीया श्रीराम रे ।
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रामसीताराम
१२५
गन्धर किन्नर तुवर गाबए से गुण पाम रे ।। ११ ॥ मयमल मेगल पतिबल उपरि ढालि सम्बाडी रे । चिहुँ दिशाइ धज मेंदीय हेलीय जोवये नारी रे ।।१२।। गय पर चर प्रारोहीया सोहीया जिम जगनाप रे । पञ्च शयः पा काजए गाजर अम्बर सारं ॥१३।। शिरि गिरी छत्र सोहा मरणा भामरणई बोलए चंगरे । चार बाल गंगा जवणीय जीवन जाणुए गंग रे ॥१४॥ धवल देइ वर कामणी भामणी लुछणां फोन रे । राम नाम संमतहां जनमतमा फस लीजिए रे ॥१५॥ (२)
भास पी हीं।।
सीसरी दाल विशाह रसव
तीजइ फल बहुबंग । एक नापि नक नवरंग । कनक धारा मेघ बरसि, देवीय दशरथ हरषि । एक मानन्द रस दावि, बीजीय भावना भाषि ।।१।। छाणवर सहामु ते मढए, बहु परिस लोका पठए । सुललित ते गुणग्राम · उत्तर भाति धीराम ॥२॥ बाजा बहु परिबाजिनादि निसारण गाजि ढोल तिबल भेरी भावा, ताल कंसास सोहावा ॥३॥ तिम तिम वाजि मृदग, तिवसीय साद सुरंग ।
इम बर सोरण मान्या, सान मनि बह भाव्या ।।३।। तो रहए एवं विवाह मण्डप का वर्णन
विदेहा अक्षा लीधु', सासू गर पुखणु की । पर पथरी माहि प्राध्या, सोहासपीमि मधाच्या ।।५।। पण्डित बोलए मात्र, लमन तणा प्राग्वा यस्त्र ।। सुभ बला तिहां जोइ, परति मंगल सोइ ॥६॥ प्रय योग संघसऊ भाग, सुलगनि हथोलु बाप । लब हर जय जयकार, परमस्य यानको बार ७
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प्राचार्य तोमीति एवं ब्रह्म यशोधर
सजन दान मान दीधा, जनम सणां फल लीधा । माइ याप होउ पाणंद, वाध्यु धर्मनु कंद ॥ इणि परि लक्षमण बीर, अतिबल साहस धीर । बीजु धनुष जे चंग, सागरावतं उतंग ||६| घनुष तीणि ते चड़ावी, अठार किन्या तिहां श्रावी। परणीउ लक्षमण चंग, होउ तिहां अभिनवु रंग ॥१०॥ जनक रायां तणो भाई, कनक राजा से सरवाई । तह तरणो बेटी सुचंग, परणीउ भरत उत्तंग ।।११।। अनेक राया तणी धीय, रूपतणा छइजे लीह । मान कुवर ते सार, ते परण्यु गुणधार ॥१२॥ म्यारि कुवरि सोहाव्या, परापीय प्रजोध्या माव्या।
पारथ राय जयवन्त, भोगवि राज महंत ।।१३।। घरम तणु ए विस्तार, पूजि जिरणवर सारं । पालिए विविध प्राचार, दान देई मबस्तार ॥१४।। (३)
चोथी दाल मास वणजारानी- वणजारा रे सूरज वंशीय राय इणी ।
परिराज करि घणु वणारा रे ॥१०॥ दशरथ हघो विराग राज लेषा मुनिवर ता । मुनिवर तणु राज लेषा भावना भाषि घणु।
मुणवि सजन सयल परिबार अन्तःपुररेइ घणु। राम का राजतिलक करने की घोषणा .
हकारीमा सम्मि भूप मन्त्री राज देवा कारण। राम नाम कुमार ते डर राजा दशरथ इमं भगि।। प्राण्या'. कलस भरि नीर सिंहासन तिहां पाप ।
के गामती तव जाणि राम तणो लोभा व्यापीउ । केगामसी द्वारा विचार
ध्यापीड ममि मान प्रतिषणु सजन प्रागिलि । किम कहें कम पाषि सुक तणाए पराभव हूं किम सहूं। कौसल्या नंदन जगत्र जीवन राम राजा छायसे ।
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रामसीतारास
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मुझ तणु पुत्र हुवि भरत नर वर, तेहतणों मान लोपसे ॥ २॥ व ॥ लोपसि मुझती आणि तु जीवीनि किसु करूँ ।
हवि जाउं कंत पासि पति साथि संयम धरू । संगम नीति तप कीति पुत्र मोह न छूटए । काम क्रोध मान माया सहित करम न छूटए
O
आठ भागला बीस मूल गुण चलण पालण दोहलु । एह देगंबर तपों मारग तप नहीं ए सोहिलु || ३पविण ॥ दोहलु प्रति घोर कंत मनावा जाइस्यू 1 नहीं मानि भरसह राजगिषु।
राज पालु दुःख टालु सुख भोगबु प्रतिघरणां । सवी समरथ सयल भूपति सेवक होसि पुत्र तां ।
राम मंत्री सेहत लक्ष्मण चमर ढाल सत्तुघन । इपिरि पुत्र पवित्र ग्रह्मणो राज भोगवसिए सुमना ४०॥ । मनह तरिण रे विचार केगामला उठी मनि रली । राजसभा मकारि ततक्षरण भावी निरमली |
गमती का राज्य सभा में माकर अपनी बात कहना
निरमलीय कर कमल जोडवि कांत ने पाये लागये । हुलहुलिय नयां जीवन छंडि आपणु वर मांगये । रविवंश कमल विकापाह णीयर सुणु स्वामी बीनतडी । बैरागि गतु मुगति मातु मह्यं किहि तणी बापडी ||५||२०|| बापडी नारि विचारि कंत विणी किसुं करि ।
शिशियर विए जिम राति तिम प्रभु विण जीव किम घरिचि
किम जीव घरीइ राजकरोड़ कंत विहूणी कामिनी । वेलडी तरवरह पाषि भान, पाषि कमलगी।
are विवेक बिहूणी सील विहूणी भामिनी ।
भाचार पाषि कीरति स्वामी तिम कंस विहूणी कामिनी ।। ६ ।। । कंत विहरणी नारि चारित्र पाषि मुनिबरो ।
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१३८
1
दशरथ का उत्तर
आचाय सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
दया करुनि नाथ संयम भावना परिहरु || नवि तप लीजि राज कीजि सौख्य भोगवु प्रतिघणां । च्यारि राणी व्यार पुत्र समल बहूबर तेह तां । सुकमाल कोमल अङ्गरंगिहि समन प्रसन पालीउ । पच इन्द्रीय विषय सयल ते प्रष्ट भोग मन लानीउ || ३२॥ लालीइ मन अति योर सलिधि किमवि स
दीक्षा दुरधर जाणि षडग घार से इस जोउ ।। सग धारा उपरि चालि अज्जन भरी छिउ वरीऊ । जल वस्त्र मांहि पयसी कवण नीसरि ष हरी । मयमतमय गलकानि साहु किम मलपतु भावए । दीप्यमान कि अग्नि ज्वाला सांइ देवा को भा भावी मिल मिदांत कमरा चाबि लोहमि चणा ॥ मेरकरांगलि तोलि तिम चारिवह भार घर चारित्र भारते भावि दोहिल पंच महाव्रत पालतां । खमि पाणी भात परिवरि दोहिल मोह ढालतां । वीरविण अंग स्वामी दंशमशक बि घणा । भूमिसयन बाजीस गरीब कष्ट सहिमु किम तरा || ६ | वण० ।।
कष्टसाध्य तप जानिश सुरण नारि ।
तप बिना मुगति हि नहीं ॥
हवि तप तपसु जप जयसु कर्म्म पपिसु प्रति त्रणा ॥ संसार सागर जन्म मराह दुःख टालिसु जगतां ॥ वपन घन योवन्न जातीय सकल कुटम्ब ते कारिमु । जिनवाणीच जाणीव मयल सम्पत्ति छांडीय
तप धारि ॥ १० ॥ १०२॥ नारि केमामती जागि कंस वयण सुररात्रि करी | रूदन करिए अपार मनमाहि कपट माया धरी । कपट माया ववरण बोलि स्वामी संयम लेईयो । अझ तो संतरि प्रसन होया तेवर ब्रह्म देययो ।
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रामसीतारास
बैंगामती द्वारा दो वचनों की मांग
सांभलीय दशरथ भरिण कामिणी वर मांगु तुह्म प्रापसो । संमधिना नना याछित मागु ते २ई घणो ।।११॥२०॥ घणय न मांगु देव भरत नरेसर थापयो । दिउ मुझ पुत्रनि राज तो स्वामी संयम लीयो ।। मंचम लेवा राय दशरम नारि बोलबिति घरि । जो मरत कारपि राज देवा राजा तव प्रारंभ कार । तेहावीमा श्रीराम लक्ष्मण अरु शत्रुघ्न मावीया । पिता तणे पगि देगि लागीय दशरथ पुत्र मन भावीया । पिताप भरिण सुण राम अनुक्रमि राजए तहतणु । तपलेवा हवि जाउ ऋण उतारू प्रह्म तणु।। वाचा रण पिता तणु पुत्र उतारि इम जागी । केगामती का पुत्र भरतह राजदेवा जाणी । रामस्वामी मूगसि नामी पिता भाव ते जागीउ । भरत कुमरह बांहि साही रामि राजसभा माहि आणीउ ।।१६।। राजपालु ता सार बाप तरणो ऋण टालीह ।। माय जाऊं बन वास बाप तरको बोल पालीइ । पाली परमाण वाचा भरत राजा थपीउ । केगामती को लोक माहि सयल अपजस थ्यापीउ । राम पिता पगि वेग नागी धनुष कारण ते करि लोड । बंधव लक्षमण सहित स्वामी सीता साथि वनवास यउ ११४५७)
पांचवों दाल
भास नरेसूवानो नाम के वियोग में विलाप
रामस्वामी वनवास गना रे नरे सुवालो करिए। विलाप जननीस शेवि प्रति घणुए ॥ उदय प्राध्यु मुझ पाप दशरथ राजा वीनवि ए॥ अनुक्रम लोप्युमि सार भूरज वंसनु राजीउ ए । राम गयो वनवास कर्मना अक्षर किम लिए ।।
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प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
दोस न दीजि कास मूरछा प्रावी घरणीपज्युए ।। न. ॥ सव हबो हाहाकार शीतल उपचारह करीए । न, ।। चेत वाल्यु तत्र सार तव दशरथ राह चालीत ए 11 न. ।। संयम लेवा काजि गुरह स्वामी तव बीनव्याए ।। न. ।। ते थाप्यु मुनिराज संयम पालि निरमलोग ।। न. ।। सप जप ध्यान करेइ मोह मछर सब चुरीयाए । न. || महीयल सुजस लेइ राम उपदेश राज करिए ॥ न. ।। भरत सत्रुधन मानि छत्र सिंहासन पट हस्तीए ।। न. ।। ते नवि भोगवि जाणि रामनाम तशी रूयडीए ।। न. ।। वरति प्राण प्रपार कोशल देशनु राजीउएन. || पालि मनुक्रम सार जिहां राम सिहा प्रजोध्याए । न, ।। सोहला रायनि रानि पुण्यवंत जीवकारगिए ।। न. ।। पगि पगि नवह निधान राम स्वामी लीला करिए ।। न. । ऊलंधि वनह प्रपार हास विनोद कतूहलिए ।। न. ।।
वनवास
वन क्रीडा करि सार सकल भूषण करी मंडियाए ।। न. ।। नर भय सिंह समान भेवपाट देश योईलए न. ।। चीतुडगड ते जारिख ॥ ११ ॥ ५ ॥
षष्टम ढाल मास सही की-बोत्तरगढ़ जोई केरी पछि पाव्या देशा पुरी 1
वर्जकरण राजा महलाचीउए । सहीए ।।१।। नालछि पाणि मावीया, कल्याणमाला मनि भाविया। बालक्षेण राजा तिहां पापीउ रे । सहीए ॥ २ ॥ वीकापल परवत कही, लक्ष भील जीता सही । अरुणग्रामि प्राध्या ते निरमलाए । सहीए 11 ३ ।। कवि तम दीठां पति घरणां, कपि लह बाह्म तेह तणां । नागकुमार देव ते प्रात्रीयोए । सहोए ।। ४ ।। बन पाइ बहिरु कीधु, नाय झरी नाम दीधु ।
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रामसीतारास
रामपुरी बसावी जस लीए । सहीए ॥ ५ ॥ प्यार महीना राम रापीया, भगति मुरण तिखिदापीया । तिहां बका स्वामी से वली चालीयाए । सहीए ।। ६ ।। वनमाला लक्षमण बरी पछि ग्राम्या क्षेमापुरी । पंचांग लिहा लक्षमण साहीए सहीए ॥ ७ ॥
मश्री बरी निरमली, लक्ष्मणां कुवरि मनि रली । तेह तिहां मुकी निवली चालियाए । सहीए ॥ ८ ॥ वंशथल नगर बली, बांसी परवत तेह तली । परवत मस्तिक मुनिवर रूमडाए । सहीए ॥ ६ ॥ कुलभूषण देशभूषण जुनियरू हुए करना
कुलभूषण देशभूषण तप जप ध्यान विचक्षस 1 चारित्र पात्र ते चिंतामणीए । सहीए || १० तेह तखां उपसगं टालीया, ध्यान कले कर्म बालोबा | केवलज्ञान स्वामी ते पामीयाए । सहीए ।। ११ ।। सुर नर सवे तिहां श्रावीया, राम लक्षमण मनि भाविया । घन घन पुरषोत्तम त अवतरयाए । सहीए ।। १२ ।। तिहो रहीया महीना आदि सहसराय भगति करि । पछए दंडकवन माहि पेठाए । सहीए || १३ ॥ करगारवा प्राची नदी, भोजन ती सामधि कीधी।
चार ऋद्धिधारो मुनियों को प्रावर वेनर
चारा मुनिवर दान दीए | सहीए । १४ ॥ पंचाच तिहां पामी, हरष वंदन श्री रामस्वामी जटा पंषी भावी तिहां मल्युए | सहीए ।। १५ ।। तिहां यकी प्राधी कही, करपरवा नदी सही । तब राम स्वामी ते तिहां गया ए सहीए ।। १६ ।। तिहो परबत एक निरमलो, गुफा सहीत ते सुह जली ! तिहाँ च्यारे जो स्थिति की थीए । सहीए । १७
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१४२
श्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
चुमासु तिहां लघु, धरम ध्यान निरमल कीधु । दीपक ति क्लो नीमनुए। सहीए ॥ १६ ॥ ६ ॥
सप्तम वाल भास तोन वीसीनी
रामरायां रंग भरि भरि वीर, लक्षम बांधव धोर
सुगाउ वचन मुझ सार ॥ १ ॥
एह वन माहि रह्या सुजाण,
हो नहीं भरतती प्राण जाली कर विचार ॥ २ ॥ नगर एक इहां नीपजाबु भूमि,
सकुन निमस पारणी तुम्हें कीजि काज अमूल ॥ ३ ॥ नगर एक इहां नीपजाबु,
ऊबऊ लक्षमण वार मलाबु लुभाको मनि रंग ॥ ४ ॥ पछि प्रारवा तु जाए, कौसल्या सुमित्रा माए ।
राज सूरजवंसि कीजिए ॥ ५ ॥१
रामायण सुश्या तव सार, लक्षमण उठयु सिहां सुविचार |
धनुष बाण करि लीघु ॥ ६ ॥
भूमि जोवा सक्षमण चंग, हैयउ उतर मनि रंग | गरभय जैसु सिंघ 11 ७ ॥
एफलमस ही वनमाहि निरमल जल सूरी चाहि ।
वाहि परिमल पुर । ८ ॥
परिमल लागु लक्षमरण चालि, मयमत्त मयगलती परिमाति ।
बोलि प्रतिकुल बंग ।।६।।
भागलि आत तेज प्रकास्यो, चार दिनकर जिम संकाय ।
भासि सूरज हास ॥ १० ॥
झगमग रोज वह दिणिदीपि, नूरजहास षडग र जोपि । प्रमृता । ११ ॥
एक छह लानु गयंगरण, मुष्टि भावी अधस्तल रंगन्ति ।
लक्षमण वांल्यु हाथ ।। १२ ।।
लक्षमण देव षडग करेसाहरष वदन हवो रमायो ।
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राम सीतारास
चाहषो वंसह जाल ।। १३ ।। वंश जाल फेदतां तूटज, मांचूक तो प्रायु । यूटउ ।
रूठाउजमत काशि।।१४।। दक वन में शंबक का वध
सिर लूटी धरणी तक पडीउ, लक्षमण भलिए पानि जीउ । घडीउए अपराध ।। १५. 11 पडग लेई रामनि दीधु, भावि नमस्कार तिणि कोषु । लीधु प्राश्चित चंग ।। १६ ।। परदूषण नी नारि विशाल, चन्द्रनखा पानी गुणमात्र । करवा पुत्र संभाल 11 १७ ।। पुत्र पडयु दीठ तीणी नापा hit पला: पाति प्राप्यू पाप ॥ १८ ॥ लक्षमण मामि मागि ओवंती, सरणी गुमाइ प्रावीय तुरंती । उभी रही रोचती ।। १६ 11 राम लक्षमण नि सीता देखी, इन्द्राभी मन माहि ऐपी।
कोप बही ते बाल ॥ २० ॥ चन्द्रमाला का खरदूषण के पास जामा
पुत्र मारियो इगि इम जाणी, बाली पाताल लंका भणी । ठिी तेह शिमान ।। २१ ॥ खरष्टुपण मागिल नाही बात, पुष ता हूवो ते घात । पुःख पामीई नाथ ।। २२ ।। । घोस सहन विद्यापर साधे, संयन मुभर उठया एक हाथे। चाल्या जिहाँ छिराम ।। २३ ।। राम भरिस लक्षमण देव 383, विद्याधर निकमसे रूठड। छूटी लक्षमण वीर ॥ २४ ॥ अनुष बाण लीषो साहस, करि सोहि ते सूरय हाति। साहांमु चाल्यू वीर स २५ ।।
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१४४
प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
रोद्रभूम हूउ सविचार, एकलडो लक्षमश कुमार । अलह न सानि. पार ॥ २६ ॥ तेरिण अवरि ते चंद्रनषा, ततक्षण बाईय बुहतीय लंका शंका रहित ते नारि ॥२७॥ रावण बंधवनि तीणी कहीघो, महीयल रूप मर्यादा रहोउ ।
सहीए लममी होई ।। २८ ॥ राबणारा सीता हरण
रावण मनि उपन्न नेह, नयणडे देषु नारिज तेह । अहनु रूप विशाल ॥३१॥ एकलडो तस लागो ध्यान, पुष्पोत्तर रचीयोय विमान । मा नमई रूप दीठि ।। ३०॥ राम छता किम हरू ए रामा, तत्तभरण विद्या समरी मामा। वामा भेद जणाबयो ।॥ ३१ ॥ माया रूप लक्षमण कीयो, सिंघनाद तीणी तर दीयो। लीयो धनुष ते बाण ॥ ३२॥ रामि शीतल गुफाई की, रक्षण मूक्यो जटायु पक्षी। सुखी चाल्यो वीर ।। ३३ ।। रावण गुफा माहि ते पिठो, सीतल हरी बिमानज बिठो । दौठो ले जटा पक्षी ।। ३४ ॥
अष्टम दाल भास श्री ह्रो श्रावकाचारमी रावण सीता रण ते कीउ, लीयो संग्राम विहंगमिरे । दापि मारीय मुगट तिरिण, पायो ताड्यो श्रवणें
संगमि रे ।। यहांवो०।। संग्रामि तायो धरणि पाइयो करा करां करि घणी ।
संतीय सीता मनिहि चिता उपनी पक्षी तणी । हमा का विलाप
मिलाप करतो पुःख परती राम नाम उच्चारए ।
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रामसीतारास
धामि लक्षमण वीर विचक्षण एह संकट टाल गए ।।१।। टानु रे संकट मुझ तणां हो देवर सहोदर भाबु विद्याधर रे । सानधि सयस सुरासुर कीयो लीयो यस सीवल तरणो रे ।।२।। सीयल संपन, मेषः सनुप पर कर र एगा। तात जनक कनक काका वेगि विहिला पावयो । राम राम राम नाम क्षणि आणि वलीन वाचा मूका । वेह कुल कमल उद्योत किरिणी सतीय सत्त न चूकए ।।२।। सत्तीय सीता गयएंगरण रावण लालचि करय पारन रे। पंचवाण घणु जीवन भेद्य वेम्पु तह्न रूपि सारन रे ॥१०।। सार सुदरि सुरवि वाणीय प्रान सुखी तिहां हुई। सुण रे दुष्ट कुनष्ट स्वानर सेह नारि लक्षण जुई । हु सतीय बहुमति संत कंतह राम मुझ तणो अातमा । अन्य नर जे समल तिहूयण मुझनि ते बंधव समा ॥३॥ बंधव समा मुझ सुरपति इंद्रह घरगोन्द्र रवि भिकर रे । सती सुप्रालिम करे स हो मुरषा पुरधाम मेल्ल
कुसुम सर रे ।।१०।। कुशम सर तु भाव परिहरि सील सबल सत्ती तपो । जु य व लोटि बन फूटि धुरण हुइ गगनिनि घणो । सौधर्म स्वर्ग जो ठाम छोडि मेर मंदिर चाल ए । इम जाणी विवेक मारणी एह वपण इम बोलए ॥४।। बोल्या बोल जु केलि कि मूकि जल जलस्वरे । प्रष्ट कुल गिरि पापाल जोपिसि तुहि नयि सीयल
परिगुरु रे ||१०|| परिहरीय सील जे नरह नारि संसार माहि घणु भम्या । परनारि लंपट. दुष्ट कुष्ट से सातमि नरगि रम्या । जिहां छेदन भेदन तलीय तापन सूलारोपण प्रति धनां । तेत्रीस सागर प्रायु पामी दुःख भोगवि तिही तणां ॥शा सतीय सीता तणी वाणी सांभली रावण राणु होउ दुःखी रे ।
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प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर चितातुर यो लंका पंठो प्रमीदावन माहि मूकी रे ।।
मकीय प्रमदा कतह मझमि यानकी इस चित करी । अशोक वाटिका वर्णन
असोक तरतर तलि निरमल सती चिठी प्रासण पूरी । शृगार परिहरि बडिहि मन धरि नीम लीयो पाहार नौ । राम स्वामी मुद्धि पामु तब करू हु पारणो ।। ६ ।। पारणो तब जब प्रभु सुधि पामु ना सीसकत पाय रे । एवउ निरधारिउ यानकी सेवकी हुई राक्षसी स्वगीर ।। च ।। परदूषण कीर लक्षमण भणि विचक्षण राम स्वामी भावीमा । थानकी बनमाहि एकली मूकी का सही पाद्रीया ।।1
घाव्या एकली मेश्ली यानकी कूड कीघु खगि घणु रे । राम की अथा
हदि वहंत वलो राम जगनाथ साथम मेल्ल सीता तणु रे ।।१०।। सीतष्टि तस् वाणि सांमली राम चाल्य रंग भरी। भावीय मुफा माझि स्वामी नवि दीठी ते सुदरी । सती सीता साद करसा कीधा कर्म ते सहाए । तर वरह डंगर परति श्रीराम सीता सुधि ज पूछए ।। पूछए मुदि श्रीराम नरेश्वर सरोवर काठि ऊनु रही रे । कह न चकोर तह चक्रवाकी दोषी सीतल मुभी सही रे ।। 1011 सहीय सीता हरण हो कवग्ग पापी लेइ गयो। कि कयान प्रावी भक्षण कीधु तेह तरणो कविरण हीयो । साल मकल कि सिंघ स्वापद सती सीसा मुण्ड़ि पड़ी। वतह् मज्झमि काइ मेली कवरण पुहुती यम घडी ।६।। जम रूठो तीणि अयसरि जाण्यो परदूपण षग हण्यो रे । लक्षमण वीरि सिर तस छेदी भेदीय रिपुदल जाण्यु रे ॥३०॥ जारणीय रिपु दल उपरि कुवर विराषित ते भावीयो । विरीय मारीय बहंत लक्षमण राम कह्नि ते प्रावीयो ।
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रामसीतारास
रामस्वामी मुगति गामी गलि लागी रोयाए । बेहू बंधव वनह मझमि सीता काजि जोवए ।।१०।। जोता चिहं दिसि गमलक्ष्मी धरनवि पामि कीही त्रागु रे । तिरिण प्रवसरि री जीपीनि दिराषित प्रावी पगे लागु र ।। च ०।।
औरण बिराधित बात बांकी एफ काज तो सारीये ।। रावण तरणो जमाइ तम्हे तां पर दूषण पग मारियो । हवि इमि कीजि ठाम लीजि भेद फुल हुं तील सही। पंयाल लंका नहीं संका सीता सुधि कसूति हो रही ॥११॥ तिहां रहीनि रामकी जसे सफल काम घिमान बिसु स्वामी
अल तणे रे। विराघित कुमरनी वाणी सांभली राम भगिण धन जीवी
तल ती रे ॥च॥ धन विराधित दोहिली वेलां परोपकार चडावीया ।
इम कहीय विमान चड़ीया पाताल लंका प्रावीया । मुप्रीव से भेंट
साहस्समल्ल साहस गति खग सुग्रीव रूपि मारीयो । सुग्रीव तारा सेस भरिनि कपि काज ते सारीयो ।।१२।। सारीय काम सुग्रीव इम जागी विमान विसी सीता मुघि गउ रे ।। गयरणंगरिण धकु दीठु रतन जटी तब प्रानंद मनमाहि
भयो रे ॥च ।। भयो प्रानंद प्रावीय सुग्रीव रतन बदी नि प्राण ए । कछु न भ्राता राम कांता भुद्धिजु तु जागाए । रतन जटी तब भरणे सुग्रीव बात सुणु न अङ्ग तणी। जे जानकी जनक तनया रावण लई मुयो लंका धगी ।।१३।। घणी त्रिभूवन तणु राम भेटामा तल्ले मल साथि
सहोदर है। सयल कथावत्तिय सीता तरणी राम स्वामी आगिल कहुं रे ।।१०।। कहीय सुग्रीव रतन जटीनि राम कलि ते पाणीयो।
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प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
सीताय हरण वृतांत सघला राम लक्ष्मणि ते जागीयो । राम पूछि कह न सुग्रीव लंका कवण दिशांइ बसि । मुग्रीव तणो मंत्र वाणी राम तरणी मुण विहसि ॥१४१५ इसिय यंत्री इम भरिण रामचन्द्रह इन्द्र जे दसान रे । रावण नामि विख्यात विद्याधर अरि परि तप जिम
भानु रे ।।च || भान्तणो सेकास वास विख्यात लंका जारणीइ । रावण की शक्ति का वर्णन
राक्षस बंस वितंस रावण हवि तेह तणो भय भारणी । जिणि इंद्र चंदनि भानु राजा ग्रह बंदी ते राषीया | प्रसुर खग नर दैत्य दाणव तेहां अभिमान लांबीया ।।१५।। लांषीया अहंकार सोल महस रामा मुगटबंधउ लग करी । नवकोटी बाजीनि मयमत्त मय गल बेतालीस लक्ष तम
रािए ।।न।। धिरि बितालीस लक्ष रथ वर वियालीस कोटीय पायक | सोल सहस जे देश भोगवि तिहुँ षंडनु नायक ।। सुणु न राम प्रति बीर लक्षमा दौहिलु रावण अति बलो। हथि सीतल सणी तह मास मूको अजोया भणी
पाचा बलो ।।१६।। नवम हाल
भास साहेलडानी मंत्रीय वाणि सुगवि चार बोल्यु कवण रावण तणु नाम । सयल निशाचर खचर अमर बर लंका सहीत फेडु डाम । साहेलडी राम सणो परसाद लक्षमण धीर गंभीर बीर सिरोमरिण भणि परि जुतारिसु नाद । साहेलडी रामतणो परसाद चढावो।। परसाद साधु सुग्रीव बोलि बाप बलीउ बीर दु । पद रामनामि एक लुपुरण रावरणनिहुं नीपि मु।
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रामसीतारास
सुग्रीव ती चौद मोहणी कटफ बहु परि मेलाए । कपि वंश मरण प्ररय वंडगा प्रावि नल नील वीर ॥१॥ नलनील नवय गवखराइ मावि सुग्रीव सेख पठावि । चतुरंग दल बल समल बिमान बढी हनमंत वीर तव पावि, साहललीपवन राजा तणो पुत्र प्रजना उपरि सुहो रयण मरिण रावगा पाई पदभुत साहेलडी । परन राजा
तो वहावो।। पवन पूत विक्षात भात ताल परोपकार चतुर नर । राम नाम दुलंभ पामीय पगि लागि जोडीय कर। तब राम स्वामी मुगति मामी जाणी प्रालिंगन दीउ ।
पछि लक्षमण वीर विचक्षरण हणमंतही पासु लीउ ।।।। हनुमान का लंका जाना
लीयो बीटो तिरिस रामचन्द्र तणु पुगा नीघी राम मुदी । लंकां जाइ ने शाल गढ़ मोटीव प्रामसी यानकी सुद्धि । सा॥ रामचन्द्र दीड मान धन धन जनम बन तल पिना। धनि जननी कुलि भान साहेलडी रामचन्त दी मान ||२|| मान दीउ जस्म लोउ कपि वंश मंड। भारिया । रामस्वामी तणे पास अनेक राय ते प्राविया ।
सैन संस्था सुभट लेषा सहस्थ दि प्रक्षोहणी । नाम रावण पुख
विमान मड़ी श्री राम लक्ष्मण माध्या तव संकातणी ॥३॥ माधीय ह्य गर रथ रे विविध परि विमान तणु नही पार । वोस जोयण तणि फेरि कष्टक बैट श्रीराम देवनु सार ।।सा०॥ चाजि भेर नीसारण छोलति बल धन साद सोहावा । कपिवंस राव सुजाणं साहेलाडी वाजि भेर नीसाग ।।च।। भेरीय नाद नीसाण संभलि लंक लोक से बलभल्या । रत्नधवानि केकसीतणा चेता कलकल्या ।
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प्राधाय सोमीति एवं ब्रह्मा यशोधर
अठार सहस्त्र ममि राणी मंदोदरी इम बोलए । मुरिण न संत विख्यात मुनि बल प्रबर नहीं तुझ तोला ॥४॥ अथर नही तल सम बडि रावण न्यायत सवि मविचार । ससीय सीता तणु हरगति कीधु सीधु अपजस भार ॥मा ।। 'जिसपरमिठो राम राम रायु । विभीषण लंका राज थाम्य साहेलडी पान सपनाम दी । दीठो अभिनवु सपन स्वामी कृपा करू मुझ उपरि । सती शिरोमरिण जनक तनया मेलि राम तेउरि । परि रमरिण रली रंग ने नर राता ते बिगूता नह परे 1 सक्षस बसि विष वेलडी ए तु आपि प्रापि ए सुदार 1५।। मुंदरी मंदोदरी तासी मुली वाणी रावण धरि अभिमान । विभीषण भरण भणि सुणु राम दशानन । हवि य गई तुहा सान साहेली काई न जाणु तुम्हे आज। मलनील जंबूनाद हनमंत सुग्रीव विमान बांधी सिंघु बाज
साहेलडी काइ न जाणु तुम्ह प्राज ||वः ।। प्राज पाज उलंघीया धीराम लक्षमण धावीया। सकल दल बल चपल बानर सैन सहित ते प्रावीया। हवि वेगविलास बिहि पहिला राम राणु मनायोइ । सीता दीजि प्रीत कीजि एम रूड भावी ॥६॥ भावीइ ही परि रूडा हो बांधत्र मनि म धरे प्रहिकार । प्रमीय समागा बिभीषण बोल बोल्या । कोप्यु रावण गमार साहेलडी तब जाण्यु विपरीत । घरि मानी विभीषणह विचार । हबि कीजि जीवहित ।। सा०।। तब जाण्यु विपरीत ॥च०।। विपरीत जाणीय होइ प्राणीय यीन प्रक्षोहणो दल भावीयु यिमान बड़ी बहु करणय रयण मु विभीषण वीर ते मावीयो । कर कमल मोडवि मौनि मुगटहं राम तणे पगि प्रापियु । रामि विभीषण भगत जारणी पंचमु बांधव थापियु ||७१ थापिउ विभीषण प्रचल लंकापति सतीय सीता मनि भाव्यु ।
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युद्ध की भीषणता
रामसीतारास
१५१
तब रावण बदल करोनि लंकां यकु रणभूमि माम्बु ॥ सा० ॥ बाहर बीपाश्री र हरेरा रंग भरिए । प्रासन को पोवारी साहेबडी मनोही सहस बीयार ॥1 प्यार सहस्त्र प्रक्षोहणी दल मलीय वह निसार | सहस्य शोहणी श्रीराम कलिलि बार ।
शामभेरी ते तं बहु परिनाथ दह दिषि बाजए । नीता घण सु लद्द संनलि वीर बहु परि गाज ! ॥
वाम हाल मास राजरीक
गाजि बीर पड करि सालां बाह्य भरि तिर धार । दुवड धड धड पर लॉटिंग तन हुए सवार 11 साली || भूभे रघुवंती राम लक्ष्मणा बीर महावल भांजि
राति नही ठाम साहेलडी झू रघुबंसी राम ॥१॥
वीर |
रंगि बोर साहेडी ||२
रामनाम तरणी पार पहिरो हनमंत वीर सरि च । राक्षस र चरचा बरिवाचि जादु सम ए रूट ||०||३|| विभीषण रावण समर्वाड लागा, भागा रथ रे विमान । कति समरि करि रात्र लोधी, लक्षमण धरि अभिमान
सुत्रीय प्रगद नल नील राज | मरु देवि सति कुंभकरण मेघ मयय इंद्रजित संग्राम र
समाजासा
लक्षमण रावरण भवम् सनमुख रही विभीषण बाल्यु वांशि । शिकतिरे यता परी दमन हुसि || लंकेसर तब कोपि बडी सक्ति मेल्ही वीर पाडच । हनमंत वीर विशम्या प्राणी शक्ति भेद +िणि काळ ॥१०१॥३॥ तत्र वा मनि विल हौ समरिउ चक्र विशाल |
आरा सहस्य में तेज पुंज करि आयु ते गुणमाल ॥ २ ॥ ७ ॥ रावरण भरिए रे बाला लक्षमण कोइ यम तहाँ श्राज | स्रोताराम रमण मुझ प्रासु सुखिय स त
राज
।। सार ॥८॥
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प्राचार्य सोमकोति एवं ब्रह्म यशोधर
लक्षमण भणि तुझ मारीय रावण विभीषण लंका राज श्रा जनक तरणीए दुहिता सीता रामचन्दन प्रा । सा० ॥ ६॥ तब कोपाहण हवो लंकेसर लक्षमण बोल न भाभ्यु । फेरीय चक्र मेहत्यु तौणि प्रतिबल लक्षमण हाथि
ते प्राव्य ।। मा० ।। १० । रामतणे पग लागीय लक्षमण बक मूक्यु रे पवारि। रेदीय हृदय रात्रण तीरिण पाउच गक्षसनि
प्रावी हारि ।। सा ॥ ११ ॥ ग्याहरवीं डाल
मास भमानलीनी संका विजय पर प्रसामता
हामास २६ बिसातु गम: 5 निम ग आणि तु ।। रघुनंदन दलि जयह वोलु ममारुलीनी
वरतीय राम नीयाग तु ॥ १॥ लंका नगर सोहामणु तु भमारलीनी लीयांत तोरण चंग तु । धवल मंगल गीत नाद करीतु भमारुलीनी पात्र नारि
नवरंग तु ।। २॥ धरि मंदिर महोछच होतु भमारुलीनी गुडीयम स्वर करेई तु । राम नाम राक्षस अपितु भमारुलीनी पिंडित करि विहां
सांति तु ।। ३ ।। होल तिबल भेरीन तणा तु भमारुलीनी नाद दुर घमा आगि तु । रामदेव गय वर बैठा तु भमालीनी प्रागिल बाजि
नीसाग तु ।। ४॥ शिरि वर छत्र सोहमणु तु भमारुलीनी चमर ढली मक्षीर तु। माचक अन वांछित पूरिनु भमारुलीनी दान दे विभीषण
वीर तु ।। ५ ।। देव सयल पानंदीया तु भमासलीनी कनक धारा बरपति तु । मनवा वन भणी चालीया तु ममारुलीनी यानक मनि
हीउ हरप तु ।। ६ ॥
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रामसीतारास
राम रमशिए रंग भरो तु भमा० साहारीय मावीय सार तु । राम सीता मेलावडु तु भमा० होउ विहां
जय जय कार तु || ७॥ मातु मयगल मलपंतु तु भमा० राम अढ्यु सीता साथि तु । सक्षमण विशला साथि तु भमा० वयठा ए
मलपति हाथि तु ।। ६ ॥ वेष्ट बंधव प्रति रूवडा तु भमा० लंका कीयउ प्रवेस तु । नन्न वरमा तिहां रहा त भमा राम लामबह
नरेस तु || 6 || तिणि अवसरि नारद मुनि तु भमा• अजोयां थका
प्राण्या चंग तु ।। ता तणी माता दुःख करि तु भमाः बार बरसह वियोग तु ॥ तर विण पामी दुःख खारिश तु ॥ १० ।। नारद वयण सुणी करी तु भमा० राम मनि हवो आनंद तु । माता मिलवा काररिंग तु ममा० चास्यु ए
दशरथ नंद तु ।।११।। नव कोडी तोरंगमा तु भमा० पायदल कोडि पंचास तु । रथ लक्ष बयालीस तु भमा० गज तेतला
मुण रास तु ।। १२ ॥ सोल सहस मुगट बंध तु भमा० सेव करि राम पाम तु । लन्छ तरणी संख्या नहीं तु भमा० विभीषण प्रागिस्त
माइतु ।। १३ ।। पनर दिन पंच रल तु भमा० मेघ रूपे कीउ वर्षा तु ।। अजोया नयर भलो तु भमा० भाण्पो अमरावती
भाव तु ॥ १४ ॥ बारहवीं ढाल
भास रनादेवनी राम लक्ष्मण का अयोध्या प्रदेश
अमरावती जिम जाणि तु, प्रजोया नयर कीउए ।
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प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर तोरण मुखह मंशारण सु, ईणी परिजय लीउए । सहीय समाणीम चालि तु, मोतिय थालि भरीए ।। १ ॥ राम लक्षमण बधावि तु. मन माहि भाव परीए । बाजि इंदुभि नाव तु, साद सोहानाए । मदन भेरीय झणकार तु, ढोल नीसारण पणा || २ ।। मुसम बरसिय प्रकास तु पंच शबद नापिए। मलपत मयगल कुभि तु, झरई सुगंध मद ए ॥ ३ ।। इसी परि प्राध्मा श्रीराम तु, पुष्पक विमान विसी र । सोहि इन्द्र जिम जारिण तु, सीता इन्द्राणी जिसी ए ।। ४ ५३ मन पणे बही बाट जोइ तु, जननीय राम सरणी ए । भरत सत्रुधन बीर तु, सेना मली प्रति घणी ए॥ ५ ॥ हय गय रथ सिणगार तु, पायक प्रति बली ए । बेहू बंधव सविचार तु. वाल्या निरमसा ए ।। ६ ।। महाजन सयल विचार तु, नाना विधि भेट लीपीए । रयण मणि मोती आदि तु, आपणी भापणी रिधि ए ।। ७१ इसी परिमल्यू बहलोक , कलिरद करि पण ए। राम साहा माते जाइ तु, पार नही तेह लणु ए ।। ८ ।। गगन मंडल थका जोइ तु, राम स्वामी निरमला ए ।। भरत सधन होह तु, बंधव सुह जला ए ॥ ६ ॥ मानकी पूछि श्री राम तु, साह्य मावि माहाजन ए । देवर देषु स्वामि सु, भरत सधन ए ।। १० ।। राम भणि सुशु नारि तु, पेलु' भरत कही ए। गयवर उपरि बैटु तु, मुकुट झलकि सही ए ।। ११ ।। हय वरि.असवार वीर तु, पेलो देषु सत्रुधन ए। जानकी जो मनि रंगीत, देवर धनु धन ए ।। १२ । समीप पाव्या सबे जाणि दु, राम स्वामी निरमला ए । उतरया विमान था सार तु, भूमि प्राया सुहजला ए ॥ १३ ॥ राम लक्षमण दीठा सार तु, गरूड़ धना लहलहिए । भरत सत्रुधन बीर तु, सजन सुगगहिए ।। १४ ।।
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रामसीतारास
बाहु छाड्या तब जाणि तु भूमि चालि प्रति बगाए । मुगट उतारीय बंध तु, पगे लागा रामतसो ए ।। १५ ।। राम लक्षमण एह् वीर तु भरत सत्रुधन ए । आलिंगन हवो सविचार तु, पछि भेटचा महाजन ए ।। १६ ।। ति हो जय जयकार तु, मेघ कनके बूठा ए
आज सुधन दिन चंग तु, हरि परि बंधव सुसार सु मायने पग सिर नामि तु मलीया प्रति बहु रूप तु अंगद सुग्रीव हनमंत सु. विभीषण भरण प्रति चंग तु, भरति तप लीउए । राज रिद्ध सत्रे
राम का राज्याभिषेक
राम देव श्रह्म तुठाए ॥। १७ ।। धजोध्या प्रवेश कीउ ए । रामदेव जस लीयो विचारि मनि रली ए । नल नील महाबली ए ।। १६ ।।
।। १८ ।।
तु मुर्गाति हि मन कीउ ए ॥ २० ॥
राजपाट देउ सारतु, सयल धरा तर ए ।
रामस्वामी नि काजि तु, महोच्छद करु यणो ए ।। २१ ।। विभीषण तरणी सुणी वाणि तु भूप हरष घरी ए । कलस कनक त जागि तु, तीरथ ने नीरे भरीए ।। २२ ।। पंच रतन तर चुकतु, पूरीड मनि रली ए । रण मणिमयथापि तु. सिंघास तिहां बली ए ।। २३ ।। तिहां राम सीता विसाडि तु जय जयकार करी ए । आदि पूरीया धूप तु कलस त करि घरी ए ।। २४ ।। धवल मंगल गीतं नाच तु वीइ कर सालीयां ए । महो अब सहित ते कुंभ तु राग शिर हाली ए ।। २५ ।। सयल प्रथ्वी तो स्वाम तु, रामचन्द्र निरमलो ए । युवराज पद बँकु सार तु, लक्षमण प्रतिबलो ए ।। २६ ।। लंका नगर को स्वास तु विभीषण थापियो ए ॥ २७ ॥ करण कुंडल हणमंत तु, नल नीस विषपुरी ए । सत्रुधन बंधव से सार तु दक्ष मथुरां भीए ।। २८ ।। जे यथा योग्य होता भूप तु ते तिहां थापीया ए । इणी परि करि राम रान तु, बहु जस यापीया ए ।। २६ ।।
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कवि प्रशस्ति
भाचार्य सोमकोति एवं ब्रह्म यशोधर
ग्रह निधि करि दया धर्म तु दान देय मनि रलीए । त्रिभुवन माह जयकार तु, जस बोलि सहजलीए ।। ३० । सोल धनुष तस देह तु. ऊंचा रामदेव कही ए ।
सतर सहल वृष प्रायु तु, तेह परमारण कही ए ।। ३१ ।। एतला मार्गह सविचार तु श्रीराम प्रति बली ए । यार पदारथ सार सु. साध्या निरमला ए ।। ३२ ।।
ए रामायण ग्रंथ तु एहूनु पार नहीं ए ।
हूं मानव मति हीरा तु, संखेपि गीत कहीं ए ।। ३३ ।। विद्वांस जे नर होइ तु, विस्तार ने ऋरि ए ।
ए रास भास सुवितु, मुझ पर दया धरु ए ।। २४ ।। अक्षर मात्र हुबि तु पद छंद गा चूक ए ।
सरसिति सामिण देवि तु, अपराध मुक्त मूक ए ।। ३५ ।। श्री ब्रह्मचार जिखदास तु परसाद तेह तो ए 1 मनतिफल होइ तु, बोलीइ किस्यु घणु ए ।। ३६ ।। गुणकीरति कृत रास तु विस्तार मनि रखी ए ।
बाई श्री ज्ञानदास तु पुण्यमती निम्मली ए ।। ३७ ।। गावउरली रंगि रास तु, पावउ तु, पावउ रिद्धि वृद्धिए । मनवांछित फल होइ तु संपजि नव निधिए ।। ३८ ।।
इति श्री रामसीतारास समाप्तः ॥
गटका --- पृष्ठ संख्या ६५ से ६१
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भट्टारक यशःकोति भट्टारक यमकीर्ति नाम के कितने ही भट्टारक एवं विद्वान् हो गये हैं जिनका वर्णन विभिन्न ग्रन्थ प्रशस्तियों में मिलता है।
इनमें से कुछ भट्टारकों का परिचय निम्न प्रकार है
(१) प्रथम यश कीति काष्ठा संघ माथुर गच्छ के पुष्कर गण शाखा के भट्टारक थे जो अपने युग के श्रेष्ठतम साहित्यकार, काठिन तपस्वी, प्राचीन एवं जीर्ण शीणं मथों के उद्धारक एवं कथा साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् थे । वे भट्टारक गुणकीर्ति के शिष्य थे । अपभ्रंश के महान वेत्ता पं रइन जैसे उसके शिष्य थे । जिन्होंने उनकी विद्वत्ता, सपस्या, लेजस्विता एवं अन्य गुणों का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। उनके अनुसार वे प्रागम ग्रन्थों के अर्थ के लिये सागर के समान, ऋषीश्वरों के गच्छ : विजय की भी
सुन्दर, मिनीका, जान मन्दिर एवं क्षमागुए से सुशोभित थे ।। महाकवि सिंह ने अपने पज्जुण्णचरिड में उन्हें संयम विवेकनिलव, विवुध-कुल लधुतिलक, भट्टारक भ्राता रहा है । यश कोनि द्वारा प्रणीत चार रचनाएं उपलब्ध होती है जिनके नाम पाण्डव पुराण, हरिवंश पुराण, जिणरत्तिकहा एवं रविषयकहा है। पाण्डवपुराण का रचना काल सं. १४६७ एवं हरिवंश पुराण का सं. १५०० है ।
यश कीति अपभ्रश के महान वेत्ता के साथ-साथ अन्यों की प्रतिलिपियां भी करते थे । राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में उनके द्वारा लिपिबद्ध कितनी ही पाण्डुलिपिया मिलती है।
दूसरे भट्टारक यश कीति भट्टारक सोमदेय की परम्परा में होने वाले प्रमुख भट्टारक थे, वे अपने आपको मुनि पद से मम्बोधित करते थे। इनका विस्तृत वर्णन प्रागे किया जावेगा।
तीसरे भट्टारक रामकोत्ति के पशिष्य एवं विमलकीति के शिष्य यशकीत्ति हए। ये भी अपने प्रापको मुनि लिखते थे। इन्होंने जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला नामक
आयुर्वेद ग्रंथ की रचना की थी। प्राकृत भाषा में निबद्ध भायुर्वेद विषय की एक मात्र कृति है जिसकी एक पाण्डुलिपि जयपुर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है ।
1. देखिये रहधू साहित्य का आलोचनात्म का इतिहास-डा. रानाराम जैन -पृण्ड
७४-७५,
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आचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
चौथे यशःकीति नागौर गादी पर भट्टारक हुए। जिनका संवत् १६७२ की फाल्गुन शुक्ला पंचमी को रेवासा नगर में भट्टारक पद पर पट्टाभिषेक हुआ था। एक भट्टारक पट्टावली में इनका परिचय निम्न प्रकार दिया हुआ है
१५८
2
"संवत् १९७९ मागुन सुट्टी यः कोटि जी ग्रहस्थन दीक्षा वर्ष ४० पट्ट वर्ष १७ मास १ दिवस = अन्तर दिवस २ सर्व वर्ष ६७ जाति पटनी पट्ट रेवासा 1
रेवासा नगर के आदिनाथ जिन मन्दिर में एक शिलालेख के अनुसार यशः कीर्ति के उपदेश से रायसाल के मुख्य मंत्री देवीदास के दो पुत्र जीत एवं नथमल ने मन्दिर का निर्माण करवाया था । उनके प्रमुख शिष्य रूपा एवं डूंगरसी ने धर्मपरीक्षा की एक प्रति गुएरचन्द्र को भेंट देने के लिये लिखवायी थी तथा रेवासा के पंचों के उन्हें एक सिंहासन भेंट किया था ।
पांचवें यशः भोलि ने संवत् १८१७ में हिन्दी में हनुनचरित्र की रचना की थी जिसकी एक पाण्डुलिपि डूंगरपुर (राजस्थान) के कोटडियों के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है।
छठे यशःकीति भट्टारक सकलकीति की परम्परा में भ. रामकीति के शिष्य हुए जिन्होंने धुलेव में सं. १८७५ में चारुदत्त श्रीष्टिनो रास की रचना समाप्त की थी। इसके एक पांडुलिपि दि. जैन संभवनाथ मन्दिर उदयपुर में संग्रहीत है । इनका भट्टारक काल संवत् १०६३ से प्रारम्भ होता है ।
भट्टारकों के प्रतिरिक्त और भी यशःकीति हो यशःकीति १५-१६ वीं शताब्दि के विज्ञान थे । वाले नट्टारक थे जो भ सोमकीति के उत्तरवर्ती भट्टारक पद पर अभिषिक्त हुये थे । ब्रह्म यशोधर ने पई में इन्हें अपने गुरु के रूप में स्मरण किया है। 2 यश कीर्ति का समय १५०० से १५६० तक का माना जा सकता है । संवत् १५८५ में जब ब्रह्म यशोधर ने बलिभद्र चुपई की रचना की थी उस समय उनके पश्चात् भ. विजयसेन और हो चुके थे । यदि एक भट्टारक का काल २५ वर्ष का भी मान लिया जावे तो इस हिसाब से संवत् १५६० ही ठीक बैठता हैं ।
उक्त यशःकीत्ति नाम बाले मकते है | हमारे चरित्र नायक बे रामसेत की परम्परा में होने थे तथा सोमकीति के पश्चात् नेमिनाथगीत में एवं बलिभद्र
1. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों को ग्रंथ सूची पंचम भाग पृष्ठ सं. ४१६. 2 श्री यसको ति सुपसाउलि ब्रह्म यशोधर भणिसार नेमिनाथ गीत ।
AA
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भट्टारक यशकीति साहित्य सेवा ... भट्टारक यःकीति की अभी तक कोई बड़ी रचना नहीं मिल सकी है । केवल २ पद, योगी वाणी एवं चौमीस तीर्थङ्कर भावना मिली है। जो लघु रचनायें है। दो पद उपदेशात्मक है जिनमें मनुष्य भर में प्रच्छे कार्य करने के लिये कहा गया है। गढ, मठ, मन्दिर, घोरा हाथी कोई भी साथ जाने वाले नहीं है । केवल धर्म ही साथ जाने वाला है। दोनो ही पद भाषा एवं भाव की दृष्टि से अच्छे पद है ।।
योगी वाणी में ज्ञान एवं ध्यान में रहने वाले योगियों के चरणों की वंदना करने को कहा गया है। यश कीत्ति ने कहा है कि जो शुद्ध ध्यान को धारण करता है उसी योगी के चरणों की वन्दना करनी चाहिये । योगी वाणी में मागे कहा गया है कि क्रोध, लोभ माया और मान इन सभी को अपने आप से दुर हटा तथा अस एवं स्थावर जीवों की रक्षा कर. कावा से प्रेम मत कर तथा पतीपह सहने के डर से बारित्र को मत छोड़ यही योगियों को नाणी का सार है। योगी संयमी एवं संतोषी होते हैं अल्प माहारी एवं अल्प निद्रा लेने वाले होते हैं । योगियों की पहचान योगी दो कर सकते हैं। इस प्रकार की न होने पर भी गूढ़ अर्थ को लिये हुये हैं ।
चौबीस तीर्थकर भावना में चौबीय तीर्थङ्का गणाननाद है। तथा अन्त में कहा गया है कि जो नर नारी भाव पूर्वक इनका साधार करेगा गुणानुवाद यावेगा यही भद से पार होगा।
इस प्रकार यश कीति अपने समय के अस्ट्र कवि थे तथा अपने भक्तों को शुभ कार्य करने की प्रेरणा दिया करते थे ।
यश कीति भट्टारक होते हा. भी अपने पापको मुनि निखा करते थे इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वे संभयन: नग्न रहते हों। सोमकीर्ति भी अपने आपको प्राचार्य लिखना अधिक पसन्द करते थे इसलिये यशकीति ने अपने गुरु से मागे न बड़ कर मुनि लिखने में मंतोष धारण कर लिया।
राग सबाफ तडकि खागि जिम हे टि। अंजलि उदक जिम माइटि ।
I. श्री रामसेन अनुक्रमि हुशा, यमकीरति गुरु जागि।
श्री विजयसेन पदि धागिया, महिमा मेर ममाण || १-६॥ सास शिष्य इम उच्चरि ब्रह्म यशोधर बेह ।
बलिभद चुपई
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प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोबर प्रथिर धन योवन नही कोए केरा । काई लाई जीवडा करि फोकट फेरा ॥१॥ गढ मठ मंदिर पोझरे हाथी। अंतकाल कोई नावि रे साथी । अधि ।। २ ।। मानव अछि प्रति रे दोहेलु । कर एक धर्म जिम पामि सोहेलू । अस्थि ।। ३ ।। ग्रह निशि हीडिकाइ हा हा हू तु ।। माया रे जाल कादव माहि तू । प्राय ।। ४ ।। काया रे कुटंब सहू भात जाणी। पंचि रे इंद्री मन वि करे प्राली। प्रथि ।। ५ ।। सीप सृणु सह एहछि सारी। श्री मस.रे कीरति गुरु कहि रे विचारी। यथि ॥ ६॥
मयण मोह माया मदि मातु तु उपरि रमणो रंगि रातु । रे लक्ष्मी फाररिण हीदि घातु । जीव जाणेस परिभव जातु । काया कारमीए घट काचु । जीव करि एक जिन धर्म साचु रे ।। काया का ॥ १॥ प्रति झाल जाए सीव नाम् । मआई विषयाचे रस लागु' लक्ष चुरासी भमी ममी भाग । आता काहीले सित्रागु रे ॥ कापा का ।। २ ।। पुत्र परिधार अथिर सवि जाणी। अजीय कोई नवि जागि। श्री यशकीरति मुनियर इम बोनि । भचीतध्या दोरचागि रे ।। काया को ।। ३ ।।
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भट्टारक यशकीत्ति
योगी बागी विभुनी ध्यान नंगोटा पंच महावत पालि 1 मोटा तस योगी चे पाय प्रणमीजि । सुद्ध चिद्र पनु ध्यान धरीजि, तस योगी चे पाय प्रणमीजि ।। १ ।। आगम सीगी दह दिशि कथा जिनमारग प्रकाशि रे पंथा
तस योगी० ॥ २ ॥ त्रोष लोभ मद मछर टालि, थावर त्रस जीव षट काय पालि
तस योगीः ।। ३॥ काया योगिण गु माया न मांटि, परीषह मुइ चारित्र न छाडि
___ तस योगी० ॥ ४ ॥ संयम संतोष काने मुद्रा, अल्प आहारनि अल्पछि निद्रा
तस योगी॥॥ योगीयतेजे योग ज आणि, मनमा कर इद्री वसि आणि
तस योगी ॥ ६॥ श्री यस रे कीति गुरु योन अबारिण डालु ते ये मन माहि पाणि
तस योगी || ७॥ इति योगी वागी
चौबीस तीर्थकर भावना श्री रिषभनाथ जिन स्वामि नामि रे नव निधि मंदिर पामीइ रे। तीर्थकर चुवीस पूजिए रे स्वर्ग मोक्ष सुख पामीर रे ।। तीर्थ ।। १ ।। प्रणम् अजित जिणंद जिरिण जोता रे क्रोघ लोभ मनमथ घणा रे
॥ तीर्थ ।। २ ।। भव भय भंजन नाथ संभव रे गिरूड स्वामी भेटीइ रे ।। तीर्थ ।। ३ ।। अभिनंदन प्रानंद पूरि रे सेबक जन संपति श्रणी रे ।। तीर्थ ।। ४ ।।
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१६२
प्राचार्य सोमकोत्ति एवं ब्रह्म यशोधर मुमति सदा फल देव सिद मति रे दाता जुग माहि जाणीइ रे
तीर्ण 1 ५ ॥ पप्रप्रभ गुण ग्राम जपता रे २ संकट सवि बरि पुलि रे । तीर्थ ।। ६ ।। श्री सुपास मनि पास भवीयरग रे २ पूरि स्वामी मन तणी रे
|| तीर्थ ।। ६ ।। चन्द्रप्रभ चन्द्रमोति ध्याइ रे २ पाप तिमर दुरि हरि रे ।। तीर्थ ।। ८ ।। पुष्पयंत शिशिवन समरि रे २ आठ कर्म दूरि करि रे ।। तीर्थं ।। ६ ।। शीतलनाथ सुरिंद शीतल रे २ वाणी प्रातपनी गमि रे ।। तीर्थ ।। १० ॥ श्रेयांस श्रीदातार श्रीकर रे २ स्वामी भावि भेटीइ रे ।। तीर्य ।। ११ ।। वासुपूज्य मनि रंगि मन रंगि रे २ वासव इंदि पूजीउ रे
|| तीर्थ ।। १२ ।। विमलनाथ जिनराज निर्मल रे २ फेवल ज्ञान भूषीउ रे || तीर्थ ।। १३ ।। अनंतनाय अनंत अनंत रे२ चतुष्टय करी भूषीउ रे || तीर्थ ।। १४ ।। धर्मनाथ सुधर्म धरम रे २ दाता स्वामी पूजीइ रे ।। तीर्थं ॥ १५ ।। सांतिनाथ मुभ शांति नामि रे २ शिवसुन निश्चल पामी रे
॥तीर्थ ।। १६ ॥ कुंथनाथ मुरनाथ सुरवर रे नामि रे दुख दालिद सहि वामीर रे
॥तीर्थ ॥ १७ ॥ पर स्वामी जिनराज अरि रिपु रे २ मग्रणगइ
जिणि गांजीउ रे ।। तीर्थ ।। १ ।। मल्लिनाथ प्रभु देव सेविइ रे २ मोक्ष पदारथ पामीइ रे ।। तीर्घ ।। १६ ।। मुनिसुव्रत व्रत धार सुरवत रै २ मारग स्वामी दावि रे
|| तीथं ।। २. 11 नमिनाथ सुर राइ सुरपति रे २ तीन मुवन सुर भेटीइ रे
__ | तीर्थ ।। २६ ।। नेमिनाथ बाल समाचार बाल पगि २ संयम बरी रे ।। तीर्थ ।। २२ ।।
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भट्टारक यशकीत्ति
१६३
श्री पास लाथ जिन राउ प्रतिसय रे २
___ दोसि महीयल दीपत रे ।। तीर्थ ।। २३ ।। श्री महावीर जिनराज इद्रि रे २ मेरु सिहर
महिमा कीउ रे ।। तीर्थ ॥ २४ ॥ जे जपनि नर नारि भाषि रे २ गुणगाई स्वामी तणा रे ।। ते पामि भव पार श्री यसकोरति मुनिवर भगिरे।। २५ ।।
इति चौबीस तीर्थकर भावना
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ब्रह्म यशोधर
ब्रह्म पशोधर १६ वी शताब्दि के कवि थे । 'भट्टारक सोमकीति के शिष्य एवं भट्टारक यक्षाःकोलि के प्रशिष्य भ. विजन सेन को इन्होंने अपना गुरु माना है जिससे यह स्पष्ट है कि इन्होंने दोनों का ही शासनकाल देखा था। पौर यह भी संभव है कि इन्हें अपने प्रारम्भिक जीवन में १० सोमकीत्ति के भी पास रहने का सुअवसर मिला हो क्योंकि कुछ पदों में इन्होंने सोमकीति भट्रारक को भी अपने गुरु के रूप में स्मरण किया है ।
भट्टारक सोमकीत्ति को परम्परा के अतिरिक्त, इन्होंने भट्टारक मलकीति की आम्नाय में होने वाले भट्टारक विजयकोत्ति का भी गुरु के रूप में स्मरण किया है और अपने गुरु की प्रशंसा में एक गीत भी लिखा है। इससे यह स्पष्ट है कि ब्रह्म प्रशोधर सभी भट्टारकां के पास जाया करते थे और उनके च सालों में बैठ कर साहित्य साधना किया करते थे। जन्म
ब्रह्म यशोधर का जन्म कहां हुआ था। कौन इनके माता पिता थे, कितनी प्रायु में इन्होंने ब्रह्मचारी पद प्राप्त किया लथा कितने समय तक वे साहित्य साधना करते रहे इन प्रश्नों का उत्तर देना कठिन है क्योंकि उन्होंने अपनी कृनियों में इस सम्बन्ध में कोई प्रकाश नहीं डाला। साधु बनने के पश्चात् गृहस्थावस्था का सम्बन्ध बतलाना शास्त्र सम्मत नहीं माना जाता इसी दृष्टि में ब्रह्म यशोधर ने भी अपना कोई परिचय नहीं दिया। लेकिन अपनी दो रचनायों में रचनाकाल दिया है जिनमें नेमिनाथ गीत में संवत् १५८१ एवं बलिभद्र चुपई में संवत् १५८५ दिया
1. श्री रामसेन अनमि हमा, यसकीरति गुरु जाणि ।
श्री विजन पदि थापीया, महिमा मेर समान
तास सख्य इस उच्चरि, ब्रह्म यशोधर जेह् ।। १६७ ।। 2. श्री सोमकीति गुरु पाट धराधर सोल कला जिमु चंद्र रे ।
ब्रह्म यशोधर इणी परि दीनवी श्री मंध करि पाणंदूरे ।। ७ ।। 3. श्री काष्ठा संघ कुल तिलु रे, यती सिरोमणि सार ।
श्री विजय कीरति गिरुउ गणघर श्री संध करि जयकार ॥ ४ ॥
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ब्रह्म यशोधर
है । इसी तंवद १५८५ में इन्होंने मुटके में कुछ पाठों की लिपि भी की थी।
जिन भट्टारकों का इन्होंने अपनी रचनामों में स्मरण किया है। उनके आधार पर न यशोधर का जन्म संवत् १५२० के पास पाम हुमा होगा। इनके जन्म स्थान के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता । किन्तु इन्होंने अपनी रवनामों में बसपालपुर (बांसवाड़ा) गिरिपुर (डूगरपुर) एवं स्कंवनगर का उल्लेख किया है। इससे पता चलता है कि इनका बागड प्रदेश मुख्य स्थान था और इसलिये जन्म भी इसी प्रदेश के किसी ग्राम प्रथया नगर में हुआ होगा।
ब्रह्म यशोधर के पूर्व बन जिन दास हो चुके थे जिन्होंने राजस्थानी में विशाल साहित्य की सर्जना करके सबको चकित कर दिया था । द्र० यशोधर भी उन्हीं के पद चिह्नों पर चलने वाले साधु थे । यही कारण है कि उन्होंने जीवन के पन्तिम क्षण तक साहित्य देवता को अपने आपको समर्पित रखा । शिक्षा
अह्म यशोधर ने सर्व समम शोमीर के पास जा पश्चात् म: यश कीत्ति के पास शिक्षा प्राप्त की थी। संस्कृत एवं राजस्थानी भाषा पर अघिकार प्राप्न या । सर्व प्रथम इन्होंने ग्रन्थों की प्रतिलिपि करने का कार्य प्रारम्भ किया । इनकी लिपि बहुत सुन्दर धी। छोटे एवं गोल याकार वाले अक्षर लिखना इन्हें बहुत प्रिय था । इनके स्वयं के द्वारा लिखे हये गुटके में पाठों का संग्रह मिलता है जैसे इन. प्रक्षर वैसा ही इनका निर्मल स्तभाव था । विहार
कविवर १० यशोधर अधिकांश समय भद्वारकों के माथ रहते थे या फिर उनकी गादी में रह कर प्रध्यवन एवं लेखन किया करते थे । स्वतन्त्र रूप में विद्यार नहीं होता था वैसे इनका अधिकांश समय साहित्य निर्मागा में व्यतीत होता था। रचनायें
कवि को अब तक निम्न रचनायें उपलब्ध हो चुरी है । 1. नेमिनाय गीत-(रचना काल सं० १५८१)
1. संवत पनर एकासीइ जी वसपाल पुर सार । नेमिनाथ गीत 2. गिरिपुर स्वामीय मंडणु श्री संध पूरवि पास रे ।। मल्लिनाथगीत 3. सबत पनर पच्चासीह स्कव नयर मझारि
भणि प्रजित जिनपर तणि, ए गुण गाया सार ।। १८२ बलिभद्र चुपई
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१६६
प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
2. बलिभद्र चुपई (रचना सं० १५८५) 3. विजयीत्ति गीत 4. वासुपूज्य गीत 5. वैराग्य गीत 6. नेमिनाथ गीत 7. 8. मल्लिनाथ गीत 9. पद संख्या १८
उफ रपनामों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है-- २. मिाथ नील
कषि की संवतोल्लेख वाली दो रचनामों में से नेमिनाथ गीत प्रथम रचना है जिसका रचना काल सं० १५८१ है। रचना स्थान बसपालपुर (बांसवाडा) है । प्रस्तुत गीत में २८ अन्तरे हैं जिनमें २२ वें तीर्थकर नेमिनाथ की एक झलक मात्र प्रस्तुत की गयी है। गीत में राजुल नेमिनाथ को सम्बोधित करके अपनी बेदना व्यक्त करती हैं और जब समझाने पर भी नेमि वापिस नहीं लौटते हैं तो स्वयं भी दीक्षा ले लेती हैं।
नेमिकुमार भड सचिरया जी अलुग्गा सहिर मझारि । पंच महाव्रत आदरथा जी, राल्यु सवि सिरागार ।
हे राजिल मम करि मोह प्रयारण मोह हुइ परम नीहारण रे राजोल । प्रस्तुत कृति को अपूर्ण प्रति गुटझे में संग्रहीत है। केवल अन्तिम कुछ पद्य उपलब्ध होते हैं । २७ वा पद्य निम्न प्रकार है
ब्रह्म यशोधर इम कहि जी भएसि जे नर नारि ।
स्वर्ग तयां सुस्न भोगवी जी लहिसि मुगति यार | हो स्वामी। २. बलिभद्र चौपई—यह कवि की अब तक उपलब्ध रचनानों में सबसे रही । रचना है । इसमें १८६ पद्य हैं जो विभिन्न ढाल, दूहा एवं चौपई आदि छन्दों में विभक्त है । कबि ने इसे सम्बत् १५८५ में स्कन्ध नगर के अजितनाथ के मन्दिर में सम्पूर्ण किया था।
१. संवत पनर पच्यासोई, स्कन्ध नगर मभारि ।
भवरिण मजित जिनवर तणी, ए गुण माया सारि ।। १८८॥
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ब्रह्म यशोधर
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रचना में श्रीकृष्ण जी के भाई बलिभद्र के परित्र का वर्णन है । कथा का संक्षिप्त सार निम्न प्रकार है
द्वारिका पर थीकृष्णजी का राज्य था । बलिभट उनके बड़े भाई थे। एक बार २२ वें तीर्थकर मिनाथ का उघर विहार हुमा | नगरी के नरनारियों के नाथ वे दोनों भी दर्शनार्थ पधारे । बलिभद्र ने नेमिनाथ से जब द्वारिका के भविष्य के बारे में पूछा तो उन्होंने १२ वर्ष बाद द्वीपायन ऋषि द्वारा द्वारिका दहन की भविव्यवाणो की 1 १२ वर्ष बाद ऐसा ही हुमा । श्रीकृष्ण एवं बलराम दोनों जंगल में चले गये और जब श्रीकृष्णा जी सो रहे थे तो जरदकुमार ने हरिण के धाम में इन पर बारण कला दिया जिससे वहीं उनकी मृत्यु हो गई । जरदकुमार को जब वस्तुस्थिति का पता लगा तो वह बहुत पछताये लेकिन फिर क्या होना था। बलिभद्र श्रीकृष्ण जी को अकेला छोड़कर पानी लेने गये थे, वापिस पाने पर जब उन्हें मालूम हुना तो 4 बड़े शोकाकुल हुए एवं रोने लगे और मोह से छह मास तक अपने भाई को मामातीर को नए यूको समान में एक ममि ने जब उन्हें संमार की प्रसारता बतलाई तो उन्हें भी वैगग्य हो गया और अन्त में तपस्या करते हा निर्बागा प्राप्त किया। चौपई की सम्पूर्ण कथा जैन पुराणों के माधार पर निबद्ध है।
चौपई प्रारम्भ करने के पूर्व सर्व प्रथम कवि ने अपनी लघुता प्रगट करते हुए लिया है कि न तो उसे व्याकरग्य एवं छंद का बोध है और न उचित रूप से अक्षर ज्ञान ही है । गीत एवं कवित्त कुछ माते नहीं है लेकिन वह जो कुछ लिख रहा है वह सब गुरु के आशीर्वाद का फल है. -
न लहूं व्याकरण न लह छन्द, न लहु अक्षर न लह बिंद 1 हूँ मूरख मानव मति नहीं, गीत कवित्त नवि जाणु काही ।।२।।
बोहा सुरज ऊग्य तम हरि, जिम जलहर बुष्टि ताप । गुरु बमणे पुण्य पामीठ, मडि भत्रंतर पाप ||४| मुरख परिण जे मति लहि, करि कवि पतिसार । बह्म यशोधर इम कहि, ते सहि गुरु उपगार ।।६।।
उस समय द्वारिका वैभव पूर्ण नगरी थी। इसका विस्तार १२ योजन प्रमाण था । वहां सान से तेरह मंजिल के महल थे। बड़े-बड़े करोड़पति सेठ वहां निवास करते थे। श्रीकृष्ण जी याचकों को दान देने में हर्षित होते थे, मभिमान नहीं
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TE,
आचार्य सोमकीत एवं ब्रह्म यशोधर करसे थे । वहां चारों ओर बीर एवं योद्धा दिखलाई देते थे । सज्जनों के अतिरिक्ष दुर्जनों का तो वहां नाम भी नहीं था।
कवि ने द्वारिका का वर्णन निम्न प्रकार किया हैनगर द्वारिका देश मभार, जाणे इन्द्रपुरी अवतार । बार ओमरण ते फिरतुवसि, ते देखी जन मन उलसि ।।११।। नव खण तेर खरणा प्रासाद, टह अंणि सम लागु बाद । कोटीधज तिहां कहीइ घग्गा, रत्ल हेम हीरे नहीं मरा ।।१२।। याचक जननि देइ दान, न हीयष्टि हरष नहीं अभिमान । सूर सुभट एक दीसि घणा, सज्जन लोक नही दुर्जणा ।।१३।। जिण भवने धज वड भरहरि, शिखर स्वर्ग सुवातज करि । हेम मूरप्ति पोकी परिमापप, एके रत्न अमू लिक जाण || १४||
द्वारिका नगरी के राजा थे श्रीकृष्ण जी जो पूगिामा के चन्द्रमा के समान मन्दर थे 1 बे छप्पन करोड़ यादवों के प्रधिपति थे। इन्हीं के बड़े भाई थे बलिभद् । स्थणं के समान जिनका शरीर था। जो हाथी रूपी शनों के लिए सिंह थे तथा हल जिनका आयुध था। रेवती चनको पटरानी थी । बड़े-बड़े वीर योद्धा उनके सेवक थे। वे गुणों के भण्डार तथा सत्यव्रती एवं निर्मल-चरित्र के धारण करने वाले थे
दूहा
तस बंधव अति रूयड रोहिण जेहनी मात । बलिभद्र नामि जागयो, वसुदेव ते हनु तात ||२|| कनक वरणं सोहि जिसु, सत्य शील तनुवास । हेमघार घर सि मा, ईहरण पूरि प्रास ।।२६॥ प्ररीया मद गज केशरी, हल प्रायुध कन्सिार । सुदृड सुभट से वि सदा, गिरुउ गुणह मंडार |॥३०॥ गटराणी तस रेवती, सील सिरोमणि देह । धर्म धुरा झालि सदा, पति अविहद नह ॥३१॥
उन दिनों नेमिनाथ का बिहार भी उपर ही हुआ। द्वारिका की प्रजा ने नेमिनाथ का स्वागत किया। भगवान श्रीकृष्णा, बलभद्र प्रादि सभी उनकी वंदना के लिए उनकी सभागृह में पहुंचे । बलभद्र ने जब द्वारिका नगरी के बारे में प्रश्न पूछा तो नेमिनाथ ने उसका निम्न शान्दों में उत्तर दिया--
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ब्रह्म यशोधर
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दहा-सारी वाणी संभली, बोलि नेमि रसाल ।
पूरव भवि अक्षर लखा, ने किम थाह पाल १७१॥ चुप-द्वीपायन मुनिवर जे सार, ते करसि नगी संधार ।
मद्य मांड जे नामि कही, तेह थकी वली बलसि सही ।।७२।। पोरलोक सनद लिसि, वे मंत्रम नीलसु तिसि । तमह सहोदर जरा कुमार, ते हनि हाथि मरि मोरार ||७३।। बार बरस पूरि जे तलि, ए कारण होसि ते सलि । जिणवर वाणी अमीय समान, सुरणीय कुमर तब बाल्यु गनि !|७४||
बारह वर्ष पश्चात वही समय पाया । कुछ यादवकुमार अपेय पदार्थ पीने से उन्मत्त हो गए । वे नाना प्रकार की क्रियायें करने लगे। द्वीपायन मुनि को जो बन में तपस्या कर रहे थे उन्हें देखकर वे चिटाने लगे।
तिणि अवसरि ते पीधू नीर, विकल रूप ते थमा शीर। से परवत था पाछावलि, एकि विसि एक धरणी ढाल ।।२।। एक नाचि एक गाइ गीत, एक रोइ एक हरषि चित्त । एक नासि एक उडलि घरि, एक सुइ एक क्रीडा करि ||३|| इणि परि नगरी प्रावि जिसि, विपायन मुनि दी तिसि । कोप करीनि ताष्टि ताम, देर गालवली लेइ नाम ||४||
हीपायन ऋषि के साप से द्वारिका जलने लगी और श्रीकृष्णाजी एक बलराम अपनी रक्षा का कोई अन्य उपाय न देखकर वन की पोर चले गये 1 वन में श्रीकृष्ण की प्यास बुझाने के लिए बलिभद्र जल लेने चले गये । पीछे से जरद कुमार ने सोते हुये श्रीकृष्ण को हरिग समझ कर वारण मार दिया। लेकिन जब जरदकुमार को मालूम हुना तो वे पश्चाताप की अग्नि से जलने लगे । भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें कुछ नहीं कहा और कौ की विडम्बना से कौन बच सकता है यही कहकर धैर्य धारण करने को कहा--
काहि कृष्ण मुणि जराकुमार, मूड परिण मम बोलि गमार । संसार तणी गति विषमी होइ, होयडा माहि विचारी जो 1!११२।। करमि रामचन्द वनिगड, कमि सीता हरणज भउ । फरमि रावण राज जटिली, करमि लेक विभीषण फली ॥११३।।
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प्राचायंसोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर हरचन्द राजा साहस धीर, करमि अघमि घरि प्राण्यु नीर । करमि नस नर चूकू राज, दमयन्ती बनि कीची त्याज । ११४।।
इनने में वहीं पर बलिभद्र मा गये और श्री कृष्ण जी को सोता हुआ जानकर जगाने लगे । लेकिन वे तब तक प्राणहीन हो चुके थे । यह जानकर बलिभद्र रोने लये तया अनेक सम्बोधनों से अपना दुःव प्रकट करने लगे । कवि ने इसका बहुत ही मार्मिक शब्दों में वर्णन किया है।
जल विण किम रहि माछलु, तिम तुझ विष्णु बंध । विरीइ वनजिउ सासीउ, साल्या असला रे संघ ॥१३०।।
यद्यपि रचना में मुख्यतः चुपई एवं दोहा छन्द है लेकिन बस्तु बंध छन्द, एवं दो ढालों का भी प्रयोग हुआ है। त्रस कवि को दोहा एव चौपई छन्द में काव्य रचना में अभ्यस्त था । १६ वीं शताब्दि में दोहा एवं धौपई दोनों ही छन्द प्रत्यधिक लोकप्रिय हो चुके थे तथा पाठक भी इन्हीं छन्दों को पसन्द करते थे।
भाषा
बलिभद्र चुपई राजस्थानी भाषा की कृति है । यद्यपि कवि का गुजरात से प्राधिक सम्बन्ध था लेकिन राजस्थानी भाषा से उसे अधिक लगाव था । फूल्या (४२) रयण (रत्न) सिंघासण (सिंहासन) ३६, श्राब्बा (प्राया ४८) मानथंभ (मानस्थंभ ५६) खंच्यू (सेंचा १०६) जाग्यु (जगना १२६) जैसे शब्दों को बहुलता से देखा जा सकता हैं 1
बलिभद्र चुपई के कुछ वर्णन तो बहुत ही अच्छे हुए हैं । भगवान नेमिनाथ का समवसरण क्या पाया मानों चारों ओर धन धान्य, हरियाली, सघन वृक्ष, बसंत जैसी बहार ही मा गयी इसी का एक बर्णन कवि के शब्दों में देखिये
फूल्या वृक्ष फली धरण लता अनेक रूप पंखी सेवता । ठामि ठामि कोइल गहि गहि, मधु पल्लत्र केतकि महि महि ।१४।। जिणवर महिमा न लहुं पार, रतु छोडी तरु फलीया सार ।
माग्या मेत्र ते वरसि सदा, दुर्भाख्य बात न सोयणे कदा ॥४३।। जन दर्शन में कर्म सिद्धान्त पर गहन विवेचन मिलता है। कवि ने भी कमों की भाषा का सोदाहरण वर्णन करके कर्मों के प्रभाव की पुष्टि की है। इसी पर आधारित एक पाठ देखिये
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ब्रह्म यशोधर
करमि ऋद्धि वृधि पामि बहू एके निरघन कमि सहूं कमि करि ते निश्शि होई काटम कारण नवि छूटी कोइ ।।११३॥ हर चंद राजा साहस धरि, कमि प्रघम परि प्रयुनीर ।
करम नल नर चकू राज, दमयंती बनि कोधी त्याज ।।११।। लेकिन धर्म की महिमा कम नहीं है। जिसने भी धर्म को जीवन म उतारा उसी का जीवन सफल हो गया। बलिभद्र चुपई में कवि ने धर्म के महात्म्य का वर्णन करते हुए लिखा है--
धरमि धन बह संपजि, राजा रयण भंडार । धरमि जस महीयल फिरि, उत्तम कुल प्रवतार ।।१८२।। घरमि मन पीन्यु फलि, दूर देशंतर जेह । हा गज नाम परत या काल . १८३१ धरम नर महिमा हह, परमि लहीइ शान । घरमि सुर सेवा करि, धमि दीजि दान ।।१।। धर्म तणा गण बहू अछि, ते बोल्या किम जाए।
चुगि रु टालसि, जो धुरि धर्म दयाल ॥१८५।। 3. विजयकोत्ति गीत
विजय कीनि भट्टारक थे तथा भट्टारक ज्ञानभूवरण के शिष्य एवं भट्टारक शुभचन्द्र के गुरु थे । ये भट्टारक सकलकीति की परम्परा के माधु थे। उनके महान ध्यक्तिहव के कारण परवर्ती कितने ही भट्टारकों एवं कवियों ने उनकी प्रर्शसा की है। व० सामराज ने उन्हें सुप्रचारक के रूप में स्मरण किया है। भ. सकलभूषण ने यशस्वी महामना, मोक्ष सुखाभिलाषी आदि विशेषणों से उनकी कत्ति गायी है। भ० शुभचन्द्र भी उन्हें यतिराज, पुण्यत्ति प्रादि विशषम्गों से अपनी श्रद्धांजलि पित की है। भट्टा क देवेन्द्र कीत्ति एवं लक्ष्मीचन्द चांदवाड ने भी अपनी कनियों में बिजय कीति का गगनुवाद किया है।
1. विजयवी त्तियो ऽभवन भट्टारकोपदेशिनः । जयकुमार पुराण 2. भट्टारकः श्री विजयादिकात्तिम्त दीयरहे दर लम्धकात्तिः ।
महामना मोक्ष सुखामिलापी वभूव जनावनी प्राय॑ पादः । उपदेश रलमाला 3. विजयकीति तस पटधारी, प्रगटया पूरण मुखकार रे । प्रद्युम्न प्रदन्ध 4. तिन पट विजयीनि जवंत, गुरु अन्यमति परवत समान । श्रेगिक चरित्र
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प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
ब्र यशोधर ने भी भ. विजयकीति की प्रशंसा में एक पूरा गीत लिखा है । जिससे पता चलता है कि उनकी विजय कीत्ति के प्रभावक जीवन में पूर्ण श्रद्धा थी। यशोधर ने लिखा है कि बचपन में ही मिजप कीत्ति ने संपम धारण कर लिया तथा समलकीत्ति की वाणी को सुन कर प्रसन्नता से भर गये थे । संमार को संसार जामकर पंच महादत स्वीकार किये नया विश्वसेन मुनि के पास आकर दीक्षा ले ली। वे बाईस परिषहों के सहने लगे ।
विजाति की जान लीसा घा! विजयकत्ति के प्रभाव के सामने अनेक राजा महाराजा नत मस्तक थे जिसमें मालवा, मेवाड़, गुजरात, सौराष्ट्र एवं सिंध के अनेक राजा थे। दक्षिण में महाराष्ट्र, कोंकण के प्रदेश थे । वे ३६ लक्षणों वाले थे तथा ७२ भाषानों के जानकार थे । वे काष्ठा संघ के यति शिरोमणि थे।
पागम वेद सिद्धान्त व्याकण भाषि भवीपण सार । नाटक छंद प्रमारण बूझि नित अपि नवकार ॥ श्री काष्टसंघ कुल सिलु रे यती सरोमणि सार ।
श्री विजयकोरप्ति गिरुड गणधर थी संघ करि जयकार ।।४ ।। ४ वासुपूज्य गीत
बंसपाल बांसवाडा) नगर में वासुपूज्य स्वामी का जिन मन्दिर था । प्र. यशोधर की उनके प्रति अतीव श्रद्धा थी इसीलिये सभी समाज से बासुपूज्य स्वामी के दर्शन, पूजा एवं स्तवन करने के लिमे प्राह्वान किया है। कवि ने लिखा है कि वासुपूज्य स्वामी के ग्रागे भाव विभोर होकर अष्टमकारी पूजा करने के लिये कहा है तथा निम्न प्रकार पूजा करने का फल बतलाया है -
अष्ट प्रफारी जिनवर पूज करेमि रे । भावि भक्ति लक्ष्मी सक्ति संसार तेरसि रे ।। नवर बंशबाला मंडण तु स्वामी रे बह्म पशोधर प्रति घणु वलिवि
देयो तम गुणग्राम रे ॥१२॥
गीत की राम कामोद धन्यामी है जिसमें १२ पद्य है । ५. वैराग्य गोत
यह गीत राम धन्यासी में लिपि बद्ध है । इस गीत में मनुष्य जन्म की
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ब्रह्म यशोधर
दुर्लभता का वर्णन करते हुए विभिन्न प्रकार के पापों से बचने के लिये प्रेरणा दी गयी है । गीत बहुत छोटा है । ६ नेमिनाथ गोस
राजुल' नेमि के जीवन पर यह कवि का दूसरा गीत है । इस गीत में राजुल नेमिनाथ को अपने घर बुलाती हुई उनकी बाट जोह रही है । गीत छोटा सा है जिसमें केवल ५ पद्य हैं । गीत की प्रथम पंक्ति निम्न प्रकार है---
नेम जो प्राणु न घरे घरे।
वाटडीयां जोइ सिवयामा (ला) डली रे ।। ७. नेमिनाथ पीत
__ यह कवि का नेमिनाथ के जीवन पर तीसरा गीत है । पहले गीतों से यह गीत बड़ा है और वह ६६ पद्यों में पूर्ण होता है। इसमें नेमिनाथ के विवाह की घटना का प्रमुम्न वर्णन है । वर्णन मुन्दर, सरस एवं प्रवाह युक्त है । राजुलिनेमि के विवाह की तैय्यारियां जोर शोर से होने लगी। मभी गजा महाराजामों को विवाह में सम्मिलित होने के लिये निमन्त्रण पत्र भेजे गये । उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम आदि सभी दिशामों के राजागण उस बारात में सम्मिलित हुये । इसे वर्णन को कवि के शब्दों में पढिये:
कुकम पत्री पाठवी रे, नुत्र प्रावि प्रतिसार । दक्षिण मरहा गालवी रे, कुकरण कन्नड राउ ।।२।। गूजर मंटल सोरठीयारे, सिन्धु सबाल देश । गोपाचल नु राजाउरे, नीलो प्रादि नरेस ।। २३ ॥ मलवारी मारुयाडना रे. बुर सारणी सवि ईस ।
बाग-बी उदल मजकरी रे, लाड गउडमाघीस ॥२४॥
कवि ने उक्त पद्यों में दिल्ली को 'ढीली' लिखा है। १२ वीं शताब्दी के प्रपभ्रण के महाकवि श्रीधर ने भी अपने पासचरिज में दिल्ली को इल्लीशब्द से सम्बोधित किया था।
वागतियों के लिये विविध पल मंगाये गये तथा अनेक पकवान एवं मिठाइया
१. विक्कामग्दि सुपसिद्ध कालि, दिल्ली पण घण कण बिमालि ।
सनवासी प्रारह सरगिह, परिवाडि परिसह परिंगरादि 11
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प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
बनायी गई । कवि ने जिन व्यजनों के नाम गिनाये हैं उनमें अधिकांश राजस्थानी मिष्ठान हैं कवि के शब्दों में इसका प्रास्वादन कीजिये
पकवान नीजि नित नवां रे, मांडी मुरकी क्षेत्र । खाजा, खाजडली दी भरां रे फेवर घेवर हेव ।। २५ ।। मोतीया लाडू रंग लगा रे, सेवइया प्रतिसार । काकरी पापड सूषीयारे, साकरि मिश्रित सार ।। २६ ।। सालीया तंदुल रूपडारे, उज्जल प्रखंड अपार ।
प्रखंडी धार ।। २७ ।।
मूंग महोरा प्रति भला रे, घृत राजुल का सौन्दर्य अवर्णनीय था। पांवों के नुपुर मधुर शब्द कर रहे थे वे एसे लगते थे मानों नेमिनाथ को ही बुला रहे हों । कटि पर सुशोभित 'कनकती' चमक रही थी । अंगुलियों में रत्नजटित अंगूठी, हाथों में रत्नों की ही चूडियां तथा गले में नवलख हार सुशोभित था । कानों में भूमके लटक रहे थे । नयन कजरारे थे। हीरों से जड़ी हुई ललाट पर खड़ी (बोरला ) चमक रही थी। इसकी वेणी दण्ड उतार (उपर से मोटी तथा नीचे से पतली ) यो इन सब माभूषणों से वह ऐसी लगती थी कि मानों कहीं कामदेव के धनुष को तोड़ने जा रही हो—
पायेय नेउर रणमिरे, घूघरी नु घमकार |
कटियंत्र सोहि रुटी मेखला रे भ्रमणु झलक सार ||४३|| रत्नजड़ित रूड़ी मुद्रकारे, करियल चूड़ीतार । बाहि विटा रूड़ा बहिरखारे, होयडोलि नवलबहार ॥ ४४ ॥ ॥ कोटीय टोडर रूयड्डु रे श्रवणे भबकि झाल
नल विट टीलु तप तपि रे, खीटलि खटक चाईल ॥१४५॥ चांकीम भरि सोहामणी रे, नयले काजल रेह 1 कामिधेनु जाणु तोडीउरे, नर मन पाड़वा एह ।। ४६ ।। हीरे जड़ी रूड़ी राखड़ी, वेणी दंड उतार |
म
पन्नग जाणे पासीउरे, गोफणु लहि किसार ||४७।।
नेमकुमार खरण के रथ में विराजमान थे जो रत्न जड़ित था तथा जिसमें हाँसना जाति के घोड़े जुते हुये थे । नेमिकुमार के कानों में कुण्डल एवं मस्तक पर छत्र सुशोभित थे । वे श्याम वर्ण के थे तथा राजुल की सहेलियां उनकी ओर संकेत करके कह रही थी यही उसके पति हैं ?
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ब्रह्म योगधर
नवखणु रथ सोवण मिरे, रयण मंडित सुविसाल 1
हांसला अश्व जिणि जोत रे, लह लहधिजाय श्रपार ।। ५१ ।। कानेव कुंडल तपतप रे, मस्तिक छत्र सोहति ।
सामला वरण सोहाम जुरे, सोइ राजिल तो कंत ॥ ५२ ॥
इस प्रकार रचना में घटनाओं का श्रच्छा वर्णन किया गया है । अन्त में कवि ने अपने गुरु को स्मरण करते हुए रचना की समाप्ति की है ।
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श्री मनकीति सुताउति
यशोधर भलिवार
चरण न छोडउ स्वामी तला, मुझ भयका दुःख निवार || ६ || असि जितेसर सभिल,
प्रवतार
नव निधि तस घरि उपजि रे, ते तरसि रे संसार || ६६ ।।
भाषा - गीत की भाषा राजस्थानी है । कुछ शब्दों का प्रयोग देखिये -
मासु गाऊंगा ( १ ) कांई करू-क्या करू (१ नोक्त्या रे निकला (३) तहम श्रह्म (5) तिहां (२१) नजर (४३) मावा (५३) तोरू (तुम्हारा) मोरू (मेरा) (५०) उतावलु (१३) पाठवी (२२)
नन्द- सम्पूर्ण गोल गुडी (गोडी) राग में निबद्ध है ।
5. मल्लिनाथ गीत
के रूप
डूंगरपुर स्थित दि. जैन मन्दिर में मल्लिनाथ स्वामी की प्रतिमा के स्तवन मै प्रस्तुत गीत लिखा गया है। इसमें उनके पंच कल्याणकों की महिमा का वर्णन किया गया है। गीत में अन्तरे हैं। अन्तिम पाठ निम्न प्रकार है
ब्रह्म यशोधरनिवि हृवि तहम तणुदास रे
मिरिपुर स्वामीय मंड़णु श्री संघ पुरात्रि घाम रे ॥४॥
६. पव साहित्य
ब्रह्मोवर ने अब तक १८ पद मिल कुके हैं जो विभिन्न राग-रागनियों में निबद्ध है । कवि ने अधिकांश पदों में नेमि राजुन का वशन किया है। कहीं राजुल को विरह-वेदना है तो किसी में तोरगृह द्वार से लौटने की घटना पर क्षोभ प्रगट किया गया है। ऐसा लगता है कि ब्रह्म यशोधर भी भट्टारक रत्न कोनि गर्भ कुमदचन्द्र के समान नेमि राजुल कथानक से अत्यधिक प्रभावित थे और उनके विविध रूप पाठकों के सामने रखना चाहते थे। कुछ पदों में भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति की गयी है । एक पद अपने गुरु यशःकीति की प्रशंसा में लिखा गया है ।
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आचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
१७ वीं एवं १८ वीं शताब्दियों अपने गुरु भट्टारकों का गुणा गान करने की प्रथा थी । इन पदों में इतिहास ने कितने ही तथ्य छिपे हुए होते हैं ।
राग सवाब में कवि में कबीरदास के समान ही अपने में संसार की गहनता पर चर्चा की है तथा चौरासी लाख योनियों में यह प्राणी अनेक पंथों एवं धमों में भटकता रहता है लेकिन उसे तारनहार कोई नहीं मिलता। इसलिये जिनदेव हो एक मात्र तारनहार है इन्हीं तथ्यों पर आधारित यह पद्य लिखा गया है। पद बहुत छोटा है लेकिन सारगर्भित है ।
इस प्रकार ब्रह्म यशोधर का सम्पूर्ण साहित्य अत्यधिक महत्वपूर्ण है । वे ग्रपने समय के समर्थ कवि थे तथा समाज में प्रत्यधिक लोकप्रिय थे। अपनी खोटी२ रचनाओं के माध्यम से वे पाठको में अपनी कृतियों के पठन-पाठन में रुचि पैदा किया करते थे । उन्होंने सब से अधिक नेमि राजुल से सम्बन्धित कृतियां लिखी श्री फिर चाहे वे छोटी हो या बड़ी ।
कवि ने पना पूरा साहित्य राजस्थानी भाषा में लिखा है। राजस्थानी भाषा से उन्हें अधिक लगाव था और उनके पाठक भी इसी भाषा को पसन्द करते थे । वास्तव में उच्च शताब्दि में होने वाले अधिकांश जैन कवियों ने राजस्थानी भाषा में अपनी रचना निबद्ध करने को प्राथमिकता दी थी।
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बलिभद्र चुपई
प्रणमी जिनवर जिनवर रिसङ्, जे नाम जुगला धर्म निवारण : संसार सागर तरण तारण सारद सामिण बली नवु सुमति सारठे वेग मागु । कूड कुबुधि सवि परिहरु हंस बाहरण तुझ पाय लागु ।
माव भक्ति पूजा रची साहि गुरु अलण नमेस । • कर जोडी कवियण कहतु हलधर चरित कहेस । १ ।
चुपई ने लहुँ व्याकरण न सहु छंद न लहुं प्रभर न लहुं विद । है मूरख मानव मति नही । गीत कदित नवि जाणु कहीं ।। २ ।। कोइल समरि जिम सहिकार । वप्पहीउ समरि जल धार | चक्रवाक रवि समरि जेम । गुरु वाणी हु समरु तेम ।। ३ ।। गुरु वचने अक्षर पामीइ । गुरु बनने पातिक वामोइ । गुरु वचने मन लहीइ ज्ञान 1 गुरू वचने घरि नव निधान ।। ४ ।।
दहा सूरज उग्यु तम हरि, जिम जलहर वूठि ताप । गुरु थपणे पुण्म पामीर, झसि भवंतर पाप ।। ५ ।। मूरत परिण जे मति लहि, करि कवित अति सार । ब्रह्म यशोधर इस काहि ते साहि गुरु उपगार ।। ६ ॥ सो ए गुरु वाणी मनि धरी, कवीयपनि प्राधार । रास कह रलीयामणू, अक्षर रयण मंडार ।। ७ ।।
चुपई अवनीय जंबूदीप वखाण । भरह ख्येत्र तस भित्तर जागि ।
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प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
सोरठ देश अपूरव कही, प्रवर देश कोइ ऊपम नहीं ।। ८ ।। नयर अपूरव दीसि घणा, कंधण रयण तशी नही मणा । वनि वनि वृक्ष तणु नहीं पार, रायण पूग पनि सहकार ।। ६ ।। नागवेल खजूरी एल, दाडिम द्राक्ष मंडप धणु केल ।
वाव सरोवर कूप प्रपार, घरि घरि मंचया सबेकार ।। १० । द्वारिका नगरी वर्णन
नगर द्वारिका देश मझारि, जाणे इन्द्रपुरी अवतार । बार जोयण ते फिरतु वसि, ते देखी जन मन उलसि ।। ११ ।। नव खरण तेर स्वरमा प्रासाद, हद्द श्रेणी सम लागु वाद । कोटीधज सिहां कहीइ घणा, रन हेम होरे नही मणा ॥१२॥ याचक जननि देई मान, हीयडि हरष नहीं प्रमिमान । सुर सुभट एक दीसि घणा, सज्जन लोक नही दुर्जणा ॥ १३ ।। जिरण भवने धज वह फरिहरि, शिधर स्वर्ग सुवातज करि । हेममूरति पोढी परिमाण, एके रत्न प्रमूलिक जाणि ।। १४ ॥ जिन चत्याले मंडी घणी, दीठिया पथयारी बणी। धर्मवंत लोके घण पूर, दुःख दालिद तिहां नासि दूर ।। १५ ।। जिन मंदिर ते पूजा करि, भवह तणां पातिग परिहार । झालिर ढोल भेर भर हरि, वेग वस मधुर सरकरि ॥१६॥ नाचि खेला प्रवला बाल, वा इकांसी मरुज बिसाल । सरणाई रव सोहि घणा, धुलि पाप पूरव भव तणा ॥ १७ ॥ पुरी पाषि लगि रूह प्राकार, सोना सहित कोसी ससार ।' च्यार पोल तोरण सह घड़ी, माणिक मोती हीरे जड़ी ॥ १८ ।। समुद्र सरीषी पाई जाणा, अभिनत्री इन्द्रपुरी परिणाम ।
उत्तम लोके पूरी खरी, इन्द्रादेशी धनपति करी ।। १६ ।। श्रीकृष्ण महिमा
तस पनि सोई क्रिशन नरेंद, गृह गण माहि जिम पूनिमचंद । सबह परवत्त मेर गिरीम, छपन कोटि कुल कृष्न अधीश ॥२०॥ बाल परिण घड्या सुर बार, घरघ, गोवद्धन करि तीणी वारि । गोवत्स रख्या कारणि जेण, संख पत्र धनु सा तेश ॥२१।।
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बलिमद चुपई
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काहनड वेगि पयालि गउ, कमल नालि वासिंग नाथज । एकि एकि पन सहस्र पंखही, ते लेई याच्यु एकि घड़ी ॥ २२ ।। नाग सेज बिसहर जिणी नउघ, दत्य दारणद असुर सुभउथ । कंस मुष्ट चाणु रह काल' सोई मधसुदन नंद गोवाल ।।२३।। दानि कल्पवृक्ष ले कही, वर्ण अठारह पोषि सही । सूरपरिण परि जीता घणा, लेई दण्ड कीषां प्रापणा ।। २३१ । रूपि भयण तणु अवतार, सोल सहस घारु घगि नारि । रुषमणि सुपटराणी पाठ, नयने मृग जीता वनि काठ ।। २४।। रूपि स्यडी सीलि सती, पाप दूरकरि धरमि रती। देइ दान जिन पूजा सजि, कृष्ण रायनि अह निशि भजि ।।२।। सोनानी परिझलकि देह, दिन दिन बाधिनत्र नन देह । सीह राणी सुविलसी राज, अनोपम अवर नहीं को मान।।२६।। माता मेगलछि घरि जास, हेपारव घण घोड़ा लास । इणी परि वलशि अवनी भूप, प्रवर राइ नही जास सरूप |२७||
बलिभद्र प्रशंसा
तस बंधव अति स्या, रोहिण जेहनी मात । अलिभद्र नामि जाण्यो, वसुदेव तेनु तात ।। २८ ।। कनक वर्ण सोहि जिसु, सत्य शील तनु वास । हेम धार बसि सदा, ईशा पूरि प्रास ।। २६ ।। परीयण मदगज केशरी, हल प्नायुध करि सार । सुहष्ठ सुभट सेवि सदा, गिरउ गुणह भण्टार |13. || पाणी तस रेवती, सील सरोमरिण देह । धमंघुरा मालि सदा, पति सुप्रविहड़ नेह ।। ३१ ।। सुन सागर झीलि सदा, जातु न लहि काल । के बंध व धरणी परि रमि, कारि प्रजा प्रतिपान ।। ३२ ।।
चपई
गिरिवर गिरूह श्री गिरिनार- समोसरचा तिहा नेमिकुमार । समवसरण सोहि मंझाण, रच्यू धनदत्ते कर वषारण ।। ३३ ।।
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आचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
समवकरण का प्रभाव
वाखिल फिरता त्रण प्राकार, च्यार पोल सोबण घणसार । ठामि ठामि हीरा झलकति, माणिक रयण पदारथ पंति ॥३४॥ मानर्थभ घजा फरिहरि, स्वर्ग समी जाणे स्पृदा करि । तेडि भवीन ग देइ मान, एतु कहीइ पुण्य प्रधान ।। ३५ ।। पाव्या सुरपति देव बहूत, करि भक्ति वासव संयुत । रयण सिंघासण मांडय चंग, बिठा जिनवर अनोपम मंगि ।३६।। एके छत्रधरि शिर हेब, चुसठि चामर कालि देव । भेरी रव घंटा एक घणा, सहिजी इन्द्र करि लुच्छणा ।। ३७ ।। गुहिरि दुन्दुभि वंश विसाल, नाचि अएछरा बहु विधि ताल । वांइ वेणा एक गावि गीत, इणी परिररिज जिणवर चिंत ॥३।। गढ़ भितरछि कोठा बार, नाट साल वेदी वर सार । मोती तरणा चुक परि गरि, सची इन्द्र जिन पूजा करि ।। ३६ ।। चिद् दिशि च्यार सरोवर भला, निरमल नीर रमि हंसला । हाटक हीरे बंधी पाल, कमलरिए कमलणि मुधुकर माल ।।४।। बाव चतुंमुख बहु प्राराम, पोइ नीर जिन लेइ विश्राम | खेचर सुन नर क्रीड़ा फरि, मुगति तशी पयडी संचरि ।। ४१ ।। फूल्या वृक्ष फली घरग लता, अनेक रूप पंषी सेवता । ठामि ठामि कोइल गहि गहि, मधु पलव केतकि महि महि ।।४।। जिणवर महिमा न लहु पार, रतु छोड़ी तर फलीया सार । माग्या मेष ते वरसि सदा, दुर्भष्य बात न सोयरमे कदा ।। ४३ ।।
वहा गाइ तणां जे याछरू, करि वाघिण सु खेल। ससक समी सीयालणी, हरि कुन्जर गति गेल ।।४४।। केकी स् विसहर रमि, नाग नकल विह नेह । प्रवर बात सवि परिहरु, जिरणवर प्रतिसि एह ॥४६॥ सारंगीनि सिंघनो बालक रमलि करंति । मांजारीनि हमलु फरी फरी नेह धरति ।।४।।
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बलिभद्र चुपई
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चुपई एक दिवस माली बनि गउ, प्रचरित देषी उभु रह । फल्या वृक्ष सवि एकि काल, जीवे वैर तय्यां दुःखजाल ।। ४७ ।। फरी करी जोषा लागु बन्न, समोसरणि जिन दौठा नि । प्राध्या जाशी नेमिकुमार, नमस्करी पि जयकार ॥ ४८ ।। रुई भेट - भूर, ल, बोडीन: ण दमान | रेवि गिरि जम गुरु प्रावीया, सभा सहित मिव वाधीया ।। ४६ 1 कृष्पा राय सस वाणी सुपी, हरष बदन हउ निहुषंड घणी 1 ग्रालितोष पंचांग पसाउ, दिशि मन मुख थाई नीच राउ ।।५०।। राइ प्रादेश भरी रवकीया, छपन कोडि हीयढि हरषीया । भव्य जीव भाइ घस मसि, करि पौत एक मनमाहि हसि ।। ५१ पट हस्ती पाधरि परिगर , जाणे ऐरावण प्रवतरम । घंटा रवना बण टणकार, विचि विचि घर घम धम सार ।।५।। मस्तकि सोहि कुकुम पुञ्ज, झरि दान ते मधुकर गुज! यांसि हाल नेजा करिहरि, सिणगारी राइ प्रागिन धरि ।। ५३ ।। चङ्यु भूप मेगलनी पूठ, देइ दान मांगत जन मूठ 1 नयर लोक अंतेउर साथि, धर्मतरण धुरि दीघु हाथि ।। ५४ ।।
दसरी ढाल । राग सही को। समहर सजकरी कृष्ण सांच रिया, छपन कोहि परिवरिया ।। छत्रत्रण शिर उपरि धरिया, राही रुषमणी समसरीया ।। साहेलडी जिवर बंदरण जाइ, नेमितणा मुरण गाइ । साहेलडी रे जग गुरु बन्दशा जाई ।। ५५ ॥ कोलतिवल घणु बाजा बाजि, ससर सबद सबे लाजि । गृहिरनाद नीसागा ज गाजि, बेगा वंस विराजि ।सा ।जिरण:५६॥ प्रागलि अपर नाचि सुरंगा, चामर ढालि घंगा । देइय दान प धार जिम गंगा, हीपाल हाप प्रभंगा ।
साहेलड़ी० ॥ ५३॥
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प्राचार्य सोमकोति एवं ब्रह्म यशोधर
मेगल उपरि घडीउ हो रजा, धरइ मान मन माहि । प्रवर राय मुझ समउ न कोई, नयणडे निम जिन चाहिं ।
। साहेल || ५८ ।। मानयंभ दीठि मद भाजि लह लह धजाय ए रूडी। परिहरी कुजर पालु पालि धरः मान मति थोडी
॥ साहेल 1 ५६ || समाचाहि हग मामा शिवार । रयण सिंघासरा बिठा दीठा सिधादेवी तराउ मल्हार
॥साहेस. ।।६० ॥ समुद्रविजय ए अवर बहु राजा बसुदेव बलिभद्र हरषि । करीय प्रदक्षण कृष्ण सुनमीया नयनडे नेमि जिन नरखि
॥ साहेल ।। ६१ ।। वस्तु हरषीया यादव यादव मनह पारणंदि पुरुषोत्तम पूजा रवि नेमिनाथ पलणे निरोपम अल चंदन अक्षत करी सार पुष्प चरु अनोपम दीप धूप सवि फलघणां रचीय पूज घन हाथ । कर जोडी करि बीनती तु बलिभद्र बंधव साथ ।। ६२ ।।
चुपई स्तवन करि बे बंधव सार, जेठच बलिभद्र अनुज मोरार। फरसंपुट जोडी अंजुली, नेमिनाथ सनमुख संभली ।। ६३ ॥ भधीयरण हृदयकमल नु सूर, जांइ दुःख तुझ नामि दूर । घर्मसागर न सोहि चन्द, ज्ञान कर्ण इव वरसि इंदु ।। ६४ ।। तुझ स्वामि सेवि एक घडी, नरग पंथि तस भोगल जड़ी । बाइ वेगि जिम बादल जाइ, तिम तुझ नामि पाप पलाह ।। ६५ ।। तोरा नुण नाथ अनंता कह्या, त्रिभुवन माहि घरणा गहि गह्या । ते सुर गुरु बोल्या नवि जाइ, अल्प बुधि मि केम कहाच ।। ६६ ।।
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बलिभद्र चुपई
नेमनाथ जी अनुमति यही बल केशव ने बिठा सही धम्मदेश का जिन तग्गा, खचर अमर नर हरख्या घा ॥ ६७ ॥
एके दीक्षा निरमल घरी एके राग रोप परिहरी ।
एके व्रत बारि सम चरी, भवसागर इम एके तरी ।। ६८ ।
वहा
प्रस्ताव लही जिरावर प्रति पूछि हलधर बात |
देवे बासी द्वारिका, तेतु अति हि विख्यात ॥ ६६ ॥ त्रि खंड केरु राजीउ, सुर नर सेवि जास | सोइ नगरीनि कृष्ण नु, कीणी परिहोसि नास ॥ ७० ॥ सीरी वाणी संभलि, बोलि नेभि रसाल ।
पूरक भषि प्रक्षर लक्ष्या, ते विम बाइ बाल ।। ७१ ।। चुपई
नेमिनाथ द्वारा भविष्यवाणी
द्वीपायन मुनिवर सांर ते करसि नगरी संधार ।
मद्य भांड जे नाम कहीं, तेह थकी वली बलसि सही ॥ ७२ ॥ पोर लोक सवि जलसि जसि, जे बंधव नीकल तिसि ।
महोदर जराकुमार, तेहनि हाथि मरि मोरार ।। ७३ ।। बार वरस पुरि जेतलि ए कारण होमि तेतलि 1 जिराबर वा अमीय समान सुखीय कुमार तव
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चार रानि ||७४ || कृष्णा दीपायन जे रषि राय मुकलाविनि पर पंड जाइ । बारबर राया, नगर द्वारिकां प्रावु राइ ।। ७५ ।। ए संसार प्रसार ज कही, धन योवन ते थरता नहीं । कुटंब सरीर सह पाल, ममता छोडी धम्मं संभाल ।। ७६ ।। पजुन संबुनि भानकुमार, ते यादव कुल कहीड मार |
छोड़ सवि परिवार, पंत्र महावय लीघु भार ॥ ७७ ॥ कृष्ण नारि जे प्राठि कही सजनसह मोकलावि सही ।
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अशिम चुपई
अह्म प्रादेश देउ हवि नाथ, राजमतीनु लीघु सार्थ ।। ५८ ।। वसुदेव नंदन विलसुथई, नमीय नेमि निज मंदिर गाउ ।
द्वारिका बहन
बार बरसनी अविधज कहीं, दिन सवे पूग प्रावी सही ।। ७६ ।। तणि अवसरि प्राध्यु रषि राय, लेईय ध्यान से रह्य, मन माहि । अनेक कुमर ते यादव तरणा, धनुष धरी रमवाम्या घणा ||८० ॥ वनषंड परबत हीडिमाल, वाजि लूय तथ्या ततकाल । जोतां नीर न लाभि किहा, अपेय थान दीठां से तिहां ।। ८१ ।। तिणि प्रषसर ते पीधु नीर, विकल रूप से थया शरीर । ते परवत था पाछा वलि, एकि बिसि एक धरणी बलि ।। ६२ ।। एक नाचि एक गांव गीत, एक रोशएक हरषि चित्त । एफ नासि एक बलि धरि, एक सूइ एक क्रीडा करि ।। ८३ 11 इणि परि नगरी प्रावि जिसि, द्वीपायम मुनि दीठ तिसि । कोप करीनि ताडि ताम, देइ गाल वली लेई नाम ।। ८४ ।। पाप कर्म ते करि कुमार, पुहता द्वारिका नगर मझारि । केशव प्रागिल कही तीणि वात, द्वीपायन प्री ताड्यु तात ।। ८५ ॥
दूहा कुमर ज वाणि संभली , केशव धरि प्रणाहि । अविहर अक्षर जे सत्या, ते किम पाला थाइ ।। ८६ ॥
चुपई केशाय हलधर के बन जाइ, कर जोडी मुनि लागा पाइ । दोन वचन बोलि प्रति घणा, क्षमु साचु कहि दया मरणा ।। ८३|| कर संज्ञा जाणी तिरिम राइ, अति दुश्य प्राणी नगरी जाइ। अग्नि कोप तब दीठ खह' हलधर कृष्ण उपाय करय ॥८॥ सागर वाल्यु नमरी माहि, तपि तेल जिम धड़हड थाइ । नयर लोकते करि विलाप, पुपत्र भवनु प्रगट्यु' पाप ।। ८६ ।। एक बलता बुबार व करि, बालक लेइ एक नगरी फिरि । एक कहे ऊगायस माइ, एक दुख काया सघन जाई ।। ६० ।। एक मोझा धन धरती धरि, एक लक्ष्मी रषवाला करि । क्षमा एक प्रसरण प्राचार, एके एक क्षमापन करि ।। ६१ ।।
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आचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
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नयर द्वारिका दी नास, हलधर केशव छोड़ी पास 1 लेई तास जब गोपर गया, जडीव पाल तब उभा रह्या ।। ६२ ।।
देवे वाणी उच्चरी, कांइ भोला सारंग पाणि । जाणी जिणवर जे का, ते किम हुई अप्रमाण ।। ६३ ।। तजीय तात जब नीकल्या, सबल सहोदर धीर । केशन बिलम्वु इम भणि, क्षण एक पडघुवीर ।। ६४ ॥
तीसरी ढाल दमयंतीनी द्वारिका दहन देखी करी, सखी वन खंड चालि रे, चालि रे
शालि दुल दोहिल घणीए ।। ६५ ।। मात तात सजन घणा माली सपरिवार रे । परिवार निसार सचे विघटी गायां ए॥ १६ ॥ लक्षमीय मेरही अ गगी: सखी रक्षरा हार २। भडार निसार सोमण सवे तिहां राधा ए ।। ६७ ।। पवन बेग तोरंगमा सखी मेगल मातारे । मातानि विख्यात अंजन गिरि जिसाए || ६ || रयवारू रलीयामणा सखी बहूषण सोह्ता रे । सोह्ता रे निमोहता मन सविविह लीया रे ।। ६६ ।। नय नत्र नेह नारी तस्शा सखी शशिहर वयणी रे । वयणीनि मृगनयणी मेहली गया ए ।। १०० ।। मगि प्राभूषण आवरता सखी दारू य वस्त्र रे । वस्त्रनि शस्त्र रह्या सक रतणां ए ।। १०१ ।। हृय गज रथ प्रारोहता सखी सबिका संयूती रे । पूती ते पहती पायन पाणही ए॥ १०२॥ रदन करि पगला भरि सखी क्षण क्षण करि रे । भूरिनि पूरि दिन ए दुख तणा ए ॥ १०३ ।। कौशांब वन माहि सांवरिने सुभट सुजाण रे । जाणनि प्रारण तणु संस हूउ ए ||१०४ ।।
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कर्मों की गति
बलिभद्र चुपई
केशव विलषु इस भाणि मुझ पावउ नीर रे । नीरनि वीरा वेगी पाइए । १०५ ॥ वचन मनोहर उच्चरी सुणु माघव वीर रे ।
नीर हो प्राणु घडतलिवीसमु ए ।। १०६ ।
दहा
नीरज लेवा संचर, मनन मेहिल मारा ।
सुड करि सुतु सही, बड़ तलि सारंग पास ॥ १०७ ॥
पई
जरा कुमार जे धागि का, बार चरसि पहिले वर्ति गयउ । लक्षु निलाङ विधाता जेह, तिरिए पनि कुमर पहूतु तेह ||१०|| कृष्ण पाइ तब पद्मज दीठ, जाणे कोइ वनेचर बैठ ।
प्राणि लक्षु ते करि सुजाण, वरीय धनुष तव पंच्यु बारा ।। १०६ ॥ करीय रोसनि मत्रयं जाम, लाग्यू पनि मनि चमक्यु ताम । जाग्यु कृष्णा ते हा हा करी, उपरि कुमर गज संचारी ।। ११० ।। घरि दुःख मार्ग कुटि होउ, विग् धिग् देव लिएसु कोउ । पाप तिमर करो हूँ उहूँ अंध, करयुं कुक्रम्मं मिहणीय बंधु ॥ १११ ॥ कहि कृष्ण सुणि जरा कुमार, मूढपाणि मम बोलिसमार ।
संसारतरणी गति विषमी हो, हायडा मांहि बिचारी जोइ ।। ११२ ।। करमि रामचन्द्र वनि गज, करमि सीता हरण ज भ ।
करमि रावण राजजटली करोमि लंक विभीषरण फली ।। ११३ ॥ हरचंदे राजा साहस घीर, करमि प्रथम घरि प्राप्यु नीर । करमिनल नर चुकु राज, दमयंती वनि कोषी त्याज ॥ ११४ ॥ राय युजिष्टर वाचा सार सूरवीर र चढ़ि कार । द्यूतक्रीडा से करमि करी, करमि भवनी कौरव हरी ।। ११५ ।। करमि ऋषि वृधि पामि बहु, एके निरघन करमि सहू ।
करम करि से निश्चि होइ, करम कारण नवि छूटि कोइ ॥ ११६ ॥ उ छ मत लाख षेव, जब लगि नावि बलभद्र देव | कौस्तुभ मणि भाली समझाइ, दक्षण मथुरां बेगु भाइ ॥ ११७ ॥
S
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बलिभद्र चुपई
१२७ पूरब बीतम जाइ फहे, राई युधिष्ठर पासि रहे । मोकलादीनि गड सुजाण, तब लगि कृष्णि छंड्या प्राण ॥११८ ।। हलधर वन माहि जोइ वारि, गिरी कंदरनु न लहि पार । तोर तणु तणि दीलु गान, गोउ नीः ६ वी र: ।। ERE हीवड़ा माहि चित्सु मच्छि, बंधव पाइ पी पाच्छि । कमल पव तब दुदु कीउ, भरीय उदक पाछुपातीउ || १२० ।। पाणी पात्रि करी भाबीउ, सुललित वाणी बोलावीउ । ऊट बंधव साहस धीर, मुखह पषाली पीउ नीर ।। १२१॥ करि साद पुण बोलि नहीं, जाण्यु कृष्ण रिसाणा सही । आगि सहोदर मरि पहि, दुख सागर पडतांदि बाहि ।। १२२ ।। रेवि रमणते चिति इसु, कृष्ण न उठि कारण किसु । मुख देवर ते पाशु कोउ, सासन देषिवि लघु थीउ ।। १२३ ।।
दहा बदन कमल सीचि सही, कठि न जाइ नीर । तनु जोड बंधव तणु, कुणि वनि पंडव घाउ वीर ।। १२४ ।। बाहि करी बिछु कीउ, मुसह निहालि सेह । एकाकी मेह ली गज तु देवि दी। छेह ।। १२५ ।। हा हा कार करी घणु', भूरि बलिभद्र भाइ । वाइ अंदोल्यू तरु पडि, तिम परणी गति थाइ ।। १२६ ।। बे बंधष अवनी ढल्या, अवरन कोइ सहाह । वन पनि जाग्यु सही, तु हलघर मेलि लघाइ ।। १२७ ।।
ढाल बलिभद्र का विलाप
विश्ववि. वीरा हु एकलु वनि रहिणु न बाइ ! तुझ विरण घढ़ी एक पापणी वरसा सु पाइ ॥ १२८ ।। बंधब बोलदि तुझ विरण रहिण न जाइ । बंषध बोलदि युदु घसीराइ बंधव बोलदि ।। १२६ ।। जल विण किम रहि माछलु तिम तुझ विणु' बंध । विरीइ वडिउ सासोउ साल्या असलारे संघ ।। १३० ॥
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१६द्र
प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर परिभवि कि मुनि यादू बोल्या कि अपवाद । दामोदर दुख देई गउ, रोइ सरलि साद ।। १३१ ।। क्रिसर फोडिमि पालडी, किउ थाप्या प्रघाट । श्रीरंग सब पेषु सही, वसति उटीरे बाट ।। १३२ ।। सतीय शृंगार कि अपहरया, गुरु जनम लीयो रे मान । किजिन पूजामि परिहरी, बछवि हिल्यु तु रानि ।। १३३ ।। वनदेव तिविरणि फह, सुण वह रे प्रमाण । सरणि होतु तह्म तरिण, कुरिण लीया रे पराण ।। १३४ ।। ऊसभा कही इन किहनी, किहि सु कीजिन रोस । कीधु कराग भापरिण, देवह दाज न दास ।। ५५५ ।। रविकर कहु सुणु बातडी, मुणु निसपति चंद । विरोग किरणी बाटडी, जीवि हण्यु रे गोविंद ।। १३६ ।।
दहा रे ही यडा तुझनि कह रनडि किमिम रोइ । बंधन मार यु प्रापणु, सोइ अरीयण वनि जोड ।। १३७ ।। मोहनी कमि घणु मोहीउ, हृदय कमल प्यु अंध । दक्षिण दिश प्रति संचरितु, केशव कीधु कंचि ।। १३८ ।। प्रमता आणि प्रति भला, वनफल विविध विशाल । भोजन का भाई भणि तु, भरी करौं मूकि थाल ।। १३९ ।। दिन प्रति इम करता हूंया, हलघरनि षट्मास । मोह थकी माया करितु, ननि छोडि सब पास ।। १४० ।। इन्द्र कहि अमरह प्रति, ज्ञान तरिंग प्रयोग । बलभद्र मरसि मोहीउ, तु साहिसि धर्म वियोग ।। १४१ ।।
चुपई इन्द्र द्वारा प्रतिनीष
इन्द्र कहिं तो माउ मही, प्रतिबोधु लधर तिहाँ रही । चाल्या सुरसहि लही प्रादेस, प्रकनीय रूप करिम असेस ।। १४२ ।
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बलिभद्र चुपई
१८६ असुर मली बुधी कीधी नबी, पथर उपरि पोयरण ठवी। सोचि नीर कमल निताम, तिरिण भवसरि तिहां पहुतु राम
।। १४३ ॥ कहि बलिभन्न तह्न भोला थाइ, पथर उरि मूल न जाइ । सुणु कुबर ए मूउ जागसि, तु पथरि पोयण लागसि ।। १४४ । । करीय सेस माधु संचरि, धेलू लेई एक घाणी भरि । उभु रही बल पूछि वात, केलू पोलुसुण हो भ्रात ।। १४५।। शिक्ता पीक्षण स्नेह न होइ, मूरष होइ विचारी जोइ । वेल ताहि तेल न तोइ, म मछुनवि जीवि कोह।। १४६ ॥ रोस करी पगमाभरि, असुर उपाय अनेरु करि । विषनु वृक्ष एवावि मही, अमृत फस कहि लागि सही ।। १४७ ॥ सीरी कहि मम बोलि प्रमार, विम अमृत किम होइ गमार । विष अमृत नवि हुइ ताम, मुड मई किम नौवि राम ।। १४ ।। बलिभद्र मछर मनि परिहरि, होयडा माहि विमासगि करि। अमर कहि साचुय सुजाण, मुइ मडि नचि मावि प्राण || १४६ ॥ मज्ञान पणि शन वा सरीर, दहन कर हवि केशव चीर । प्रदह मुइपा जिहां, कान्हड काया जालु तिहां ।। १५० ।। शब लेई मूक्यु पृथ्वी जाम, धरणी बोलि सुरिंग हो राम । दहन करे बचित्ति साम, अनेक हार बाल्यु हरिण ठाम ।। १५१ ।। तु जिहां जिहां जाई उभु रहि, तिहां तिहाँ प्रवनी प्रषिकु कहि । परवत माहि पेषी चाट, चस्य तु गेश्वर विषमाघाट ।। १५२ ।।
संस्कारि श्रीरंनि, देवी दुर्टर ठाइ । अनुप्रेख्या वारि भली, तु चिति हलधर राह ॥ १५३ ।। हीयडा सुहषि मल्यु, कहिम करेषा मोह अयाण । मोह थकी जे नर भूया, ते पाम्या दुख खाणि ।। १५४ ॥ वस्ती बली हुँ तुझ मुंफ, रहे चित्त निज ठाम । धर्म महिंसा सु' रमि सत्तु, सरसि तुझ काम ।। १५५ ।।
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१६०
तप साधना
प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
पंच महावय परिवर, पंच सुमति सुविसाल । संसार तरणा संग परिट, तू मुक्यू मायाजाल
खुपई
।। १५६ ।।
पंचेन्द्रो नि व्यार कषाइ, मयरण मल्ल सु सुज्यु ठाइ । लक्ष चुरासी समचित करी, क्षमा षडग जीएि करि धरी
।। १५७
मद मेगल जे भाइ कही, तप केशरी विदा सही । मोह मछर पछि विषनाम, वैनतेय जिम संज्यु ठाम
।। १५८ ।।
मन थी माया कीधी दूर, समता रस बणु झील पूर 1 कोष लोभ वे दोषी जेह, संतोष सेल गही कीधा छेह
जिता पुर हुचि रविराय, ईर्ष्यापथ सोषंतु जाइ । रूप वणु नवि लाभि पार पति पनि उभी नरषि
+
।। १५६ ।।
जिनवर दीखया लाग्यु वास, हलधर ध्यान रह्य षट् मास । काया स्थिति करवा कारण, बल मुनिवर उत्तरि पारण
।। १६० ।।
नारि
।। १६१ ।।
एक कहि ए सुरपति होइ, एक कहि ए नल वर सोइ । एक कहि ए नशपति चंद्र, एक कहि महिपत्ति नागेन्द्र ।। १६२ ।। एक कहि सावित्री स्वामि, एक कहिं सीता पति राम । एक कहि गिरजा पति ताम, एक कहि ए रति पति काम
।। १६३ ।।
निरमल चित बोलि एक नार, सुणु सखी कहुं तम वचन विचार | पूरव भवि पुण्य की कोई, तु श्रह्म इसु बंधय बेदु होइ ॥ १६४ ॥३ एक नारि मनि घरि विकार, ए हवु नरही इणि संसार |
सु मानव भव कहीइ सार, निश्चि लद्दीइ ए भरतार ॥। १६५ ।।
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बभित पई
दहा
यति मंझो मुनिवर प्रति मूकि मुखर नीसास |
कुंभ वरांसि कामनि दिइ बालक गलि पास ।। १६६ ।।
P
हलवर करुणा हीड़ भरी देवी वालक फंद |
मुनिवर कहि सुरिण कामनी, हृदय कमल थई अंघ
K
॥ १६७ ॥
चपई
मि देख्यु तुझ रूप असंभ, मोरु वित्त संस्यु जिम बंभ । सुरिश हो स्वामी कारण तेउ, मोह थकी नवि जायु भेउ ।। १६८ ।।
तब मुनिवर पाम्यु वैराग, नयर माहि नहीं जादा लाग । न त तिथि की स्याग पग पग जोइ परवत भाग || १६९ ॥ चडयु तुगेश्वर परवत शृंगि, लीया नाम मन सुधि प्रसंग | पियु गिरिवर किंदर जाह, ध्यान घरी बिठु रिषिराइ ॥ १७० ।।
वृषा काल वृक्ष मूले रहि, दंसमक परीक्षा बहु सहि । वरसि मेघनि वाजि बाय, अंगि उषाडुद्धि यतिराय ॥ १७१ ॥ शीतकाल सी दाजि बहू, हेम ता भर बहुमा सहू ! ठोरि नदीनि बालि रान, तिम तिम
मुनिवर लाम्यु ध्यान
॥ १७२ ॥
ु
उहाल लू उही वाय, तपन ताप तनु सह्य न जाय । द्वादश दमह परीसह कया, सीह तणी परि सुधा सा ।। १७३ ॥ उष्ण गीत वृष ह्नि काल, शरीर आदि सुख तज्यु' पंपाल । ध्यान प्रति तपसाध्या सार कर्म काष्ट जिणि दहा विकार
।। १७४ | संयम साध की धर्मध्यान, तजीय तन्नु गड श्रमर विमान स्वर पंचमि जाई स्थिति करी, अमर वधू जिरिए लीलांवरी
।। १७५ ।।
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मामा सोमकीत एवं ब्रह्म पशॉवर
जय जय कार करि बहु देव, अह निशि करि तम पाय सेव । वांइ मादल वंश कसाल, नाचि अपवर बहु विधि ताल ।। १७६ ।। जरा न प्रावि तिहां ते कदा, नवयोवन सुखसेवि सदा । कनक तेज जिमि झलकि काम, परिपूरण सवि कही आयु
॥१७७ ।। प्राधि व्याधि नवि पामि किसी, निरमल देह अमर तिहां तिसी। मनवांछित फल देव मार, से सहू धर्मतरण उपगार ।। १७८ ।। पूरबना तपणि प्रयोग, अमरी सरसावलसि भोग । ब्रह्म यसोधर दाषि कही, ते तु पुण्यि पदवी लदी ।। १७६ ।। चुथि काल तीर्थकर सार, अवतरसि सोइ भरह मझार । ध्यान करीनि मनरोधसि, लहीय ज्ञान भवीवरण बोधसि ॥ १० ॥ माति कर्मनु करीय विणास, मृगति क्षेत्र जाई करसि वास । धमतरपां फल एह ज जाणि, धर्म करता म करु काण ।। ११ ।।
घरमि धन बहू संपजि, राजा रयण भंडार । धरमि जस महीयल फिरि, उत्तम कुल अवतार ।। १५२॥ घरमि मनचीत्यु फलि, दूरदेशान्तर जेह । हय गज रथ धिरि नित दसि, धर्मतणां फल एह ॥ १८३ ।। धमि नर महिमा हुइ, परमि लहीइ ज्ञान । घरमि सुर सेवा करि, धरमि दीजि दान ।। १८४ ।। धर्मतरणा गुण बहू अछि, ते बोल्या किम जाइ । चुगिफेरु टाल सि जे, धुरि धर्म दमाय ॥ १५ ॥
प्रशस्ति
श्री रामसेन अमुक्रमि हुया, यसकीरति गुरु नाशि। श्री विनसेन पदि थापीया, महिमा मेर समारण ।। १८६ ॥ तास सख्य इम उच्चरि, ब्रह्मा यसोधर जेह । ड्रमंडलि दणीयर तपि, तारह रास चिर एह ।। १८७ ।।
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रामसीतारास संवत पनर पंच्यासोइ, स्कंध नयर मझारि । भवणि अजित जिनवरतणी, ए गुण गाया सार ॥ १८ ॥
वस्तु बंष
भरिण भवीयण भवीयण चरित, ए सार हरष की हलघर तर हीया माहि सुणि ज्ञान आणीय नरभव सुख सेवू अनुभवी सरग रिघि बहु लहि असमाणीप देवी सुर सेवा करि, इन्द्र तणि पवतार । मुगति रमरिण अनुक्रमि वरि जिहा सौख्य तण मंडार ।। १८६ ।।
इति बलिभद्र चुपई ॥
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विजयकत्ति गीत
सरसति सामिणि चलणेहुं लागुय मागुय मति अति निरमलीए गायसु यतीबर विजयकीरति गुरयर वर
मालु रे माता भारती ए चढायु ।। गि वर वर प्रालि वाणी हंस वाहिणी भामिनी ।। करिहि कमंडलु' वेण पुस्तक जाप जपति तु स्वामिनी । प्रसुर सुर नर लचर दानव पाम पंकज नुति करि । भाव भगति मनह राकति भनेक योगी श्रणसरि ।। रायल कवीयण दि दुख वारू चलण तोरे नित लुलि । दिइ विद्या विवेक वारणी तेहा संकट टलि । कमल के तुकि कुद करणी पूजा करी करू प्रारती । करह जोडी पाय लागु दिउ वर वर भारती ॥ १ ॥ भारती तूठीय अक्षर आलए मोरूं मन चालिरे गुरु घलणे मही सहि गुरु स्वामीय तणि परसादिय बाछिय काज केहुं नही ए ॥च.।। वादिय काजि फेह नही रे माइसुगुरु राय एक चिति मकह सुधि होइ घरी बहु भाउ । बाला परिण बुधि ऊपनी चारित्र लेवा चंग । श्री सकलकीरति केरीय वासी सुशी हदि हूउ रंग । सूणी हृदि हउ रंग रूयह जान ध्यान धुरा धरि । पंच महावय प्रबल प्रौढां तेह लेवा चित करि । ससार एह प्रसार जाणी संग सघला परिहरि । हेलाह मयरण हरायीउ संयम थी मुनिवर वार || २ ॥ मुनिवर विश्वसेन संहयि थापए संयम प्रापए स्यङ्कए । पंच महाप्रत पंच सुमति ऋण मुपति सहित मुनि ऊजसु ए | | उजलउ मुनिवर सदा सोहि ऊपमा गौतम सार । अंबूय कुमर ज अवतरच जारणे लेवा चारित्र मार ।
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वासुपूज्य गीत अनेक वादी विकट कवियण गुजता गजराय । सीहनी परि सबल सुफलि मंजीया भडवाद। माठिय मद जे कर्म तितला प्रवल नाग प्रचंड । सूपर्ण नीपरि रूडपि लीया कायां ते सत पंड। काम कोघह मान माया मोह सल्यु जेह । बावीस परीषह जीपतु
मल दे ।।६।। निरमल देहछि एह रषि रायहि माता रंगीय उयरि उपनुए। साह भीमिग सुत कुल प्रजू यालए। अनेक राजा चलणे नमिए । चढाउ ।। अनेक राजा चलण सेवि मालवी मेवाड । गूजर सोरठ सिंघु सहिजि अनेक भड भूपाल । दषरण मरहट वीण कुका पूरवि नाम प्रसिद्ध । छत्रीस लक्षण कला बहतरि अनेक विद्या रिधि । पागम वेद सिद्धान्त ब्याकरण भाषि भवीयण सार । नाटक छंद प्रमाण बुझि नित जपि नवकार । थी काष्ठ संघ कुल तिनु रे यती सरोमणि सार । श्री विजयकीरति गिरूउ गणधर श्री संघ करि जयकार ।। ४ ।।
इति श्री विजयकोत्ति गीत ॥
वासुपज्य गीत
राग-कामोव धन्यासा सगुण सलूणु वासपूज जिन सोहि रे। भव भय मंजन जन मन रंजन भवीयरा का मन मोहि रे ।। भावु साहेल डी थेगि फारमलावु रे । हंसता रमतां जिन हरि जावु वासुपूज
___ गुण गावु रे ।। भावु ॥ १ ॥ नरमल जलना कुभ जिनहरि वालु रे। स्वामीनि तनु तेह ज ढालु मनना पाप पखालुरे ।। भावु ।। २।।
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प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर चंदन केशर कपूर घसायु रे। जेनि नामि दुःख पुलावु ांगी मागि रचावु रे ।। प्रात्रु ॥ ३॥ सालि सुगंधी तेहना तंदुल बारू रे । निजी मालिज ग्नीजि प्रालि निज गुरण
सारू रे 11 पाव ॥ ४ 11 बेउल बालु वुल सरीनांहारू रे । स्वामी निशि निशि पूजा कीजि देश भवचा
पारू रे ।। प्रात्रु ।। ५ ।। मोतीया लांडू वटफ विशात रेवा फीणि, प्रति घण झीशी घेवर रसालू रे । आव ।। ६ ।। उह्न धाने पूरी सोनण घालू रे, जिनजी मागिल पूजा कीचि स्वामी संकट टालू रे ॥ प्रात्रु 11 ७ ।। रत्नयोति जिम भारती प्रतिहि उत्तंगू रे, मृगति तणा गुण लेवा कारणि दीवा करू
सुचंगू रे 11 आयु ।। - ॥ सषर घूप जे कृष्णागर वर सारू रे, जिलजी भागिल सेह दहीजि टालि फर्म विकारू रे
11 प्राव
।
"
करणां चारू सोपारी नव सारू रे, श्रीफल सरसी पूजा कीजि लहीइ सुख अपारू रे
11 आधु० ॥ १० ॥ प्रष्टप्रकारी जिनवर पूज करेसि रे, भाषि भक्ति लक्ष्मी सक्ति संसार तरेसि रे ।। प्राय० ॥ ११ ॥ नयर वंशवाला मंडण नु स्वामी रे। ब्रह्म यसोधर प्रतिघणु वीनवि देयो तझ गुरणग्राम रे
॥ प्रावु० ॥ १२ ॥ दति बासुपूज्य गीत ॥
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वैराग्य गीत
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वैराग्य गीत
राग धन्यासी संसार सागर एह गहन छिरे
भमिउ भमिउ चुगि जाए जिणवर रे ।। परमपुरुप एक नऊ लष्यु रे
जिम छटु नरबाण स्वामी रे ।। विमुधन तारण तु वडली रे,
तारु तारु गहन संसार जिणबर रे ।। समरथ नाणी निमि प्रणसरयू रे,
जनम मरण दुलटाल स्वामी रे समरथ ॥१॥ लाथ मी ति: पंवारे
वसीउ वसीउ बार बहुत रे । जिरणवर रे। धरम न की एक दया धरीरे ।
पाप पटल पंकि पूत, स्वामी बिणबर रे ।। २ ॥ असन परिणयमि प्रतिघणां रे ।
कोषी कोघी जीवविणास जिणवर रे । पर नारीय लंपट पकिरे पाम्य पाम्पु नरयावास स्वामी
जिणवर रे ।। ३ ॥ तृष्णा नदीइ प्राणी ताणीउ रे
कीघा क्रीघा प्रतिषणा द्रोह, जिगावर रे । च्यारे कषाय जीव गलि धयु रे
रात्यु राल्यु दुरगति षोह, स्वामी जिगनर रे। ४ । पांचे इन्द्रीए प्राणी परिभव्यु रे
मयण धूतारुवली माहि, जिणवर रे । पंथि पलान्यु ए पातिग तणि ए।
समरभ वाहरि नुघाइ, स्वामी जिरावर रे ।। ५ ।। पुन्य पसां इमि तु प्रामीउ रे,
सफल जनम हउ पाज, जिरावर रे। ब्रह्म यसोधर हरषि इम कहि रे,
प्रवर नही मुझ काज, स्वामी रे जिणवर रे ॥ ६ ॥ इति वैराग्य गीत
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श्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
नेमिनाथ गोत राग गुडी
सारद सामरिण बीनवु रे, माम्यु एक पसाउ । दिउ वाणी अझ निरमली रे, गासु नेम जिनराज 1 सामला व्रण जीनजि राजिल नारि पूरव भव नेह संभारि । यादव जीवी नवि राजिल नारि मुझ कांइ कर निरधारि । दयाल राय चीनवि राजिल नारि ॥ १ ॥
संत रमेवा कारण रे पुहुता वह मकारि ।
सोल सहस्र गोपांगना रे सरसा नेमि मोरारि । साम || २ || वाला केरा मांडवा रे सुरतर कुंम पुंज ।
केसूय मउ मोगरे पाटिल किरणी कुंज | साम || ३ ||
चंपक बैल बुलसरी रे तेह तगां कवि हार |
सिर घालि जासूनडा रे कमले ताडिकृष्ण नाईर 1 साम || ४ ||
चंदन केशर अलि करी रे वापीय पूरी सार ।
गलयंत्र सु वली छांटणां रे रमिते विविध प्रकार 1 साम || ५ ॥ क्रीडा करी नेम नोकल्या रे वापीय तीरि जारिए ।
भावेज सुं तव इम भण्यु रे पोतिनी चोउ मारिए | साम ।। ६ ।। नेमि वय सुणी करी रे जांबुवती घरि मान 1
ए वितु श्रह्मति न दीजी रे, देवर नहीं तुह्य सान | साम ॥ ७ ॥ उरंग सेवा सुंता विसकरी रे पूर पंचाय
हे
विश्रह्मनि न श्रादरि रे गोपी केरु देव सा० ॥ ८ ॥ प्रेषणु देव कारण वली प्रत्थि तुझ प्राणि ।
उरे कुमार |
इस जाणु तरबाहु सिरे तु परणु नेमनाथ । सा० । ६ ।। जांबुवती वा सुखी र कोपि मेगलनी परिमल पतु रे हुतु नागसेया जाई पुढीउ रेपुर तेन सब्दि घरा षडहड़ी रे मु उपरि परि श्रावी रे देत्य महारु संख कुरिण पूरीउ रे तेहनु
प्रायुष द्वारि । सा० ॥ १० ॥ पंचायण देव । चमक्ध, केशवदेव ॥ सा० ॥ ११ ॥ दाणव नर राउ
फेहुं हुं ठाउ | सा० ।। १२ ।।
५
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नेमिनाथ गीत
कृष्णापुलि उतावलु रे मायुष साल मझारि । देषीय प्राकम नेमनु रे झांघु थप उ अपार । सा० ।। १३ ।। प्रबला वयण सुणी करी नेम ते भु केहु रोस । उरग थाइ छह प्राकुलु रे एसु केहु दोस । सा ॥ १४ ॥ करूमद नेम संतोषीया रे पहता निज निज गेह । बसिभर सु पालोची उं रे ब्रह्म राज हरेसि रह । सा० ।। १५ ।। समुद्र विजय राम मंदिरे रे कान्ह उ पडता जाइ। प्रणमीम कहि काकीयनि रे करू नेमि वीवाह हो । सा० ।। १६ ।। शिन या कहि कृष्ण सांभलु रे तुछि ब्रह्म कुलि पोर । तिच्छति अझ चिता केही रे परणावे ताहा ह वीर
। सा० ।। १७ ॥ उग्रसेन राया मंदिरे रे पहुना देव मोरारि । धी परणाच नेमनि रेगिम लाज वार । सा० ।। १८ ।। यादव ना कुल नंदनि रे लग्न लोउ तिणी शारि ।। जूनिगहि द्वारामती रे उत्सव बहुत अपार । सा || १६ ।। घरि घरि गृडीय उपलि रे घिरि घिरि मंगलाचार । तलीयां तोरण उभीग्रां रे गीत मांइ अक्ष इसार । सा० ।। २० ॥ मोटा मंडप तिहां रच्या रे थांभ कनक केरा सार। बेल भरी पर वाल डेरे रयणमि पोल पगार । सा० ॥ २१ ॥
कम पत्री पाठवी रे नुत्र प्रावि प्रति सार । दक्षिण मरहठ मालवी रे कुकरण केनद्ध पाउ । सा० ।। २२ ।। गूजर मंडल सोरठीया रे सिंधु प्रवाल देश । गोपाचल नु राजीत रे ढीली प्रादि नरेस । सा० ।। २३ ।। मलबारी मारूयाहना रे षुरसाणी सुदिईस ।। वागडीड़ दल मज करी रे लाड गउडना पीस । सा० ।। २४ ।। प्रगान बंग तिलंगीया रे उर मेवाडु राम । भाद महरमज चीणना रे द्वारावती सह जाइ । सा० ॥ २५ ॥ पारिक पड़ी चारुली केला अषोड बदाम । पांडि सुरायण भली रे श्रीफल खरजूर जाणि । सा० ॥ २६ ।।
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प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर पकवान नीपजि नित नवां रे मांडी मुरकी सेव । पाजां षाजल डी दट्टीयसं रे फेवर घेयर हेव । ।। २७ ॥ मोतीया लाडू मगतण्यारे सेवईया अति सार । काकरी पापर सूचीया रे साकिरि मिश्रित सार 1 सा० ।। २८ ।। सालीया तंडुल रूयडा रे उज्वल प्रखंड प्रपार । मुग मंडोरा प्रति भला रे धृत असंडी धार । सा० ॥ २६ ।। विवध वानीनां सालनां मूकि यादव नारि | करि बास्यु कर बरन् रे छोल प्रीसि एक सार । सा० ।। ३० ।। वास्यां नीर प्रति निर्मला रे जाणे जे सुगंग । चलय करावि यादव योषिता देसलीय भालि एक चंग
। सा० ॥ ३१॥ उज्वल वस्त्रश कोमलां रे करे ते लु छन करंति । पान सोपारी चेउला रे 'रि सुपाणी धरंत । सा ॥ ३२ 11 चंदन फरपुर केसरि र भरीय कंचोली एक जाइ । यावध करि बली छांटया रे हीमडलि हरष मपार | सा० ।। ३३ ।। भान पजूनि सुबलिभद्र रे नेमनि करि सिणगार । पुपत्तरि शिरि सोभतु रे काने कडल गलि हार | सा० ।। ३४ ॥ मस्तकि सोहि सडु नवग्रह रे माहि बाजू बंघ सार । प्रांगलीए रूसी मुद्रडी रे पहिरघु सनि सिणगार । सा० ।। ३५ ॥ गोपीयपति तब हम भणि रे देवमलाउ वार । धव थव ते सरपरि रे यादव लेइ सिणगार । सा० ।। ३६ ।। राही रूपाणि चंदाउली रे रुक्मिण केसव नारी । शिवा देवी माता मनि रली रे पुषि नेमिकभार । सा ॥ ३७ ॥ गय गुडया ह्य पाषरया रे रथे कीया सिगमार । पायक चालि मनिरली रे जानन लाभि पार । सा० ॥ ३८ ॥ वाजिन वाजि अति घणा रे ढोल तिवस कसाल । भेरीय संख सोहामण्या रे गाजि नीसाण प्रपार । सा० ॥ ३६॥ नेम जिन रथि भारोहीया रे होउ जय जयकार । याचक जननि मनि मनि रली रे मापिय सोवण सार
। सा० ॥ ४० ॥
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अथ नेमिमाथ गील
सारथीइ रथ खेडीउ प्राडी मौनी जाइ । भावी भरव कलकले रे यमणु राजा थाइ । सा०।। ४१ ।। थारु उतारि एक कामनी रे पात्र नाधि प्रति चंग । षप-मप-मद्दल रण कीउ रे वेणा ताल सुरंग ॥ सा ।। ४२ ।। हय गय रथ सवि सांपरि रेहि लाउ रे प्रकास ।। पाताल नु रायसल सल्यु रे वनिता देइ एक भास ॥ ४३ ।। लग्न न दिन जब प्रावीउ रे रायमि करि सिंगगार । याद रहनी कचिली रे पहिरणि फाली सार । सा ।। ४४ ।। पायेय नेउर र झणि रे घूघरी नु धमकार । कटियंत्र सोहि रूडी मेषला रे झूमणु झलकि सार ।। ४५ ।। सा ।। रत्नजडित रूडी मुद्रिका रे करीयल चूडी तार । बाहि बिठा रूडा बहिरषा रे हायडोलि नबलख हार
। सा ।। ४६ ।। कोटिय टोडर ख्यडुरे श्रवणे झन कि झाल । मल विट टीलु तप सपि रे षीटली षकि बालि ।। सा ।। ४७ ।। बांकीय भमरि सोहामणी रे नयणे काजल रेह ! कामिधनु जाए ताही उरे नर मन पाडया एह ।। सा ॥ ४ ॥ हीरे जडी रूडी राषडी रे वेशीय दंड उतारि । मणि पन्नग जाण पासीउ रे गोफणु लहिकि सार
|| सा॥ ४६॥ मस्तकि मुगट सोहामणु रे सिहिथि सीदूर पूर। चौउ चंदन रूहा फूलडां रे पान बीडीय प्रमूल ।। सा ।। ५० ।। सवि सिणगार साजी करी रे उपरि उठीप पाट ।
धवल देव वर कामनी रे जय जय बोलि भाट । सा ।। ५१ ॥ नेमि की पारात
सखी ये राजिल परवरी रे मालीइ पुहुती आम । गुष चड़ी जोइ पालीए रे कहु सखी केहु मोह स्वाम
॥ सा ।। ५२ ।। नव षणु रथ सोबणमि रे रयण मंडित मुक्सिाल । हीसला भस्व जिणि बोता रे ललहि पजाय अपार
॥ सा || ५३ ।।
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२.
२
प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोघर कानेय कुडल तप तपि रे मस्तिक छत्र सोहंति । सामला वण सोहामणु रे सोइ राजिल तोरु त || सा 11 ५४ ॥ प्रापरणा कंतनि निरषता रे होयलि हरष न माद।। प्राण पालीमि जिनतणी रे पाम्यु एहव नाह ।। सा ।। ५५ ।। मान्हडि कूड कपट करीरे जीवे भराव्या वाड । तोरणि जब वर मानीउ रे पसूडे करीम रोहाड || सा 11 ५६ ।। नेमि सारथी पूछीउ रे ए जीव विल विकाइ । पसूय बवेसि उग्रसेन रे यादव गुरव याई ॥ ५७ ।। सा॥ करुणा बाणी जब सांभलि रे सारथी सु प्रयधार । पिग धिग पडु इरिग पररपबिरे नहीं करु लाग्न संघार
|| सा ।। ५ ।। जिनजी बंधन काटीया रे पसूयां मेहल्यां रानि ।
स्थवाली वेगि बल्यु रे पुतु सहमा वन ।। सा ।। ५६ ।। राबुल का विलाप
तब राजिल पिलषी हुई रे कह सखी कवण विनाण । केहा प्रयगुण मि कीया रे चली गउ नाह सुजाण ।। सा ।। ६० ।। तव राजिल घरगी डली रे सीतल करि उपचार । वाय प्रालि वर वीजिणे रे चेत पाल्युतीणीवार || सा | नेम पूठियाली पुलि रे प्रीउ प्रोउ करती बाइ । नव भव केरी भागि प्रीतही रे कोइ वास मोह नाह ।। सा॥२॥ कंकरण फोहि करतणा रे रयए मह बोडि हार । काजल लूहिल हरे रालि न गोहर सार ।। सा ।। ६३ ।। संसार संग सवि परिहरी रे होउ बाल ब्रह्मचार । मुगतिन पंथ जिणि प्रादरपु रे लीघु संयम भार ॥ सा ।। ६४ ।। राजिल राणी झूरती रे जाई मली नेमि पास । स्वामीइ संयम प्रालीउ रे रयम गलि जास || सा ।। ६५ ।। गिरि गिरिनारि जाई चढ्यु रे सादरयु मुलसुध्यान । घाति करम सवि चूरीयां रे उपनु केवल ज्ञान !| सा ।। ६६ ।। इन्द्रासन तब कांपी रे नेम नि प्रगट्युन्यान । सुर नर पन्नग प्रावीया रे रच्यु समोस्त्रण ताम ।। सा ।। ५७॥
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नेमिनाथ गीत
ज्ञान महोछव नीपनु रे जय जय रब होउ नाम |
सुर नर पन्नगरमी करी रे पुहुता निज निज ठाम ॥ सा ॥ ३८ ॥ देशवदेश संबोधीया रे चली श्राव्या गिरिनार ।
काया कुटीरज परिही रे मुगति होउ भरतार ।। सा ।। ६६ ।। श्री यसको रति खुपसाउलि ब्रह्म यसोधर भरि सार ं । चलण न खोडजं स्वामी त तरणा मुझ भवचां दु:ख निवार ३३ सा ॥ ७० ॥
भरसिजे नर सांभलि रे धन धन ते श्रवतार |
नवनिधि तस घर उपजि रे ते तरसि संसार || सामला ॥ ७१ ॥
इति नेमिनाथ गीत समाप्तः
मेमिनाथ गोत राग सोरठा
क्रेम जी वा तु तु
२०३
न घरे घरे, वाडीया बोई सिक्या माडली रे । देषिवाल रथ रे चाली देवि गिरि ग रे । नेमजी धावुन घरे । १ । कपट करीय मोहारि नेम रे काणि रायमि जाई वरी रे । भलीयान भपार अपार, जूना रे गढ भी सामा रे रूडा नेमि । २ तोरणि प्रायु वर नेमि २ पसूडा रे करूणावह तिहां रहि रे । दया घरी दीनदयाल छोडी रे सहसावन प्रति सांच रे ।
नेमजी | ३ |
उग्रसेन धी ताम, कारण रे जागी नेमनि वीतवि रे
।
नव भवतु भरतार, दशमि रे देव दया करू रे | नेमजी | ४ | रायमि गई गिरिनार २ नेम रे चलगि तप श्राचर्यु रे ।
भव सागर मुझ तार २
यसोधर इस वीनवि रे ।
मल्लिनाथ गीत
सरसति स्वामिण वीनव ं मा ं एक पसाउ रे । त परसादि गाइ रूयडा जिरणवर राउ रे ।
नेमजी प्रा० । ५ ।
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२.०६
आचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
(३) प्रभु नेमकुमार सार जिणि संयम धरउ | मुमिकुमार मया समरंगणि वरच | प्रमुमिकुमार तबीय जिरिए राजलि राणी प्रभु नेमिकुमार कर्म आठ अंति प्राणी | प्रणमत जनमि प्राठि प्रहर मुगति नारि जेह चित वसी ॥ ब्रह्म यसोधर इम कहि तेह पाप पंक जाइलसी ॥ १ ॥
(४)
करु धर्म एक सार वार मम लाट प्राणी । वली समरु नवकार भाव ते मन माहि माणी । सेवु अरिहंत आदि बाद भांति भव केरा । दया करो दि दान ज्ञान पामु बहुतेरा ।
मन बच काया वसि करी आपण इम तारीइ ।
ब्रह्म यशोधर इम भ जिम नरम तां दुख वारी ॥ १ ॥
मुहुवि परगट पास जास वासुग फरिए सोहि । कम उतारथ नाव देव मानव मन मोहि । डाकिरण शाकिरिण भूत वेगि वितर भय पालि | अतिसय अधिक अपार मनहुवंछित वर प्रालि । सेवृज स्वाम मूरति सकल अकल रूप श्रानंद करि । ब्रह्म यशोमर इम भूणि ते सेवता स्वामि दालित हरि ||२||
(५)
राग केदार
पड तोरणि परिहरी, राममि जीणी परिही । परिहरि विषयाकेरी वेलडी जी ॥ १ ॥ मयत जिरिंग मोडीय, चाल्यु रथडु मोडीय | सोत्रीय मोह माया अंगि झवंता जी ॥ २ ॥
ग्रसेन मनवा लिहो तेहज मन नवि वालि हो । बालि हो मनहु ए मुगति भरणी जी ॥ ३ ॥ सुर तर मलीया केवडा नेमि गुण गाइ केवडा । केवडा गिरिनारी उत्सव करिजी ॥ ४॥
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ब्रह्म यशोधर के पद नेमि संयम पामीयां, केवल रमणी पामीयो । पामीयां सिद्धबघू भिमुवन पतीजी ॥५॥ यादव ला गुण बोलि हो ब्रह्म पसोपर बोलि हो । बोलि ही सियसुख भाषु सामला जी ॥ ६॥
इति नैमिगोतं
राग सामेरी नेमि निरंजन नाथ निरोपम तोरणि पसुद्धा निहालोरी। सयल बीषया बंधन टाली चाल्मु स्थधु पाली री। बोलती राणी रायमि नेमि पुहूतु गढ मिरिनारी । मुगति रमरिण तणि रंगि रातु पूरव प्रीत विसारी री । बोलं ।।१।। पापीठ पाल र संयम नेमि माली रो। पंच महाव्रत दुर्दर झाली विषय तगी सुख पाली री
बोल ॥ २॥ सामला वर्ण सेयक मुख कर्ता काम कुंजर भव हारी । ब्रह्मा यसोधर बु स्वामी समरथ अविचल पद
सोइ वारी ।। बोलती ।। ३ ५५
राग प्रभाती मूरति मोहण बेल भणी जि, अवर उपम्म कहु कुण दीजि । पावु भनीयण पास पूजी जि, मानव भव फल निश्विली । प्रा।। चंदन केसर घणां घसी जि, ममीय अंगी अलविरे रची जी
मा। २। चंपक वेल वुल सरीरे बालु, कुद किरणी करी भव भव-टालु
।पा। ३ । भरणि पयो मया सेवा सारि, पलीपवि बन्न प्रावंतहां वारि
।पा।४। ब्रह्म यसोपर कहि सिर वामी, सिब सुख दाता त्रेवीसुमि स्वामी
। मा । ।
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२०८
प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
राग प्रभाती पसूडा कारण परहस्युरे राजिल सरसु' राज । सयल सजन मोकलायी चाल्यु करवा पातम काज । बाई रे शिया देवी कहि माह।
___सामलीउ रे वरिषा पनि किम रहिसि मंगि उघाडु एकलङ्गु रे सीता तप किम सहिति । शि । १ । गन गिरिनार आई तप मंड्यु, मयण राउ जिरिए दंड्यु । मोह मछर मद हेलां पंड्यू, सविहि परिग्रह छोड्यु । भि। २ । ध्यान अनल परगट जिरिए पूरी, कर्म काष्ट सब चुरी। ब्रह्म यसोधर कहि शिर नामी, मृत्तिमानि लेगि पानी पाई
राग गुडी सकल मूरति ए सोहामणु स्वामीय श्री पास जिणंद रे। परम सायर सोहि चंद्रमा दीठडि रे हुइय भाणंद रे । मावु प्राबु भवीयण भेटवा, दाजीछि देवदयाल रे । भाव भगति सुपूजा रघु गीत नृस्य करु अबला बाल रे
। प्रावु । १। अश्वसेन रायां भंगो भमी नयर वाणारसी वास रे ।। धम्मा देवी राणी उरि उपनु सेवकनी पूरवि प्रास रे
पानु । २1 नयर जीराउलि मंडणू नाम सुर नर बहि भाग रे। प्राय । ३ । जिनवर कहीइ वीसमु मोड्यु कमठ चुमारण रे।। श्री विजय कीरति गुरु पाय नभी अवरन मागउं देव रे
। मावु । ४। ब्रह्म यसोधर हरषि बीनदि भवि भवि तह्म पाय सेव रे
। प्राव । ५। (१०)
रोग प्रासाउरी समुद्र विजय सुत यादव राजा, तोरणि प्रामा करी दिवाजा ।
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ब्रह्म यशोधर के पद
हिडी सहि सुणु समरथ सांई, भवरनाथ हून मागु ́ कांई
||१
हिरण रो सवि संबर पेषी, पसूय छोडी ना ग उदेषी
बांहि । २ । बिरह वियापी राजिल नारि, नेमनाथ मेरे जीवन माघार
। र्बाहि । ३ ।
रवि गिरि श्री ने तप करीयु, यसोबर ब्रह्म वु स्वामी गत वरी । बांह | ४ |
(११) राग सोरठा
गढ जूनू जस तलहटी रे लाई गिरिसवां माहि सार | जेह सिर स्वामि समोसऱ्या लाई राजमती भरतार | हो नेमजी सेवकनी करे सार । तोरा गुणह न ला पार तु त्रिभुवन तारणहार | म० । १ । शिवर पांच सोहि भलां रे लाइ रेवैया केरि रंग | स्वाम पूजन विनायक रे अलग सहिर अंबाई उत्तंग हो
। नेम० । २ ।
जस पाजि पग मांझ तारे लाई हीयडो लि अतिहि प्रारद । गयंदमि कुंड अंग क्षाली रे लाई पूजिबू नेमि जिद
२०६
मानव भव पामीज रे लाई सफल करू रे संसार ब्रह्म यसोधर इम कहि रे लाई सामलु सुख दातार 1
(१२) राग धन्यासी
1 हो नेम० । ३ ।
हो म । ४ ।
·
यान लेई नेमि तोरपि घाउ, पसु छोडी गज गिरिनार । अब कब प्राविगु रे, इम योनवि राजिल नारि ॥ नेमिकल प्राविगु रे । प्रब० । १ ।
हु एकलडी निरधार नाह कम भाविगु रे ।
मेरे प्राण जीवन झाधार व कब माविगु रे ।
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प्राचार्य सोमक़ीति एवं ब्रह्म यशोधर समुद्र विजय सवया नंदन मादव कुल सिणगार । प्रब० । २ । ऊलि गिरि तप से ६ जिन सीधु पाम्यु सिवपुर वास । अब । ३ । ब्रह्म यसोपर वली वली बीनदि दुखदहन चलणे राष
। प्रब।४।
राग सदाब संसार सागर गहन अपारा । लाप रे दुरासी माहि मंदिर विहारा । घेत रे प्राणी सुणु जिनवाणी, भ्याउ एक परम पुरष
मनि प्राणी । चो।। पंथ. वरणा: तु फिरि फिरि पाउ, तारण धरमति एक न
पाउ । चोए । २ । मणय जनमन दोहिली लाधु, तु हवि जीवडा प्रातम
साधु । ०। ३ । तारण बेजली तु जिनदेवा, यसोधर ब्रह्म करि तुझ
पाम सेवा । ०। ४ ।
राग सोरठा वागवाणी वर मागु माता दि मुझ अंबिरल वाणी । यसकीरति गह गाउ' गिरिया, महिमा मेर समारणी ।। प्रावु प्राव रे भवीयण मनि रली रे चाउल रयणे चुक पूरात्रु सहि गुरु वलण वधाच । प्राद ।। १ ।। सोमझी रसि गुरु केरी वाणी, बानपरिण मनि पाणी रे । संसार ए क्षण भंगुरु जारपी, चारित्र सुमति माणी रे ।। २ ।। यात्रु ॥ पंच महाप्रत बुद्ध र धरीया, क्षमा षडग प्रणसरीया रे । काम क्रोध माया मद मकर, दूरि सवि परिहरीया रे 11 ३ ।। भाव ।। अभिनवु गौतम शिषि प्रवतरीउ, धूल भन्न जिम सोहि रे । चिद्र' चितन करि निरंतर, वाणी यजन मन बोदि रे ॥ ४ ॥ मा ।। माता लीलादे उमरि उपन, साह बीग मद्धारू रे ।
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बाह्य यशोधर के पद
झाष्ट संघ दिन का त्रिम पनि दिन न सिशाख
॥ ५ ।। मावु ॥ देश विदेश विख्यात विभूषण, सात तत्व गुण जारिगरे । रामप्लेन कुलदीपक उदउ, सफल सिद्धांतः वारिण रे ।। ६ ।। आवु ॥ श्री सोमकीत्ति गुरु पाट छोरी घर सोल कला जिसु चंद्र रे । ब्राह्म यसोधर इसी परिवीनवि। श्री संघ करि पाणंदू रे ।। ७ ।। प्रात्रु ।।
राग सोरठा गढ शूनु जस तलहटी रे लाई गिरि सना माहि सार । बेह सिर स्वामि समोसा रे लाई राजमती भरतार । हो ने मजो सेवक नी करे सहाय । तोरा गुणह न लामु पार, तुतु त्रिभुवन तारण हार
॥१॥ हो नेमजी ॥ शिषर पांचि सोहि भला रे लाई रेया केरि भृग। स्वाम पूजन विनायकरे अलुणा सहिर अंबाई उत्तय ।। २॥ हो नेमजी ।। जस पाजि पाग माझि तारे लाइ.हीयडोलि. प्रतिहि प्रासंव । गयंदमि कुड अगक्षाली रे लाई पूजित्रु नेमि जिसंद ।। ३ ।। हो नेमजी ।। मानव भत्र जु पामीउ रे लाई सफल फरू रे संसार । बाह्म यसोधर इम कहि रे लाई. सामलु सुखदातार ।। ४ । हो नेमजी ॥
(१६)
राग धन्यासी प्रीतडी रे पाली राजिल इम कहिरे। हीय डोलि हरस न मार धरि घरि मूडी जूनिगढि
उछली रे। घस्यु रे नीसाणे घाइ ॥ प्रीतडी० ॥ १ ॥ छपन कोडि यादव मिल्या रे।
परे'घोष नहीं पार। हडीयो रे घेर विकाई रे। '
पुहुनसारे तोरण-बार ।। प्रीती० ॥ १ ॥
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२१२
प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
सोल रे ,नार रायगि अगि करीरे।
__ सखीए पर बरी सार। गुखरे बडीनि जोउ राणी बालीए रे।
ता. स्तिनी ।।२।। गुहिर गुरुराडु जीवे मारी मेमजी रे सुरणी देई कान ।
परिहरी चाल्यु राणी रायमि मेह्वीडो परंता हो ते रानि ।। प्रीतही रे पालु पेला भवतरणी रे ।
अबला म मेल्स रे निरधार । रथडु रे वाली देव दया करु रे ।
भवि भवि नु भरतार ।। प्रीतडी ।।३।। दुखरे दहन श्री गिरिवर गउ रे ।
रायमि करि रे विलाप, नोरि रे नगोदर बाजू बंध बहिरषार ।
प्रीवि रे उग्रसेन बाप ॥ प्रीतडी० ॥४॥ नेमरे वलणे तप मांडीउ रे।
छाहीउ रे काम विकार। ब्रह्मरे यसोधर इम वोनवि रे।
त्रिभुवन तारण मुझ तार ।। प्रीतसरी ।। ५ ॥
राग बसंत अंगि हे मनोपम वेष रे करी उग्रसेन घरि जाय राजिल वरी1 बोलि बोलि रे राणी राजमती । नवह भवंतर नेह तजीनि दमि नैमि पमा यती ।। बोलि ।। १ ।। छपन कोड यादव दल रे साजी, भार कोडि साठी बाजिन बानी ।। बोलि ॥ २ ॥ भति रे उछाह नेमि तोरएि गया, पसूडो पोकार सुणी उभारे रहा । बोलि ।। ३ ।। नेमजी काहि रे ईणो फवण काज । परण्यां गुख तपनि यादव राज : बोलि ॥ ४ ॥
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ब्रह्म यशोधर क पद
सुरण रे सारधी तहि कहुरे भाप । अपर जीवके रु प्रनंत पाप ।। बोलि ।। ५ ॥ सुख बइठी राजिल जोइ रे आली।। पसूडो बंधन छोडी ग3 रथ वाली ।। बोलि ।। ६ ॥ पूरब प्रीतडीयां स्वामी मन पवा । दुर्जन ना बोल ती मन थी टालु || बोलि ।। ७ ।। राजिलि नेमि पामी जाई गिरनार । बहा रे यसोपर कहि संसार !। बोलि ॥ ८ ॥
राग कालेह चेतु लोई २” भिर म कह दया दान जे उड़य प्रारोही सिरपुर जामि सोई ।चेतु।१।। चंचल धन तनु चंचल जाणु योवन चंचल माणु रे । वीज तेज जिम क्षण एक दीसि ही मष्टि अस्थिर प्राणु रे ॥चेतु।।२।। बंधव पुत्र कलिज कहि ना पितर माई परिवारा रे अबंरि अभ्र पटज जिम दीसि भाथिर एह संसारा रे ।।चेतु।।३॥ लक राह जे रावण राणु नस्ल नहुष परिमाणु रे । प्रवर राइ घर कोई न रहीया हूया होसि जे जाणु रे ।।चेत।। ४१ ज्ञान दृष्टि ता जोउ विघारी परिहस धन परनारी रे। ब्रह्म यशोधर ए गुण दासि तेहनि समरथ सरणि राखि रे ॥५॥
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नामानुक्रमणिका
नाम
पृ सं.
नाम
२५
कृष्णदास
२५, ८३
१७५ ८१, १२५
अश्वसेन अमरकीति अमृत महादेवी अजितनाथ अनन्तकोति अभयमति अभयरुच अनन्तवास मादिस्यसेन
८१ मादिनाथ स्वामी ५, २६, सभयकीति उदयसेन __ २५, २२ उपाध्याय संवेग सुन्दर फनकक्रीति
२५ कल्याणकीर्ति कबीरदास कनकप्रभसरि
कुमारसेन कुमुदचन्द्र कुलभूषण कुतबनशेख कुन्दनलाल कुन्धकुदाल केगामती कैलाम केशवसेन कैशक साह खेमारा झांमु गंगसेन गंगा गारवदास गांधी भूपा गुरुनानक गुणसेन
१५,४३, ६३
गुणचन्द्र
कनकसेन काऊ कीतिध्वज कोतिपर
गुणकीति
१, २, ८१, १२., १२२, १२८, १५६
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________________
नामानुक्रमणिका
नाम
माम
२१५ पृ.सं.
२५, ६३ २, ४, ६४, १२०
गुणदेव
जिनसेन जिनदास
१९५
गोजसेम
१२१, १२, १५६
घमंदास
१२०
घनश्री
१५४
जोहरापुरकर ठक्कुरसी महाकवि तुलसीदास दशरथ
धर्मसेन
३, २५, ८६
१
१२५
घराक्षास चन्द्रसेन चन्द्रमति
বরি चतुरुमस
१४, ४१, ६२, ६६
देशभूषण देवकीति देवभूषण देवेन्द्रकीति
२५, ६२
...
पावसेन
पास्कोति
पावत
बारितसेन
नंदासुनन्दा व. नाना नागसेन नाभिराय नेमसेन मिदास भ. नेमिनाथ
७८, ८०,८१
छील जयसेन
२५, ८२ २५, ८३
१६५, १६६, १५३, १६%
६२, ६६
जमकीति जसोबर जसोमति यूस्वामी
४३, ५३
नोमसेन पदमकीति
.
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________________
२१६
नाम
पद्मसेन
पद्मावती
भ. पाश्र्वनाथ
पुरुषोत्तम
बलिभद्र
बहलोल बोदी
बुधराज
भवसेन
भचकीर्ति
भट्ट
भानुकीर्ति
भीमसेन
मुबनकीति
भूषण
महसेन
महेन्द्रसेन
महमूद
महसेनाचार्य
मनोहर
महकीति
मनदति
पृ. सं.
1K
७९
૨
१७७
४
१
२५
२५, ८३
८०
२५
२८, २५, ८६
२५, २६, ८४
४
२५, ८३
८ १
२६
१२०
८. १
८२
भाचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
पृ सं.
१७५, २०४
१२०
१५७
६ ४
नाम
भ. मल्लिनाथ
महिलदास
महाकवि सिंह
रानी महिदेवी
arer मतिशेखर
मारसेन
मारदत्त
मालव
मिश्र बन्धुविनोद
मेरुकीति
मेरसेन
मेषसेन
मृगावती
यशः कीर्ति
यशोधर
८१
१३. ३४
१७३
१, २
८२
८१
८१
२
१, २, ८१,१५७,
१५८, १६०, १६१,
१६३, १६४, १६२
१, २, ७, ११, १४
१५, १६, ४२, ६६
३, १२१, १६४
१६५, १७२, १७७
१६२, १६७, २०३०
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________________
२१७
नामानुक्रमणिका नाम
पृ. सं. २०५, २०६. २१०
नाम
पृ. सं. लक्ष्मसेन २५, २७, ६५, ८६ लक्ष्मीचन्द चांदवाड़
१५१
यशोमति
योगी
१५, ४५, ६२, ६४
१६१ २५, २६, ८२, १७५
ललितकीति लोकक्रीति
रत्नकीति
रपणकीति
वरदत्त
रघु रविक्रीति
बासुपूज्य स्वामी
१६६, १७२,
रविषणाचा
रामकीति राजकीर्ति रामसेन
वासवसेन विजयकीति
८३, १५७, १५८
२५ ५,६,७६, ७७ ७८, ८१, १६४, १६२
२५, २६, ८१
२५, ८१, ८३, १६४, १६५, १७१, १७२, १६४, १९५ ८१, १५८, १६४
१६२ ८२, १५७
विजयसेन
रामचन्द्र शुक्ल रामचन्द्र मूरि
विमलकीर्ति
विशालकीर्ति विश्वसेन
__ २५, १२
रुकमणी कडा
२५, ६२
विश्वनन्दि वीरसेन सान्तिदास
लक्षमीसेन
५, ६, ७, ८१
१२०
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________________
२१८
प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
.सं.
नाम
पृ सं.
मान मान्तिनाथ स्वामी भीतलनाथ स्वामी
मोमकीति
५, ७, ११,
२४.
शुभचन्द्र शुभकीति सकलभूषण सकमकीति
६, ७, ८, ९ १०, ११, २५ २६, २८, २९ ३०, ३१, ३३ ३३, ७३, ६१ ८६, ६१,
१७१
११, १५६, १६४.
१७२, १६४
संहदेवी যবসা सहसकीति
१६५, २१ १२, २६ ६२
सोमदेव
संयमसेन सहमसेन
सांगु
६४, १०४
सुकोसलराय हरिषेण
मुदत्ताचार्य महाकवि स्वयं
हरसेन हरिराम
मुरझेना
श्रुतकीति श्रीकाति
सुगमति
अंगास
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________________
सामानुक्रमणिका
नाम
साम
उपाध्यायज्ञानसागर ज्ञानभूषण
श्री प्रान्ति त्रिलोचनदास त्रिभुवनकीति त्रिलोककीर्ति
शानदास
११. १७१ १२८, १५६ २७, ६१,६४
ऋषभनाम
ग्रंथानुकमारिणका
पज्जुण्णचरिउ पद साहित्य प्रघुम्न परित पाण्डव पुराण मलिभद्र कुपई
१५७ १६६, १६७,
१७७
अष्टान्हिका व्रत कथा , १० प्रादिनाथ विनती १. २६, ६१ गीता भानुप्रकाश मुस्मामावलि ___६, २६, ३३,
७४, २३ पश्विमेष धर्मपरीक्षा
१५८ चिन्तामणी पाश्वनाथ जयमाल
३३, ६२ चौबिस तीर्थकर भावना जसहर परिउ जगत सुन्दरी प्रयोगमाला जिणरन्तिा मेमिनाय गीत १५६, १६६
१५३, १६८, २०३
मल्लिगीत मस्सिनाय गीत
१६६, १७
मृगावती मशोथर परित्र यशोधर रास
८,१०,११ . ९, १२, १३, २३, ३४, ७३
यशस्तिलक चम्पू योगीवाणी
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________________
२२०.
प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
नाम
राजर्षि चरित रामसीतारास
सप्त व्यसन कथा
रामरास राजस्थान के जन सन्त শিলাখ।
की चूली वृहतकथाकोश वासुपूज्य गीत
१२०, १२१, १३०, १५६,
१२०
१२० ६, २७, ३३
८७, ११
नाम
पृ. सं. वैराग्य गीत १६६, १७१,
१६७ सप्त व्यसन कथा सप्तव्यसन कथा समुच्चम समवसरण पूजा सारसिसामन रास सुकोशलराय १३, ६४.
चुपई १०४, ११३ हरिवंश पुराण
१५७ अपनक्रियागीत १. २८, ३३ श्रीपालरास (ज्ञानसागर)
१६६, १७२
१६५ १७१, १६४
विजयकोत्ति गीत
नगर, प्राम एवं प्रदेशानुक्रमणिका
अंगदेश
उजणी-उनी
अरुणग्राम
५३, ५६, ५८;
६२, ६३
१००, १०६
११२ १०२, १०४ ६४, १०४, १०५ १०८, ११३, १२५, ५१३
अयोध्या
उदयपुर कुकरणनि कुजलपुर करणाट कर्नाटक
RO
m
पहमदाबाद मामेर
५.३, ६७, १.२, १०८
"
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________________
२२१
नाम
करहाटक
कोंकण
कोशल
खरासा
गउड
गूजर देश
राजरत
गिरिपुर
गुडलीनगर
गोपाचल
चम्पापुर
चित्रकोट
चीतुडगढ
चोरण
जयपुर
जम्बुद्वीप
जयसिंहपुरा खोर
जाजर
जोधपुर
डूंगरपुर
ढीली
पू. सं.
५. ३
१७, १००
८७
६७, १००, १०४
१७२
६७, १७३
P
१०२
१६५
११, १२
१०८, १६३
१००, १०६
er
१२२, १२४, १४०
१००, १०४
५, ६, १३, १५७
१३, ३४, १०४
१७७
५.
ex
५.६,४४,१४८
१७५
१७३
माम
देहली
घुलेव
नागौर
नाछिपाटि
पावापुर
पोयलपुर
आन्द्
बंगदेश- बंगाल
बसपाल
बागड़
बांसवाड़ा
मगध
मथुरा
मरठ, महाराष्ट्र
मरुस्थली
मालव
मारवाड़
मुलतान,
मेवाड़ मेदपाट
मोष देश
एजयम्भोर
ग्रंथानुक्रमणिका
पू. सं.
४
१५८
१५८
१४०
१००, १०४,
१००
19
१००, १०४
१७२
६
१६५
१००
७५, १३१, १०८,
१५५
१७, १०२
१७३
६७, १००
४६. १७३
६७, १०६
६७, १००, १०२
१०६
११, ७६, ६७
१३
१०६
३४
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________________ 222 प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर माम नाम राजपुर पृ.स 13, 34 5, 7, 6, 76 साकेता राजस्थान सांगानेर रामपुरी सुरपुर स्ोजित्रा राजगृही रेवासा 158 सोमापुर हथिणार 4, 7, 26, 86 125 10,68100 लाड देश 10, 173 122, 641 . शस्था