________________
१५०
आचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
समवकरण का प्रभाव
वाखिल फिरता त्रण प्राकार, च्यार पोल सोबण घणसार । ठामि ठामि हीरा झलकति, माणिक रयण पदारथ पंति ॥३४॥ मानर्थभ घजा फरिहरि, स्वर्ग समी जाणे स्पृदा करि । तेडि भवीन ग देइ मान, एतु कहीइ पुण्य प्रधान ।। ३५ ।। पाव्या सुरपति देव बहूत, करि भक्ति वासव संयुत । रयण सिंघासण मांडय चंग, बिठा जिनवर अनोपम मंगि ।३६।। एके छत्रधरि शिर हेब, चुसठि चामर कालि देव । भेरी रव घंटा एक घणा, सहिजी इन्द्र करि लुच्छणा ।। ३७ ।। गुहिरि दुन्दुभि वंश विसाल, नाचि अएछरा बहु विधि ताल । वांइ वेणा एक गावि गीत, इणी परिररिज जिणवर चिंत ॥३।। गढ़ भितरछि कोठा बार, नाट साल वेदी वर सार । मोती तरणा चुक परि गरि, सची इन्द्र जिन पूजा करि ।। ३६ ।। चिद् दिशि च्यार सरोवर भला, निरमल नीर रमि हंसला । हाटक हीरे बंधी पाल, कमलरिए कमलणि मुधुकर माल ।।४।। बाव चतुंमुख बहु प्राराम, पोइ नीर जिन लेइ विश्राम | खेचर सुन नर क्रीड़ा फरि, मुगति तशी पयडी संचरि ।। ४१ ।। फूल्या वृक्ष फली घरग लता, अनेक रूप पंषी सेवता । ठामि ठामि कोइल गहि गहि, मधु पलव केतकि महि महि ।।४।। जिणवर महिमा न लहु पार, रतु छोड़ी तर फलीया सार । माग्या मेष ते वरसि सदा, दुर्भष्य बात न सोयरमे कदा ।। ४३ ।।
वहा गाइ तणां जे याछरू, करि वाघिण सु खेल। ससक समी सीयालणी, हरि कुन्जर गति गेल ।।४४।। केकी स् विसहर रमि, नाग नकल विह नेह । प्रवर बात सवि परिहरु, जिरणवर प्रतिसि एह ॥४६॥ सारंगीनि सिंघनो बालक रमलि करंति । मांजारीनि हमलु फरी फरी नेह धरति ।।४।।