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आचाय सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
राजरिधि सघसी कोई छांडी। बालपरिण दीक्षाकाइ मांडी। एबहुँ साहस कोइ की ए ॥४॥ अथवा एवडी कोइ विमासरण । बिसारी सनमुख बली भासरिए । ग रामी म सह ए !|४|| राजा बलिक साहामु जोव । पाप बुधि सवली ते धोइ । विनि करीनि पूछी ए ॥५ कवण कुल ले तो भक्तरीयो । सूरज जिमि तेजि परिवरियां । कुरिण कारणि दीक्षा लेइ ए ॥५१॥ जे कारण कि मनमाहि मोरा । सम देई हुई गुरु तोरा । जु तुम्हे कोई उलए ॥५२||
अस्सक द्वारा उत्तर देना पुल्लक दलतु इम वोलि । जाणे सुरगुरु केरि तोलि ।
काई करू महा पूछीहए ॥ ५३ पाप बुधि छि राजन तोरी । धर्म का छि निश्चल मोरी।
तु प्रापण किम मलिए ॥ ५४ पेह विमास्युछि निज चित्त । तेति जाण्यु छह पुरण तत्त्वे ।
हवि विमासगामी करिए ॥ ५५ षडग कोश तव धरु राई । इष्ट ठवी छि पसिक पाइ ।
कर जोडी ए सुंगिए ।। ५६ कह स्वामि तल तरणएं परित्त । सहू सांभलमो एकि चित्त ।
कोलाहल को मां काला ॥ ५० लोक सवेनि जोगी नाम । देवी पुण चित्त कीधु ठाम।
ब्रह्मचार तब इम भरिगए ।। ५८ पुण्य तथा सहूइ सांभलयो । पाप वात माहि छि टखयो ।
सवि सुख पामउ तु सहए ॥ ५६
1, मूल पाठ-ब्रह्माधार