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प्राचार्य सोमकी ति एवं ब्रह्म यशोधर
म कह कुरिसत कम्म । भवह वणे। तर तह रे उत्तम जन अवर भ प्राण मनि । ध्याउ सर्वक धन । लमसेन गुरु एम भरणे ॥४॥ धीवि वीठिरे प्रति प्राणंद । मिथ्यातना लिकंद । गयण बिहूराज चंव। कुलहि तिलु । जोई जोइ रे रमणी दोसि । तस्व पर लही कोशि । धरि मादेश शीसि । सेह भलु । तरि सरि रे संसार । करतिम गुरु मूकिद मूफिह मोकसु कर दान भणी। ईहि छवि रे रठडी बाल । लेद बुद्धि विशाल । पाणीय श्रति रसाल । लषमसेन मुनिराउ तरणी ॥५॥ ७ ॥
उत्त भट्टारकों में ८० वें भट्टारक भुवनकीर्ति ने दिल्ली के बादशाह महमूद शाह के सभा में अपनी विद्यावश पालकी ग्राकाश में चला दी थी। जिस कारण महमूदशाह ने उन्हें बड़ा सम्मान दिया था। भुवनकीर्ति ने बादशाह की सभा मध्य सभी मिथ्यास्वियों को शास्त्रार्थ में जीत लिया तथा जैन धर्म के यश को द्विगुणित किया था 1
__E२ वें भट्टारक वासबसेन ने यद्यपि मलिम नाम वाले थे लेकिन उनके नामकरण से तया पिच्छी के स्पर्श मात्र से कुष्ट का रोग दूर हो जाता था।
८३ वे भट्टारक रत्नकीति भी निर्मल चित्त वाले तथा कामदेव पर विजय पाने वाले थे ।
रचना काल.
"गुरु छन्द" को सोमकीति ने संवत् १५१८ प्राषाढ मुदी पंचमी रविवार को समाप्त किया था । रचना स्थान सोझिश्रापुर था जो भट्टारक सोमदेव का केन्द्र स्थान या। वहीं उनकी गादी थी तथा बहीं उनका पट्टाभिषेक भी हुआ था। रचना की विशेषता
गुरुछन्द ऐतिहासिक कृति तो है ही साथ में माषा की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। सोमकीर्ति ने छन्द के प्रथम तीन पद्य संस्कृत में निर्मित फिए है । फिर राजस्थानी भाषा में पद्य एवं गद्य दोनों निर्मित है। राजस्थानी गद्य को कवि ने बोली लिखा है जो तत्कालीन बोलचाल की भाषा थी।