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रिषभनाय की धुलि प्रणमवि जिणवर पाउ तु, राउ तिह भवननुए । समरवि सरसिंत देवतु, सेवा सुर नर करिए । गाइ सु आदि जिणंद, पाणंद प्रति उपजिए । कौगल देश मझार तु, सुसार गुण प्रागलु ए ॥ १ ॥ नयर मनोध्याहां वास तु, प्रास जगि पूरविए । नाभि नरिंद सुरिद जिसु, सुरपुर बरीए । मुरा देवी तास अरषंगि सुर गिर भाजिसीए ।
राउ राणी सुखसेजि, सुहे जाइ नितु रमिए ।। २ ।। भाता की सेवा करना
इंद्र मादेश सुबेस प्रावीय सुर किन्यका ए। केवि सिर छत्र परति, करति केवि धूपरगाए। केविउ गट देव अंगि, सुचंगी पूजा घरणी ए । केविउ मर बहू अंगि, मामगीय पारण वहिए ॥ ३ ॥ केवि मयन अनि मासन, भोजन विधि करिए । केषि षडग वर्ग हाथि, सो साथइ नितु फिरिए । मुरा देवी भगति चि काजि, सु लाजन मनि धरिए । जू जूया करि सदि वेषतु, मा मन परिहरिए ।। ४ ॥ परभ सोष करि भाव तु, गाइ गुण जिन तणाए । बरसि प्रहठए कोडि करि, जोडि सोवण तणीए । दिन दिन नाभिनिबार, सो वारि वा दुःख धरणीए । एक दिवस मुरा देवी, सो सेवीइ अक्षरणीए । पुढीय सेजि समाधि, सु भपि कोइ पासणीए ॥ ५ ॥
अथ दाल मोनी मुरा देवी सोयगडां पेषि, विमुपन प्रण जिम देषि ।