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कवि प्रशस्ति
भाचार्य सोमकोति एवं ब्रह्म यशोधर
ग्रह निधि करि दया धर्म तु दान देय मनि रलीए । त्रिभुवन माह जयकार तु, जस बोलि सहजलीए ।। ३० । सोल धनुष तस देह तु. ऊंचा रामदेव कही ए ।
सतर सहल वृष प्रायु तु, तेह परमारण कही ए ।। ३१ ।। एतला मार्गह सविचार तु श्रीराम प्रति बली ए । यार पदारथ सार सु. साध्या निरमला ए ।। ३२ ।।
ए रामायण ग्रंथ तु एहूनु पार नहीं ए ।
हूं मानव मति हीरा तु, संखेपि गीत कहीं ए ।। ३३ ।। विद्वांस जे नर होइ तु, विस्तार ने ऋरि ए ।
ए रास भास सुवितु, मुझ पर दया धरु ए ।। २४ ।। अक्षर मात्र हुबि तु पद छंद गा चूक ए ।
सरसिति सामिण देवि तु, अपराध मुक्त मूक ए ।। ३५ ।। श्री ब्रह्मचार जिखदास तु परसाद तेह तो ए 1 मनतिफल होइ तु, बोलीइ किस्यु घणु ए ।। ३६ ।। गुणकीरति कृत रास तु विस्तार मनि रखी ए ।
बाई श्री ज्ञानदास तु पुण्यमती निम्मली ए ।। ३७ ।। गावउरली रंगि रास तु, पावउ तु, पावउ रिद्धि वृद्धिए । मनवांछित फल होइ तु संपजि नव निधिए ।। ३८ ।।
इति श्री रामसीतारास समाप्तः ॥
गटका --- पृष्ठ संख्या ६५ से ६१