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ब्रह्म यशोधर
करमि ऋद्धि वृधि पामि बहू एके निरघन कमि सहूं कमि करि ते निश्शि होई काटम कारण नवि छूटी कोइ ।।११३॥ हर चंद राजा साहस धरि, कमि प्रघम परि प्रयुनीर ।
करम नल नर चकू राज, दमयंती बनि कोधी त्याज ।।११।। लेकिन धर्म की महिमा कम नहीं है। जिसने भी धर्म को जीवन म उतारा उसी का जीवन सफल हो गया। बलिभद्र चुपई में कवि ने धर्म के महात्म्य का वर्णन करते हुए लिखा है--
धरमि धन बह संपजि, राजा रयण भंडार । धरमि जस महीयल फिरि, उत्तम कुल प्रवतार ।।१८२।। घरमि मन पीन्यु फलि, दूर देशंतर जेह । हा गज नाम परत या काल . १८३१ धरम नर महिमा हह, परमि लहीइ शान । घरमि सुर सेवा करि, धमि दीजि दान ।।१।। धर्म तणा गण बहू अछि, ते बोल्या किम जाए।
चुगि रु टालसि, जो धुरि धर्म दयाल ॥१८५।। 3. विजयकोत्ति गीत
विजय कीनि भट्टारक थे तथा भट्टारक ज्ञानभूवरण के शिष्य एवं भट्टारक शुभचन्द्र के गुरु थे । ये भट्टारक सकलकीति की परम्परा के माधु थे। उनके महान ध्यक्तिहव के कारण परवर्ती कितने ही भट्टारकों एवं कवियों ने उनकी प्रर्शसा की है। व० सामराज ने उन्हें सुप्रचारक के रूप में स्मरण किया है। भ. सकलभूषण ने यशस्वी महामना, मोक्ष सुखाभिलाषी आदि विशेषणों से उनकी कत्ति गायी है। भ० शुभचन्द्र भी उन्हें यतिराज, पुण्यत्ति प्रादि विशषम्गों से अपनी श्रद्धांजलि पित की है। भट्टा क देवेन्द्र कीत्ति एवं लक्ष्मीचन्द चांदवाड ने भी अपनी कनियों में बिजय कीति का गगनुवाद किया है।
1. विजयवी त्तियो ऽभवन भट्टारकोपदेशिनः । जयकुमार पुराण 2. भट्टारकः श्री विजयादिकात्तिम्त दीयरहे दर लम्धकात्तिः ।
महामना मोक्ष सुखामिलापी वभूव जनावनी प्राय॑ पादः । उपदेश रलमाला 3. विजयकीति तस पटधारी, प्रगटया पूरण मुखकार रे । प्रद्युम्न प्रदन्ध 4. तिन पट विजयीनि जवंत, गुरु अन्यमति परवत समान । श्रेगिक चरित्र