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प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर
ब्र यशोधर ने भी भ. विजयकीति की प्रशंसा में एक पूरा गीत लिखा है । जिससे पता चलता है कि उनकी विजय कीत्ति के प्रभावक जीवन में पूर्ण श्रद्धा थी। यशोधर ने लिखा है कि बचपन में ही मिजप कीत्ति ने संपम धारण कर लिया तथा समलकीत्ति की वाणी को सुन कर प्रसन्नता से भर गये थे । संमार को संसार जामकर पंच महादत स्वीकार किये नया विश्वसेन मुनि के पास आकर दीक्षा ले ली। वे बाईस परिषहों के सहने लगे ।
विजाति की जान लीसा घा! विजयकत्ति के प्रभाव के सामने अनेक राजा महाराजा नत मस्तक थे जिसमें मालवा, मेवाड़, गुजरात, सौराष्ट्र एवं सिंध के अनेक राजा थे। दक्षिण में महाराष्ट्र, कोंकण के प्रदेश थे । वे ३६ लक्षणों वाले थे तथा ७२ भाषानों के जानकार थे । वे काष्ठा संघ के यति शिरोमणि थे।
पागम वेद सिद्धान्त व्याकण भाषि भवीपण सार । नाटक छंद प्रमारण बूझि नित अपि नवकार ॥ श्री काष्टसंघ कुल सिलु रे यती सरोमणि सार ।
श्री विजयकोरप्ति गिरुड गणधर थी संघ करि जयकार ।।४ ।। ४ वासुपूज्य गीत
बंसपाल बांसवाडा) नगर में वासुपूज्य स्वामी का जिन मन्दिर था । प्र. यशोधर की उनके प्रति अतीव श्रद्धा थी इसीलिये सभी समाज से बासुपूज्य स्वामी के दर्शन, पूजा एवं स्तवन करने के लिमे प्राह्वान किया है। कवि ने लिखा है कि वासुपूज्य स्वामी के ग्रागे भाव विभोर होकर अष्टमकारी पूजा करने के लिये कहा है तथा निम्न प्रकार पूजा करने का फल बतलाया है -
अष्ट प्रफारी जिनवर पूज करेमि रे । भावि भक्ति लक्ष्मी सक्ति संसार तेरसि रे ।। नवर बंशबाला मंडण तु स्वामी रे बह्म पशोधर प्रति घणु वलिवि
देयो तम गुणग्राम रे ॥१२॥
गीत की राम कामोद धन्यामी है जिसमें १२ पद्य है । ५. वैराग्य गोत
यह गीत राम धन्यासी में लिपि बद्ध है । इस गीत में मनुष्य जन्म की