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तप साधना
प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर
पंच महावय परिवर, पंच सुमति सुविसाल । संसार तरणा संग परिट, तू मुक्यू मायाजाल
खुपई
।। १५६ ।।
पंचेन्द्रो नि व्यार कषाइ, मयरण मल्ल सु सुज्यु ठाइ । लक्ष चुरासी समचित करी, क्षमा षडग जीएि करि धरी
।। १५७
मद मेगल जे भाइ कही, तप केशरी विदा सही । मोह मछर पछि विषनाम, वैनतेय जिम संज्यु ठाम
।। १५८ ।।
मन थी माया कीधी दूर, समता रस बणु झील पूर 1 कोष लोभ वे दोषी जेह, संतोष सेल गही कीधा छेह
जिता पुर हुचि रविराय, ईर्ष्यापथ सोषंतु जाइ । रूप वणु नवि लाभि पार पति पनि उभी नरषि
+
।। १५६ ।।
जिनवर दीखया लाग्यु वास, हलधर ध्यान रह्य षट् मास । काया स्थिति करवा कारण, बल मुनिवर उत्तरि पारण
।। १६० ।।
नारि
।। १६१ ।।
एक कहि ए सुरपति होइ, एक कहि ए नल वर सोइ । एक कहि ए नशपति चंद्र, एक कहि महिपत्ति नागेन्द्र ।। १६२ ।। एक कहि सावित्री स्वामि, एक कहिं सीता पति राम । एक कहि गिरजा पति ताम, एक कहि ए रति पति काम
।। १६३ ।।
निरमल चित बोलि एक नार, सुणु सखी कहुं तम वचन विचार | पूरव भवि पुण्य की कोई, तु श्रह्म इसु बंधय बेदु होइ ॥ १६४ ॥३ एक नारि मनि घरि विकार, ए हवु नरही इणि संसार |
सु मानव भव कहीइ सार, निश्चि लद्दीइ ए भरतार ॥। १६५ ।।