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2. जीव तत्त्व का स्वरूप
जैनदर्शन में जीव का लक्षण बताते हुए कहा है- 'जीवो उवओग लक्खओ' अर्थात् जिसमें उपयोग गुण है वह जीव है, चेतन है। जिसमें उपयोग गुण नहीं है, वह अचेतन है, वह अजीव है। अर्थात् चेतन-अचेतन में मुख्य अन्तर है-उपयोग गुण का। उपयोग गुण दो प्रकार का है-1. निराकार उपयोग और 2. साकार उपयोग। निराकार उपयोग, साकार उपयोग के पहले होता है। आगम की भाषा में निराकार उपयोग को दर्शन कहते हैं और साकार उपयोग को ज्ञान कहते हैं। निराकार (दर्शन) उपयोग चेतना का प्रधान गुण है कारण कि इसके अभाव में ज्ञान नहीं होता है। पहले दर्शन होता है, तब ही ज्ञान होता है। ज्ञान का आधार दर्शन ही है। दर्शन गुण चेतनता (चैतन्य) का, चिन्मयता का द्योतक है। संवेदन होना ही चेतना का गुण है, जड़ को संवेदन नहीं होता। इसी से दर्शन को धवला टीका में स्व-संवेदन कहा है। अर्थात् स्वयं में होने वाला संवेदन दर्शनोपयोग है, जो वेदन क्रिया के रूप में सातावेदनीय-असातावेदनीय के रूप में प्रकट होता है।
चेतनता (दर्शनगुण) का विलोम गुण है-जड़ता। चेतन में चैतन्य गुण स्वभावगत है। चेतन के असंख्यात प्रदेश हैं, ये सब प्रदेश चेतनतामय हैं। यह गुण सर्व चेतन में सदा समान बना रहता है, इसमें न्यूनाधिकता नहीं होती है। न्यूनाधिकता होती है, इस गुण के प्रकटीकरण में। जिस