Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
View full book text
________________ 27 खंण्ड 1, प्रकरण : 2 १-श्रमण-संस्कृति के मतवाद जैन-साहित्य में श्रमणों के पाँच विभाग बतलाए गए हैं निर्ग्रन्थ जैन-मुनि, शाक्य- बौद्ध-भिक्षु, तापस जटाधारी वनवासी तपस्वी, गेरुक- त्रिदण्डी परिव्राजक और आजीवक- गोशालक के शिष्य / ' निशोथ चूणि में अन्यतीर्थिक श्रमणों के 30 गणों का उल्लेख मिलता है। बौद्धसाहित्य में बुद्ध के अतिरिक्त छह श्रमण-संघ के तीर्थङ्करों का उल्लेख मिलता है। दशवकालिक नियुक्ति में श्रमण के अनेक पर्यायवाची नाम बतलाए गए हैंप्रवजित, अणगार, पापड, चरक, तापस; भिक्षु, परिव्राजक, श्रमण, निर्ग्रन्थ, संयत, मुक्त, तीर्ण, त्रायी, द्रव्य, मुनि, क्षान्त, दान्त, विरत, रूक्ष और तीरस्थ / इन नामों में चरक, तापस, परिव्राजक आदि शब्द निर्ग्रन्थों से भिन्न श्रमणसम्प्रदाय के सूचक हैं। श्रमण के एकार्थवाची शब्दों में उन सबका संकलन किया गया है। .. १-प्रवचनसारोद्धार, गाथा 731-733 : निग्गंथ सक्क तावस गेल्य, आजीव पंचहा समणा। तम्मि निग्गंथा ते जे, जिणसासणभवा मुणिणो॥ सक्का य सुगयसीसा, जे जडिला ते उ तावसा गीया / जे धाउरत्तवत्था, तिदंडिगो गेल्या ते उ // जे गोसालगमयमणुसरंति, भन्नति ते उ आजीवा। समणत्तणेण भुवणे, पंचवि पत्ता पसिद्धिमिमे // २-निशीथ सूत्र, समाज्य चूर्णि, भाग 2, पृ० 118-200 / ३-दीघनिकाय, सामञफल सुत्त, पृ० 16-22 / / ४-दशवकालिक नियुक्ति, 158-159 : पव्वइए अपगारे, पासंडे चरग तावसे भिक्खू / परिवाइए य समणे, निग्गंथे संजए मुत्ते // तिन्ने ताई दविए, मुणी य खंते य दन्त विरए य / लूहे तीरटेऽविय, हवंति समणस्स नामाई॥