Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ खण्ड 2, प्रकरण : 11 सूक्त और शिक्षा-पद कम्मुणा बम्मणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ। वइस्सो कम्मणा होइ सुद्दो हवइ कम्मुणा // 25 // 31 // ___ मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है। उवलेवो होइ भोगेसु अभोगी नोवलिप्पई। भोगी भमइ संसारे अभोगी विप्पमुच्चई // 25 // 39 // __ भोगों में उपलेप होता है। अभोगी लिप्त नहीं होता। भोगी संसार में भ्रमण करता है / अभोगी उससे मुक्त हो जाता है / खलुंका जारिसा जोज्जा दुस्सीसा वि हु तारिसा। जोइया धम्मजाणम्मि भज्जन्ति . धिइदुबला // 27 // ___ जुते हुए अयोग्य बैल जैसे वाहन को भग्न कर देते हैं, वैसे ही दुर्बल धृति वाले शिष्यों को धर्म-यान में जोत दिया जाता है तो वे उसे भग्न कर देते हैं। नासणिस्स नाणं नाणेण विणा न हुन्ति चरणगुणा। अगुणिस्स नस्थि मोक्खो नस्थि अमोक्खस्स निव्वाणं // 28 // 30 // ___ अदर्शनी (असम्यक्त्वी) के ज्ञान (सम्यग् ज्ञान) नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र गुण नहीं होते / अगुणी व्यक्ति की मुक्ति नहीं होती। अमुक्त का निर्वाण नहीं होता। नाणेण जाणई भावे वंसणेण य सरहे / चरित्तण निगिण्हाइ तवेण परिसुज्झई // 28 // 35 // जीव ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धा करता है, चारित्र से निग्रह करता है और तप से शुद्ध होता है। तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा विवज्जणा बालजणस्स दूरा। समायएगन्तनिसेवणा य सुत्तत्यसंचिन्तणया धिई य // 32 // 3 // ___ गुरु और वृद्धों ( स्थविर मुनियों ) की सेवा करना, अज्ञानी जनों का दूर से ही वर्जन करना, स्वाध्याय करना, एकान्त वास करना, सूत्र और अर्थ का चिन्तन करना तथा धैर्य रखना-यह मोक्ष का मार्ग है / आहारमिच्छे मियमेसणिज्जं सहायमिच्छे निउणत्थबुद्धिं / निकेयमिच्छेज्ज विवेगजोगं समाहिकामे समणे तवस्सी // 32 // 4 // ___ समाधि चाहने वाला तपस्वी श्रमण परिमित और एषणीय आहार की इच्छा करे। जीव आदि पदार्थ के प्रति निपुण बुद्धि वाले गीतार्थ को सहायक बनाए और विविक्त (स्त्री, पशु, नपुंसक से रहित) घर में रहे।