Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 540
________________ खण्ड 2, प्रकरण : 11 सूक्त और शिक्षा-पद जम्मं दुक्खं जरा दुक्ख रोगा य मरणाणि य / अहो दुक्खो हु संसारो जत्थ कीसन्ति जन्तवो // 19 / 15 / / __ जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है और मृत्यु दुःख है। अहो! संसार दुःख ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं। समया सव्वभूएसु सत्तु मित्तेसु वा जगे। पाणाइवायविरई जावज्जीवाए दुक्करा // 19 // 25 // विश्व के शत्रु और मित्र-सभी जीवों के प्रति समभाव रखना और यावज्जीवन प्राणातिपात की विरति करना बहुत ही कठिन कार्य है। निम्ममो निरहंकारो निस्संगो चत्तगारवो। समो य सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य // 1989 // ममत्व-रहित, अहंकार-रहित, निर्लेप, गौरव को त्यागने वाला, त्रस और स्थावर सभी जीवों में समभाव रखने वाला (मुनि होता है)। लाभालामे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा / समो निन्दापसंसासु तहा माणवमाणओ // 1990 __लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान में सम रहने वाला (मुनि होता है)। अप्पा नई वेयरणी अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा घेणू अप्पा मे नन्दणं वणं // 20 // 36 // मेरी आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही कूटशाल्मली. वृक्ष है, आत्मा ही काम-दुधा धेनु है और आत्मा ही नन्दनवन है। अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य / अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पढियसुपट्टिओ // 20 // 37 // ___ आत्मा ही दुःख-सुख की करने वाली और उनका क्षय करने वाली है / सत्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही शत्रु है। महिंस सच्चं च अतेणगं च तत्तो य बम्भं अपरिग्गहं च / पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विऊ // 21 // 12 // __ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पाँच महाव्रतों को स्वीकार कर विद्वान् मुनि वीतराग-उपदिष्ट धर्म का आचरण करे / नाणेणं दंसणेणं च चरित्तेण तहेव य / खन्तीए मुत्तीए वड्ढमाणो भवाहि य // 22 // 26 तुम ज्ञान, दर्शन, चारित्र, क्षाँति और मुक्ति से बढ़ो।

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