Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
View full book text
________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ____ जो विभिन्न विशेषताओं की दृष्टि से सर्प, पर्वत, अग्नि, समुद्र, आकाश, वृक्ष, श्रमर, हरिण, भूमि, कमल, सूर्य और पवन के समान होता है, वह 'समण' है। समण वह होता है, जो स्वजन वर्ग और अन्य लोगों में तथा मान और अपमान में सम होता है तो समणो जइ सुमणो भावेण य जइ न होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो समो य माणावमाणेसु // उरगगिरिजलणसागरनहयलतरुगणसमो य जो होई।. भमरमिगधरणिजलरुहरविपवणसमो जो समणो // ' इस समत्व के आधार पर हो यह कहा गया कि सिर मुण्डा लेने मात्र से कोई समण नहीं होता, किन्तु समण समता से होता है / 2 श्रमण शब्द का अर्थ तपस्वी भी होता है। सूत्रकृतांग के एक ही श्लोक में समण और तपस्वी का एक साथ प्रयोग है / यदि समण का अर्थ तपस्वी हो होता तो समण और तपस्वी इन दोनों का एक साथ प्रयोग आवश्यक नहीं होता। उसी सूत्र में समण के समभाव की विभिन्न रूपों में व्याख्या हुई है। विषमता का एक रूप मद है। इसीलिए कहा है मुनि गोत्र, कुल आदि का मद न करें, दूसरों से घृणा न करें, किन्तु सम रहें / 4 जो दूसरों का तिरस्कार करता है, वह चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता है, इसीलिए मुनि मद न करे, किन्तु सम रहे / 5 चक्रवर्ती भी दीक्षित होने पर पूर्व-दीक्षित अपने सेवक के.सेवक को भी वंदना करने में संकोच न करे, किन्तु समता का आचरण करे / 6 प्रज्ञा-सम्पन्न मुनि क्रोध आदि कषायों पर विजय प्राप्त करे और समता-धर्म का निरूपण करे—'पण्णसमत्ते सया जए, समताधम्ममुदाहरे मुणी' इस प्रकार अनेक स्थलों में समण के साथ समता का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। १-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 156-157 / २-उत्तराध्ययन, 25 // 29-30 / ३-सूत्रकृतांग, 112 / 1 / 16 / ४-वही, 1 / 2 / 2 / 1 / ५-वही, 22 / 2 / 2 / ६-वही, 112 / 2 / 3 / ७-वही, 1 / 2 / 2 / 6 /