Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 533
________________ 504 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन घर मे अप्पादन्तो संजमेण तवेण य। माहं परेहि दम्मन्तो बन्धणेहि बहेहि य // 1 // 16 // अच्छा यही है कि मैं संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा का दमन करूं। दूसरे लोग बन्धन और वध के द्वारा मेरा दमन करें-यह अच्छा नहीं है। चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा संजमंमि य वीरियं // 3 // 1 // इस संसार में प्राणियों के लिए चार परम अंग दुर्लभ हैं-मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा और संयम में पराक्रम। जणेण सद्धिं होक्खामि इइ बाले पगम्भई। कामभोगाणुराएणं केसं संपडिवज्जई // 5 // 7 // मैं लोक-समुदाय के साथ रहूँगा-ऐसा मान कर बाल मनुष्य धृष्ट बन जाता है। वह काम-भोग के अनुराग से क्लेश पाता है। अज्झत्यं सव्वओ सव्वं दिम्स पाणे पियायए। न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए // 6 / 6 / / ___ सब दिशाओं से होने वाला सब प्रकार का अध्यात्म ( सुख ) जैसे मुझे इष्ट है, वैसे ही दूसरों को इष्ट है और सब प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है-यह देख कर भय और वैर से उपरत पुरुष प्राणियों के प्राणों का घात न करे। बहिया उड्ढमादाय नावकंखे कयाइ वि / पुव्वकम्मखयट्ठाए इमं देहं समुद्धरे // 6 // 13 // ऊर्ध्व-लक्षी होकर कभी भी बाह्य (विषयों) की आकांक्षा न करे / पूर्व-कर्मों के क्षय के लिए ही इस शरीर को धारण करे / जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवड्ढई। दोमासकयं कज्ज कोडीए वि न निट्टियं // 8 / 17 // जैसे लाभ होता है, वैसे ही लोभ होता है / लाभ से लोभ बढ़ता है। दो माशे सोने से पूरा होने वाला कार्य करोड़ से भी पूरा नहीं हुआ। जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिणे। एंगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ // 9 // 34 // जो पुरुष दुर्जेय संग्राम में दस लाख योद्धाओं को जीतता है, इसकी अपेक्षा वह एक अपने आपको जीतता है, यह उसकी परम विजय है।

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