Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 506 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययय लण वि उत्तमं सुई सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा। मिच्छत्तनिसेवए जणे समयं गोयम ! मा पमायए // 10 // 19 // उत्तम धर्म की श्रुति मिलने पर भी श्रद्धा होना और अधिक दुर्लभ है। बहुत सारे लोग मिथ्यात्व का सेवन करने वाले होते हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। धम्म पि हु सद्दहन्तया दुल्लहया काएण फासया। इह कामगुणेहि मुच्छिया समयं गोयम ! मा पमायए // 10 // 20 // उत्तम धर्म में श्रद्धा होने पर भी उसका आचरण करने वाले दुर्लभ हैं। इस लोक में बहुत सारे लोग काम-गुणों में मूच्छित होते हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। अह पंचहिं ठाणेहिं जेहिं सिक्खा न लम्भई / थम्मा कोहा पमाएणं रोगेणाऽलस्सएण य // 11 // 3 // ___मान, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य-इन पाँच स्थानों (हेतुओं) से शिक्षा प्राप्त नहीं होती। अह अट्टहिं ठाणेहिं सिक्खासीले त्ति वुच्चई। अहस्सिरे सया दन्ते न य मम्ममुदाहरे // 11 // 4 // आठ स्थानों (हेतुओं) से व्यक्ति को शिक्षा-शील कहा जाता है। (1) जो हास्य न करे, (2) जो सदा इन्द्रिय और मन का दमन करे, (3) जो मर्म-प्रकाशन न करे, नासीले न विसीले न सिया अइलोलुए। अकोहणे सच्चरए सिक्खासीले त्ति वुच्चई // 11 // 5 // (4) जो चारित्र से हीन न हो, (5) जिसका चारित्र दोषों से कलुषित न हो, (6) जो रसों में अति लोलुप न हो, (7) जो क्रोध न करे, (8) जो सत्य में रत हो-उसे शिक्षा-शील कहा जाता है। अह चउदसहि ठाणेहिं वट्टमाणे उ संजए। अविणीए बुच्चई सो उ निव्वाणं च न गच्छई // 116 // ___चौदह स्थानों (हेतुओं) में वर्तन करने वाला संयमी अविनीत कहा जाता है / वह निर्वाण को प्राप्त नहीं होता।