Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 505 खण्ड 2, प्रकरण : 11 सूक्त और शिक्षा पद. अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुझण बज्झओ। अप्पाणमेव अप्पाणं जइत्ता सुहमेहए // 9 // 35 // ___ आत्मा के साथ ही युद्ध कर, बाहरी युद्ध से तुझे क्या लाभ ? आत्मा को आत्मा के द्वारा ही जीत कर मनुष्य सुख पाता है। पंचिन्दियाणि कोहं माणं मायं तहेव लोहं च / दुज्जयं चेव अप्पाणं सव्वं अप्पे जिए जियं // 9 // 36 // __ पाँच इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया, लोभ और मन--ये दुर्जेय हैं। एक आत्मा को जीत लेने पर ये सब जीत लिए जाते हैं। जो सहस्सं सहस्साणं मासे मासे गवं दए। तस्सावि संजमो सेओ अचिन्तस्स वि किंचण // 9 // 40 // ___ जो मनुष्य प्रतिमास दस लाख गायों का दान देता है, उसके लिए भी संयम ही श्रेय है, भले फिर वह कुछ भी न दे। मासे मासे तु जो बालो कुसग्गेण तु मुंजए। म सो सुयक्खायधम्मस्स कलं अग्घइ सोलसिं // 9 // 44 // ___ जो बाल (अविवेकी) मास-मास तपस्या के अनन्तर कुश की नोक पर टिके उतनासा आहार करता है, फिर भी वह सु-आख्यात धर्म (सम्यक-चारित्र सम्पन्न मुनि) की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं होता। सुवण्णरुप्पस्स उ पध्वया भवे सिया हु केलाससमा असंखया। नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया // 6 // 48 // कदाचित् सोने और चाँदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत हो जाएं तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ भी नहीं होता, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है। सल्लंकामा विसं कामा कामा आसीविसोवमा / कामे पत्थेमाणा अकामा जन्ति दोग्गइं // 9 // 53 // __ काम-भोग शल्य हैं, विष हैं और आशीविष सर्प के तुल्य हैं। काम-भोग की इच्छा करने वाले, उनका सेवन न करते हुए भी दुर्गति को प्राप्त होते हैं / अहे वयइ कोहेणं माणेणं अहमा गई। माया गईपडिग्घाओ लोभाओ दुहओ भयं // 9 // 54 // . मनुष्य क्रोध से अधोगति में जाता है। मान से अधम-गति होती है। माया से सुगति का विनाश होता है। लोभ से दोनों प्रकार का-ऐहिक और पारलौकिक भय होता है।