Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ खण्ड 2, प्रकरण : 11 सूक्त और शिक्षा-पद 503 अप्पणा अणाहो सन्तो कहं नाहो भविस्ससि / 20 / 12 तू स्वयं अनाथ है, दूसरों का नाथ कैसे होगा? न तं मरी कण्ठ छेत्ता करेइ जं से करे अप्पणिया दुरप्पा / 2048 कण्ठ छेदने वाला शत्रु वैसा अनर्थ नहीं करता, जैसा बिगड़ा हुआ मन करता है। पियमप्पियं सव्व तितिक्खएज्जा / 2115 मुनि प्रिय और अप्रिय सब कुछ सहे / न यावि पूर्य गरहं च संजए। 21115 __मुनि पूजा और गहीं-इन दोनों को न चाहे / मगुन्नए नावणए महेसी / 21120 महर्षि न अभिमान करे और न दीन बने / नेहपासा भयंकरा / 23.43 ___ स्नेह का बन्धन बड़ा भयंकर होता है। न तं तायन्ति दुस्सीलं / 2528 __ दुराचारी को कोई नहीं बचा सकता। विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो / 32016 मुनि के लिए एकान्तवास प्रशस्त होता है। कामाणुगिद्धिप्पमवं खु दुक्खं / 32 / 19 दुःख काम-भोगों की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है। समलेट ठुकंचणे भिक्ख / 35 / 13 . . भिक्षु के लिए मिट्टी का ढेला और कंचन समान होते हैं। शिक्षा-पद : आणानिद्देसकरे गुरूणमुववायकारए। . इंगियागारसंपन्ने से विणीए ति वुच्चई // 1 // 2 // जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन करता है, गुरु की शुश्रुषा करता है, गुरु के इंगित और आकार को जानता है, वह विनीत कहलाता है। आणाऽनिद्देसकरे गुरूणमणुववायकारए। पडिणीए असंबुद्ध अविणीऐ त्ति बुच्चई // 13 // * जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन नहीं करता, गुरु की शुश्रूषा नहीं करता, जो गुरु के प्रतिकूल वर्तन करता है और तथ्य को नहीं जानता, वह अविनीत कहलाता है।