Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 264 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन -'यद्यपि रत्नवती को पाने के लिए अनेक प्रार्थी हैं, फिर भी रत्नवती तुम्हारे . लिए ही समर्पित है।' __उसने सोचा-मैं इसके भावार्थ को कैसे जानें। दूसरे दिन एक परिवाजिका आई। उसने कुमार के सिर पर आखे तथा फूल डाले और कहा--"पुत्र ! हजार वर्ष तक जीओ।" इतना कह कर वह वरधनु को एकान्त में ले गई और उसके साथ कुछ मंत्रणा कर वापस चली गई। कुमार ने वरधनु को पूछा-"यह क्या कह रही थी ?" वरधनु ने कहा"कुमार ! उसने मुझे कहा कि बुद्धिल्ल ने जो हार भेजा था और उसके साथ जो लेख था उसका प्रत्युत्तर दो।" मैंने कहा- "वह ब्रह्मदत्त नाम से अंकित है।" यह ब्रह्मदत्त है कौन ? उसने कहा-"सुनो ! किन्तु उसे किसी दूसरे को मत कहना / '' उसने आगे कहा "इसी नगरी में श्रेष्ठी-पुत्री रत्नवती रहती है / बाल्यकाल से ही मेरा उस पर अपार स्नेह है / वह युवती हुई / एक दिन मैंने उसे कुछ सोचते हुए देखा। मैं उसके पास गई। मैंने कहा- "पुत्री रत्नवती ! क्या सोच रही है ?" उसके परिजन ने कहा-यह बहुत दिनों से इसी प्रकार उदासीन है। मैंने उसे बार-बार पूछा / पर वह नहीं बोली। तब उसकी सखी प्रियंगुलतिका ने कहा-भगवती ! यह लज्जावश तुम्हें कुछ भी नहीं बताएगी। मैं कहता हूँ-एक बार यह उद्यान में क्रीड़ा करने के लिए गई / वहाँ उसके भाई बुद्धिल्ल श्रेष्ठी ने लाख मुद्राओं की बाजी पर कुक्कुट लड़ाए थे। इसने वहाँ एक कुमार को देखा। उसको देखते ही यह ऐसी बन गई। यह सुन कर मैंने उसको काम-व्यथा (मदन-विकार) जान ली। परिव्राजिका ने स्नेहपूर्वक कहा-"पुत्री ! यथार्थ बात बताओ। तब उसने ज्यों-त्यों कहा-तुम मेरी माँ के समान हो, तुम्हारे सामने अकथनीय कुछ भी नहीं है / प्रियंगुलतिका ने जिसे बताया है, वह ब्रह्मदत्त कुमार यदि मेरा पति नहीं होगा तो मैं निश्चय ही प्राण त्याग दूंगी। यह सुन कर मैंने उससे कहा-धैर्य रखो। मैं वैसा उपाय करूंगी, जिससे कि तुम्हारी कामना सफल हो सके / यह बात सुन कर कुमारी रत्नवती कुछ स्वस्थ हुई। कल मैंने उसके हृदय को आश्वासन देने के लिए कहा-मैंने ब्रह्मदत्त कुमार को देखा है। उसने भी कहा-भगवती ! तुम्हारे प्रसाद से सब कुछ अच्छा होगा। किन्तु उसके विश्वास के लिए बुद्धिल्ल के कथन के मिष से हार के साथ ब्रह्मदत्त नामांकित एक लेख भेज देना / मैंने कल वैसा ही किया।" आगे उस परिवाजिका ने कहा-"मैंने लेख की सारी बात तुम्हें बता दी। अब उसका प्रत्युत्तर दो।" वरधनु ने कहा-मैंने उसे यह प्रत्युत्तर दिया 'बंभवत्तो वि गुरुगुणवरधणुकलिओ त्ति माणिउ भणई। रयणवइं रयणिवई चेदो इव चंदणी जोगो॥ -'वरधनु सहित ब्रह्मदत्त भी रत्नवती का योग चाहता है, जैसे रजनीपति चाँद चाँदनी का।'