Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 302 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन पास बैठ गया। बिछुड़ा हुआ योग पुनः मिल गया। अब वे दोनों भाई सुख-दुःख के फल-विपाक की चर्चा करने लगे। ____ महान् ऋद्धि-सम्पन्न और महान् यशस्वी चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ने बहुमान-पूर्वक अपने भाई से इस प्रकार कहा "हम दोनों भाई थे-एक दूसरे के वशवर्ती, परस्पर अनुरक्त और परस्पर हितैषी। ... 'हम दोनों दशार्ण देश में दास, कालिंजर पर्वत पर हिरण, मृत-गंगा के किनारे हंस और काशी-देश में चाण्डाल थे। - "हम दोनों सौधर्म देवलोक में महान् ऋद्धि वाले देव थे। यह हमारा छठा जन्म है, जिसमें हम एक-दूसरे से बिछड़ गए।" मुनि ने कहा- "राजन् ! तू ने निदानकृत (भोग-प्रार्थना से वध्यमान्) कर्मों का चिन्तन किया। उनके फल-विपाक से हम बिछुड़ गए।" चक्री ने कहा- "चित्र ! मैंने पूर्व-जन्म में सत्य और शौचमय शुभ अनुष्ठान किए थे। आज मैं उनका फल भोग रहा हूँ। क्या तू भी वैसा ही भोग रहा है ?" ___ मुनि ने कहा- "मनुष्यों का सब सुचीर्ण ( सुकृत ) सफल होता है / किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना मुक्ति नहीं होती / मेरी आत्मा उत्तम अर्थ और कामों के पुण्यफल से युक्त है। ___ “सम्भूत ! जिस प्रकार तू अपने को महान् अनुभाग (अचिन्त्य-शक्ति) सम्पन्न, महान् ऋद्धिमान् और पुण्य-फल से युक्त मानता है, उसी प्रकार चित्र को भी जान / राजन् ! उसके भी प्रचुर ऋद्धि और धुति थी। ___ "स्थविरों ने जन-समुदाय के बीच अल्पाक्षर और महान् अर्थ वाली जो गाथा गाई, जिसे शील और श्रुत से सम्पन्न भिक्षु बड़े यत्न से अर्जित करते हैं, उसे सुनकर मैं श्रमण हो गया।" - चक्री ने कहा- "उच्चोदय, मधु, कर्क, मध्य और ब्रह्मा-ये प्रधान प्रासाद तथा दूसरे अनेक रम्य प्रासाद हैं / पंचाल देश की विशिष्ट वस्तुओं से युक्त और प्रचुर एवं विचित्र हिरण्य आदि से पूर्ण यह घर है-इसका तू उपभोग कर / .. "हे भिक्षु ! तू नाट्य, गीत और वाद्यों के साथ नारीजनों को परिवृत करता हुआ इन भोगों को भोग / यह मुझे रुचता है। प्रव्रज्या वास्तव में ही कष्टकर है।" . धर्म में स्थित और उस (राजा) का हित चाहने वाले चित्र मुनि ने पूर्व-भव के स्नेहवश अपने प्रति अनुराग रखने वाले कामगुणों में आसक्त राजा से यह वचन कहा: "सब गीत विलाप हैं, सब नाट्य विडम्बना हैं, सब आभरण भार हैं और सब काम-भोग दुःखकर हैं। १-सुखबोधा, पत्र 185-197 /