Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 354 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन __ आगे उन्होंने कहा-'धन के बढ़ने के साथ-साथ तृष्णा भी बढ़ती चली जाती है। ममकार ही दुःख का हेतु है / भोग की आसक्ति दुःख बढ़ाती है। जो सबको आत्म-तुला से तोलता है, वह समस्त द्वन्द्वों से छूट कर शान्त और निर्विकार हो जाता है। तृष्णा को छोड़ना अत्यन्त दुष्कर है / जो तृष्णा को छोड़ देता है, वह परम-सुख को पा लेता है।" ___ यह संवाद भी उत्तराध्ययन के नौवें अध्ययन की आंशिक समानता को लिए जनक और भीष्म इसी प्रकार महाभारत (शान्तिपर्व, अ० 178 ) में एक और प्रसंग आया है। एक बार भीष्म ने कहा-धन की तृष्णा से दुःख और उसकी कामना के त्याग से परम-सुख की प्राप्ति होती है। यही बात महाराज जनक ने भी कही है। एक बार जनक ने कहा था अनन्तमिव मे वित्तं यस्य मे नास्ति किञ्चन / मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किञ्चन // 2 // "मेरे पास अनन्त-सा धन-वैभव है, फिर भी मेरा कुछ भी नहीं है। मिथिला के जलने पर भी मेरा कुछ नहीं जलता।" भीष्म ने आगे कहा-एक बार नहुषनन्दन राजा ययाति ने बोध्य ऋषि से पूछा-महाप्राज्ञ ! शान्ति कैसे मिल सकती है ? कौन-सी ऐसी बुद्धि है, जिसका आश्रय ले कर आप शान्ति और संतोष के साथ विचरते हैं ? बोध्य मुनि ने कहा-मेरे छह गुरु हैं (1) पिङ्गला वेश्या से मैंने आशा के त्याग का मर्म सीखा है। (2) क्रौञ्च पक्षी से मैंने भोगों के परित्याग से सुख मिलता है, यह सीखा है / (3) सर्प से मैंने अनिकेत रहने की शिक्षा पाई है। (4) पपीहे से मैंने अद्रोहवृत्ति की शिक्षा पाई है। (5) बाण बनाने वाले से एकाग्र चित्त रहने का मर्म पाया है। (6) हाथ में पहने हुए एक कंगन से एकाकीपन की शिक्षा ली है। उत्तराध्ययन के इस अध्ययन के निष्कर्षों की उपर्युक्त तथ्यों से बहुत समानता है / एक विश्लेषण महाभारत के अनेक प्रसंगों में जहाँ जनक का संवाद या कथन है वहाँ भीष्म ने-- 'मैं प्राचीन इतिहास के उदाहरण में इस तथ्य को स्पष्ट करता हूँ'—यह कह कर जनक के विचारों का प्रतिपादन किया है।' १-महाभारत, शान्तिपर्व, अ० 178,218,276 /