Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 310 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन __हे राजन् ! यदि नारीगण से घिरे होने पर तुझ पर राज-मद सवार हो जाय तो इस . गाथा को मन में करना और परिषद् के सामने बोलना // 27 // खुले आकाश के नीचे सोने वाला प्राणी, चलती-फिरती माता द्वारा दूध पिलाया गया (प्राणी), कुत्तों से घिरा हुआ ( प्राणी ) आज राजा कहलाता है // 28 // ] ___ इस प्रकार बोधिसत्व ने उसे उपदेश देकर 'मैंने तुझे उपदेश दे दिया। अब तू चाहे प्रवजित हो चाहे न हो। मैं स्वयं अपने कर्म के फल को भोगूंगा' कहा और आकाश में उठ कर उसके सिर पर धूलि गिराते हुए हिमालय को ही चले गये। राजा ने भी यह देखा तो उसके मन में वैराग्य पैदा हुआ। उसने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य सौंपा और सेना को सूचित कर हिमालय की ही ओर चला गया। बोधिसत्व को उसका आना ज्ञात हुआ तो ऋषि-मण्डली के साथ आ वह उसे ले कर गये और प्रवजित कर योग-विधि सिखाई। उसने ध्यान लाभ किया। इस प्रकार वे दोनों ब्रह्मलोक गामी हुए। शास्ता ने यह धर्म-देशना 'इस प्रकार भिक्षुओ, पुराने पण्डित तीन-चार जन्मों तक भी परस्पर दृढ़ विश्वासी रहे' कह जातक का मेल बैठाया। उस समय सम्भूत पण्डित आनन्द था / चित्त पण्डित तो मैं ही था। -जातक (चतुर्थ खण्ड) 468, चित्तसम्भूत जातक, पृ० 568-608 / जैन-कथावस्तु का संक्षिप्त सार जैन-परम्परा में वर्णित कथावस्तु का बौद्ध-परम्परा के कथा-वस्तु से बहुत अंशों में समानता है / दोनों के कथा-वस्तु गद्य-पद्य में हैं। उत्तराध्ययन में वर्णित कथा-वस्तु तथा संवाद पद्य में हैं / वे ब्रह्मदत्त की उत्पत्ति से प्रारम्भ होते हैं / इसमें 35 श्लोक हैं / टीका में सम्पूर्ण कथा है / वह गद्य में है / भाषा साहित्यिक और ललित है। उत्तराध्ययन में निबद्ध कथानक मूल में वहाँ से प्रारम्भ होता है जब दोनों भाई चित्र और सम्भूत ( चित्र पुरिमताल नगर के सेठ के पुत्र के रूप में, मुनि अवस्था में ; तथा सम्भूत ब्रह्म राजा का पुत्र ब्रह्मदत्त के रूप में ) मिलते हैं और सुख-दुःख के फल-विपाक की चर्चा करने लगते हैं / चित्र का जीव मुनि-अवस्था में ब्रह्मदत्त को संसार की असारता, ऐश्वर्य की चंचलता और भोगों की नश्वरता समझाता है और श्रामण्य स्वीकार करने की प्रेरणा देता है। परन्तु जब वह ब्रह्मदत्त को मुनि बनने के लिए असमर्थ पाता है, तब उसे गृहस्थावस्था में रहकर ही धर्म में स्थिर रहने की प्रेरणा देता है परन्तु ब्रह्मदत्त का मन धर्म में नहीं लगता / मुनि चला जाता है / धर्माराधना कर मुनि सिद्ध हो जाता है। ब्रह्मदत्त भोगासक्त हो नरक में ज,ता है। 5, 6 और 7 वें श्लोक में पूर्व-जन्मों का नामोल्लेख हुआ है, किन्तु उनका विस्तार यहाँ नहीं है। टीकाकार ने मिचन्द्र ने सुखबोधा (पत्र 185) में उनके पूर्व के पाँच भवों का विस्तार से वर्णन किया है। जातक के गद्य भाग में उनके