Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
View full book text
________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 351 का पता न लगने से बाँस सीधा नहीं होता, एक आँख को बन्द कर के देखने से टेढ़ापन दीख जाता है, बाँस सीधा हो जाता है।" रानी सीवली ने जाना कि राजा का मन संसार से ऊब चुका है। फिर भी रागवश वह उनके पीछे-पीछे चली जा रही थी। महाजनक ने चलते-चलते रास्ते पर ही गूंज के तिनके से सींक खींच कर कहा-"देवी! देख, अब यह फिर उससे नहीं मिलाया जा सकता। इसी तरह से अब फिर मेरा-तेरा साथ वास नहीं हो सकता।" महाजनक अकेले आगे चले गए। रानी लौट कर मिथिला आई। अपने पुत्र दीर्घायु को राज्य-भार संभला कर स्वयं प्रव्रज्या ग्रहण कर ब्रह्मलोकगामिनी हुई। यह कथा अत्यन्त संक्षेप में दी गई है। सम्पूर्ण कथा के लिए देखिए–महा जनक जातक संख्या 539, पृष्ठ 34-77 तक / __ जैन-कथावस्तु और इस जातक (सं० 536) को कथावस्तु में पूर्ण समानता नहीं है, किन्तु दोनों का प्रतिपाद्य एक-सा ही है। दोनों कथानक इन्हीं विचारों को पुष्ट करते हैं (1) अन्यान्य आश्रमों से संन्यास आश्रम श्रेष्ठ है / (उत्त० ६।४४;जा० 25 115) (2) संतोष त्याग में है, भोग में नहीं। (उत्त० 6 / 48, 46 ; जा० 122) (3) एकाकीपन में सुख है, द्वन्द्व (दो) दुःख का मूल है / ( उत्त० 6 / 16 ; ___ जा० 161, 168) (4) अकिंचनता सुख का साधन है / (उत्त० 6 / 14 ; जा० 125) (5) काम-भोग साधना के विघ्न हैं / (उत्त० 6 / 23 ; जा० 132) . . इनके अतिरिक्त जैन-कथावस्तु के ये और निष्कर्ष हैं (1) प्रात्म-विजय ही परम-विजय है / (उत्त० 6 / 34,35) (2) आत्मा ही दुर्जेय है / (उत्त० 6 / 36) (3) दान से संयम श्रेष्ठ है / (उत्त० 6 / 40) (4) तृष्णा अनन्त है / इसकी पूर्ति नहीं हो सकती / (उत्त० 6 / 48,46) (5) कषाय-त्याग मोक्ष का हेतु है / (उत्त० 6 / 55) दोनों कथावस्तुओं के कई प्रसंग एक-से हैं (1) सम्पत्ति से समृद्ध मिथिला को छोड़ कर प्रवजित होना। (2) मिथिला को जलती हुई दिखला कर प्रव्रज्या से मन हटाने का प्रयत्न करना। (3) मिथिला के जलने पर मेरा कुछ भी नहीं जलता, ऐसे ममत्व-रहित-भाव प्रकट करना। १-जातक, 539, श्लोक 166-167 /