Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
View full book text
________________ खण्ड 1, प्रकरण : १-धर्म की धारणा के हेतु 215 ___ "यदि समूचा जगत् तुम्हें मिल जाए अथवा समूचा धन तुम्हारा हो जाए तो वह भी तुम्हारी इच्छा-पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होगा और वह तुम्हें त्राण भी नहीं दे सकेगा। "राजन् ! इन मनोरम काम-भोगो को छोड़ कर जब कभी मरना होगा। हे नरदेव ! एक धर्म हो त्राण है। उसके सिवाय दूसरी कोई वस्तु त्राण नहीं दे सकती / / 1 / / अनाथी को किसी भी सामाजिक साधन से त्राण नहीं मिला, तब उन्होंने संकल्प किया "इस विपुल वेदना से यदि मैं एक बार ही मुक्त हो जाऊँ तो क्षमावान, दान्त और आरम्भ का त्याग कर अनगार-वृत्ति को स्वीकार कर लूं।"२ इस संकल्प में वे अपने से अभिन्न हो गए। उनकी वेदना रात-रात में समाप्त हो गई। एकत्व और अत्राणात्मक दृष्टिकोण ___धर्म्य-ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ-एकत्व, अनित्य, अशरण और संसार-के चिन्तन से व्यक्ति का धर्म की ओर झुकाव होता है / एकत्व और अत्राणात्मक (या अशरणात्मक) दृष्टिकोण का निरूपण इसी शीर्षक में आ चुका है। उन्हें पृथक किया जाए तो वे धर्म की धारणा के दो स्वतंत्र हेतु-पाँचवाँ और छठा-बन जाते हैं। अनियवादी दृष्टिकोण धर्म की धारणा का सातवाँ हेतु रहा है-'अनित्यवादी दृष्टिकोण' / जिन्हें यह अनुभव हुआ कि जोवन नश्वर है, उन्होंने अनश्वर की प्राप्ति के लिए धर्म का सहारा लिया। भगवान महावीर ने इसी भावना के क्षणों में गौतम से कहा था- “रात्रियाँ बीतने पर वृक्ष का पका हुआ पान जिस प्रकार गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन एक दिन समाप्त हो जाता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। "कुश की नोंक पर लटकते हुए ओस-बिन्दु की अवधि जैसे थोड़ी होती है, वैसे ही मनुष्य-जीवन की गति है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रसाद मत कर / ____ "तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं और सब प्रकार का बल क्षीण हो रहा है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर / "पित्तरोग, फोड़ा, फुसी, हैजा और विविध प्रकार के शीघ्र-घाती रोग शरीर का १-वही, 14 / 39,40 / २-वही, 20132 / ३-उत्तराध्ययन, 20133 /