Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 262 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन उसके आधारभूत सम्यक्त्व की शिक्षा दी। सोमदेव में विरक्ति के भाव जगे। वह मुनि बन गया। उसने धर्म-शिक्षा ग्रहण की और श्रामण्य का पालन करने लगा। किन्तु "मैं उत्तम जातीय हूँ"-यह जाति-गर्व उसमें बना रहा। वह रूप, ऐश्वर्य आदि का भी मद करने लगा। वह नहीं सोचता था कि संसार में ऐसी क्या वस्तु है जिस पर गर्व किया जाय। जो कुछ शुभ या अशुभ होता है, वह सब कर्मों के प्रभाव से होता है। कहा भी है सुरो वि कुक्कुरो होइ, रंको राया वि जायए। दिओ वि होइ मायंगो, संसारे कम्मदोसओ॥ न सा जाई न सा जोणी, न तं ठाणं न तं कुलं / न जाया न मुया जत्थ, सम्वे जीवा अणंतसो॥ -कर्म के प्रभाव से देव कुक्कुर बन जाता है, रंक राजा हो जाता है, ब्राह्मण मातंग हो जाता है। ऐसी कोई भी जाति या योनि नहीं है, ऐसा कोई भी स्थान या कुल नहीं है, जहाँ जीव न मरा हो या उत्पन्न न हुआ हो। , उतमत्तं गुणेहि चेव पाविज्जई ण जाईए। -उत्तमता गुणों से प्राप्त होती है, जाति से नहीं / सोमदेव मर कर देव बना / देवता का आयुष्य पूरा कर वह वहाँ से च्युत हुआ। मृत गंगा नदी के तट पर बलकोट्ट नामक हरिकेश रहते थे। उनके अधिपति का नाम बलकोट्ट था। उसके दो पत्नियाँ थों-गोरी और गंधारी। सोमदेव का जीव गोरी के गर्भ में पुत्र रूप में आया। गोरी ने स्वप्न में वसन्तऋतु और फले-फूले आम वृक्ष को देखा। स्वप्न-शास्त्रियों ने कहा- "तुम एक विशिष्ट पुत्र को जन्म दोगी।" नौ मास बीते / उसने पुत्र को जन्म दिया। पूर्व भव के जाति-भेद के कारण वह अत्यन्त कुरूप और काला था। बलकोट्टों में उत्पन्न होने के कारण उसका नाम 'बल' रखा गया। वह अत्यन्त क्रोधी था। .. वसन्तोत्सव का समय था। सभी लोग उत्सव में मग्न थे। लोग भोज में भोजन कर रहे थे। सुरापान चल रहा था। लोगों ने बालक 'बल' को अप्रियकारी और क्रोधी मान अपने समूह से अलग कर दिया। वह दूर जा खड़ा हो गया और उत्सव को देखने लगा। इतने में ही एक भयंकर सर्प निकला। सहसा सभी उठ खड़े हुए और सर्प को मार डाला / कुछ ही क्षणों बाद एक निर्विष सर्प निकला। लोग भयभीत हो उठे। उसे निर्विष समझ छोड़ दिया / बल ने सोचा-"प्राणी अपने ही दोषों से दुःख पाता है / सर्प