Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
View full book text
________________ 267 खण्ड : 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण उन छात्रों को काठ की तरह निश्चेष्ट देख कर वह सोमदेव ब्राह्मण उदास और घबराया हुआ अपनी पत्नी सहित मुनि के पास आ उन्हें प्रसन्न करने लगा-"भन्ते ! हमने जो अवहेलना और निन्दा की उसे क्षमा करें। __"भन्ते ! मूढ़ बालकों ने अज्ञानवश जो आपकी अवहेलना की, उसे आप क्षमा करें। ऋषि महान् प्रसन्नचित्त होते हैं / मुनि कोप नहीं किया करते / " ___ मुनि ने कहा-"मेरे मन में कोई प्रद्वेष न पहले था, न अभी है और न आगे भी होगा। किन्तु यक्ष मेरा वैयावृत्त्य कर रहे हैं / इसीलिए ये कुमार प्रताडित हुए।" सोमदेव ने कहा- "अर्थ और धर्म को जानने वाले भूति-प्रज्ञ ( मंगल-प्रज्ञा युक्त) आप कोप नहीं करते। इसलिए हम सब मिल कर आपके चरणों की शरण ले रहे हैं / . "महाभाग ! हम आपकी अर्चा करते हैं। आपका कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसकी हम अर्चा न करें / आप नाना व्यंजनों से युक्त चावल-निष्पन्न भोजन ले कर खाइए। __ "मेरे यहाँ यह.प्रचुर भोजन पड़ा है। हमें अनुगृहीत करने के लिए आप कुछ खाएँ।” महात्मा हरिकेशवल ने हाँ भर ली और एक मास की तपस्या का पारणा करने के लिए भक्त-पान किया। देवों ने वहाँ सुगन्धित जल, पुष्प और दिव्य धन की वर्षा की। आकाश में दुन्दुभि बजाई और 'अहो दानम्' (आश्चर्यकारी दान)-इस प्रकार का घोष किया। ___ यह प्रत्यक्ष ही तप की महिमा दीख रही है, जाति की कोई महिमा नहीं है / जो ऐसी महान् अचिन्त्य शक्ति से सम्पन्न है, वह हरिकेश मुनि चाण्डाल का पुत्र है। मुनि ने कहा-"ब्राह्मणो ! अग्नि का समारम्भ (यज्ञ) करते हुए तुम बाहर से ( जल से.) शुद्धि की क्या माँग कर रहे हो ? जिस शुद्धि की बाहर से माँग कर रहे हो, उसे कुशल लोग सुदृष्ट (सम्यग्दर्शन) नहीं कहते / __"दर्भ, यूप (यज्ञ-स्तम्भ), तृण, काष्ठ और अग्नि का उपयोग करते हुए, संध्या और प्रातःकाल में जल का स्पर्श करते हुए, प्राणों और भूतों की हिंसा करते हुए, मंद-बुद्धि * वाले तुम बार-बार पाप करते हो।" _____सोमदेव ने कहा- "हे भिक्षो ! हम कैसे प्रवृत्त हों ? यज्ञ कैसे करें? जिससे पापकर्मों का नाश कर सकें। यक्ष-पूजित संयत ! आप हमें बताएँ—कुशल पुरुषों ने सुइष्ट (श्रेष्ठ-यज्ञ) का विधान किस प्रकार किया है ?" . ____ मुनि ने कहा-"मन और इन्द्रियों का दमन करने वाले छह जीव-निकाय की हिंसा नहीं करते ; असत्य और चौर्य का सेवन नहीं करते ; परिग्रह, स्त्री, मान और माया का परित्याग कर के विचरण करते हैं।