Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ खण्ड 1, प्रकरण : 8 ३--बाह्य-संगों का त्याग क्यों ? 219 व्यक्ति के लिए ही दु:ख के हेतु बनते हैं, वीतराग के लिए वे किंचित् भी दुःख के हेतु नहीं होते।" विषय अचेतन हैं / वे अपने आप में मनोज्ञ-अमनोज्ञ कुछ भी नहीं हैं / उनमें जिसका प्रिय-भाव होता है, उसके लिए वे मनोज्ञ और जिसका उनमें अप्रिय भाव होता है, उसके लिए वे अमनोज्ञ होते हैं। किन्तु जो उनके प्रति विरक्त होता है, उसके लिए वे मनोज्ञ, अंमनोज्ञ कुछ भी नहीं होते / 2 इस प्रसंग का फलित यह है कि बाह्य-विषय हमारे लिए न दोष-पूर्ण हैं और न निर्दोष / चेतना की शुद्धि हो तो वे उसके लिए निर्दोष हैं और चेतना अशुद्ध हो तो वे भो उसके लिए सदोष बन जाते हैं। दोष का मूल चेतना की परिणति है, बाह्यविषय नहीं। उक्त अभिमत यथार्थ है। उसके आधार पर हमें चेतना को अलिप्त रखने की आवश्यकता है, बाह्य-विषयों से बचने की कोई मुख्य बात नहीं। किन्तु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि चेतना अन्तर्जागरण की परिपक्व दशा में ही अलिप्त रह सकती है। __निमित्त उपादान होने पर ही कार्य कर सकता है, अन्यथा नहीं। विकार का उपादान है-राग / वह अव्यक्त रहता है, किन्तु निमित्त मिलने पर व्यक्त हो जाता है। इसलिए जब तक राग क्षीण नहीं होता, तब तक निमित्तों-बाह्य-विषयों से बचाव करना आवश्यक होता है। बचाव की मात्रा सब व्यक्तियों के लिए समान भले न हो, पर उसका अपवाद हर कोई व्यक्ति नहीं हो सकता। इसीलिए ये मर्यादाएं स्थापित की गई: "मित आहार करो।" - "रसों का प्रचुर मात्रा में सेवन मत करो।" ' "रसों का प्रकाम (अधिक मात्रा में) सेवन नहीं करना चाहिए / वे प्रायः मनुष्य की धातुओं को उद्दीप्त करते हैं / जिसकी धातुएँ उद्दीप्त होती हैं, उसे काम-भोग सताते हैं, जसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी। "जैसे पवन के झोंकों के साथ प्रचुर इंधन वाले वन में लगा हुआ दावानल उपशान्त १-उत्तराध्ययन, 32 / 100,101 / २-वही, 321106 / ३-मूलाराधना, 1997, अमितगति : अन्तर्विशुद्धितो जन्तोः, शुद्धिः संपद्यते बहिः / बाह्य हि कुरुते दोषं, सर्वमन्तरदोषतः // ४-उत्तराध्ययन 32 / 4 /