Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 7 २-योग 177 बतलाए, वैसे और भी हो सकते हैं। इसी संभावना के आधार पर पिण्डस्थ, पदस्थ आदि भेदों का विकास हुआ / वस्तुतः ये धर्म्य-ध्यान के ही प्रकार हैं। नय-दृष्टि से ध्यान दो प्रकार का होता है-सालम्बन और निरालम्बन / ' सालम्बन ध्यान भेदात्मक होता है। उसमें ध्यान और ध्येय भिन्न-भिन्न रहते हैं। इसे ध्यान मानने का आधार व्यवहार-नय है। पिण्डस्थ ध्यान में भी शरीर के अवयव-सिर, श्र , तालु, ललाट, मुंह, नेत्र, कान, नासाग्न, हृदय और नाभि आदि आलम्बन होते हैं। इसमें धारणाओं का आलम्बन भी लिया जाता है। आचार्य शुभचन्द्र ने इसके लिए पाँच धारणाओं का उल्लेख किया है-3 (1) पार्थिवी- योगी यह कल्पना करे कि एक समुद्र है.-शान्त और गंभीर / उसके मध्य में हजार पंखुड़ी वाला एक कमल है। उस कमल के मध्य में एक सिंहासन है। उस पर वह बैठा है और यह विश्वास करता है कि कषाय क्षीण हो रहे हैं, यह 'पार्थिवी' धारणा है। (2) आग्नेयी- सिंहासन पर बैठा हुआ योगी यह कल्पना करे कि नाभि में सोलह दल वाला कमल है। उसको कणिका में एक महामंत्र 'अहम्' है और उसके प्रत्येक दल पर एक-एक स्वर है / 'अहम्' के एकार से धूमशिखा निकल रही है / स्फुलिंग उछल रहे हैं / अग्नि की ज्वाला भभक रही है। उससे हृदय-स्थित अष्टदल कमल, जो आठ कर्मों का सूचक है, जल रहा है। वह भस्मीभूत हो गया है। अग्नि शान्त हो गई है, यह 'आग्नेयी' धारणा है। (3) मारुती- फिर यह कल्पना करे कि वेगवान् वायु चल रहा है, उसके द्वारा जले हुए कमल की राख उड़ रही है, यह 'मारुती' धारणा है / (4) वारुणी- फिर यह कल्पना करे कि तेज वर्षा हो रही है, बची हुई राख उसके जल में प्रवाहित हो रही है, यह 'वारुणी' धारणा है / (5) तत्त्वरूपवती-- फिर कल्पना करे कि यह आत्मा 'अर्हत्' के समान है, शुद्ध है, अतिशय सम्पन्न है, यह 'तत्त्वरूपवती' धारणा है / हेमचन्द्र ने इसका 'तत्त्वभू' नाम भी रखा है। पदस्थ ध्यान में मंत्र-पदों का आलम्बन लिया जाता है / ज्ञानार्णव (38 / 1-16) और योगशास्त्र (8 / 1-80) में मंत्र-पदों की विस्तार से चर्चा की है। . १-तत्त्वानुशासन, 96 / २-वैराग्यमणिमाला, 34 / ३-ज्ञानार्णव, 37 // 4-30 /