Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ खण्ड 1, प्रकरण : १-धर्म की धारणा के हेतु 205 ___ प्रस्तुत विषय का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो यह फलित होता है कि कोई भी मोक्षवादी-परम्परा सुखवादी नहीं हो सकती / जो संसार को सुखमय मानता है, उसके मन में दु:ख-मुक्ति की आकाँक्षा कैसे उत्पन्न होगी ? दुःख-मुक्ति वही चाहेगा, जो संसार को दुःखमय मानता है। इस विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि दुःखवाद और मुक्तिवाद एक ही विचारधारा के दो छोर हैं। अनिषदों में सुख और आनन्द की धारणा ब्रह्म के साथ जुड़ी हुई है, संसार के साथ नहीं। नारद ने पूछा- "भगवन् ! मैं सुख को जानना चाहता हूँ।" तब सनत्कुमार ने कहा-"जो भूमा है, वह सुख है, अल्प में सुख नहीं है / " नारद ने फिर पूछा"भगवन् ! भूमा क्या है ?" सनत्कुमार ने कहा- "जहाँ दूसरा नहीं देखता, दूसरा नहीं सुनता, दूसरा नहीं जानता, वह भूमा है। जहाँ दूसरा देखता है, दूसरा सुनता है और दूसरा जानता है, वह अल्प है।"१ तैत्तिरीय में ब्रह्म और आनन्द की एकात्मकता बतलाई गई है / जरा,मृत्यु, जन्म, रोग और शोक-ये जहाँ नहीं हैं, वही मोक्ष है और वही आनन्दमय आस्पद है। यह धारणा श्रमण-परम्परा से भिन्न नहीं है। श्रमणों ने मोक्ष को सुखमय माना है। इस अभिमत के अभाव में उनका दृष्टिकोण एकान्तत: निराशावादी हो जाता। कुमारश्रमण केशी ने गौतम से पूछा- "गौतम ! शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित होते हुए प्राणियों के लिए क्षेम, शिव और अनाबाध स्थान किसे मानते हो ?" गौतम ने उत्तर दिया-"मुने ! लोक के शिखर में एक वैसा शाश्वत स्थान है, जहाँ पहुंच पाना बहुत कठिन है और जहाँ नहीं है जरा, मृत्यु, व्याधि और वेदना।" - "स्थान किसे कहा गया हैं"-केशी ने गौतम से कहा। केशी के ऐसा कहने पर गौतम बोले-"जो निर्वाण है, जो अबाध है, सिद्धि, लोकान, क्षेम, शिव और अनाबाध . है, जिसे महान् की एषणा करने वाले प्राप्त करते हैं, भव-प्रवाह का अन्त करने वाले मुनि १-छान्दोग्य उपनिषद्, 7 / 22 / 1;7 / 24 / 1 / २-तैत्तिरीय, 3 / 6 / 1H आनन्दो ब्रह्मति व्यजानात् / ३-(क) छान्दोग्य उपनिषद्, 48 / 8 / 1 : न जरा न मृत्यु न शोकः। (ख) श्वेताश्वतर, 2012 न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः /