Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ खण्ड 1, प्रकरण : 8 १-धर्म की धारणा के हेतु 206 __ मृत्यु के बाद होने वाला जीवन अज्ञात होता है। उसके प्रति सहज ही विशेष आकर्षण रहता है / यद्यपि धर्म से ऐ हक जीवन विशुद्ध बनता है, फिर भी उसके पार. लौकिक फल का निरूपण करने की सामान्य पद्धति रहो है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विशेष आकर्षण भी रहा है। इसी आकर्षण की भाषा में मृगापुत्र ने कहा था-"जो मनुष्य धर्म की आराधना कर परभव में जाता है, वह सुखी होता है।" __कुछ विद्वान् धर्म को समाज-धारणा की संस्था के रूप में स्वीकार करते हैं। उनका अभिमत है कि परलोकवादी दृष्टिकोण धर्म की श्रद्धा-प्रधान मीमांसा है। उसकी बुद्धिवादी मीमांसा करने पर यही फलित होता है कि वह समाज-धारण के लिए स्थापित किया गया था। महाभारत में भी एक ऐसा उल्लेख मिलता है--"धर्म का विधान लोकयात्रा परिचालन के लिए किया गया।"3 यह त्रिवर्गवादी चिन्तनधारा है / चतुर्वर्गवादी इससे सहमत नहीं हैं। काम, अर्थ और धर्म को मानने वालों के सामने मोक्ष प्रयोज्य नहीं होता। अत: उसकी उपलब्धि के लिए धर्म को प्रयोजन के रूप में मानना उनके लिए अपेक्षित नहीं होता / चतुर-वर्गवादी अन्तिम प्रयोज्य मोक्ष मानते हैं। अतः वे धर्म को समाज-धारणा का हेतु न मान कर मोक्ष की उपलब्धि का हेतु मानते हैं। भगवान् महावीर इसी धारा के समर्थक थे / 4 त्रिवर्ग और चतुर्वर्ग . त्रिवर्ग अथवा पुरुषार्थ का स्पष्ट निर्देश वैदिक वाङ्मय में नहीं पाया जाता। सबसे प्राचीन उल्लेख आपस्तम्ब-धर्म-सूत्रों में मिलता है। पहले मोक्ष नाम के चतुर्थ पुरुषार्थ की स्वतंत्र गणना नहीं की जाती थी। त्रिवर्ग को परिभाषा ही पहले रूढ़ हुई।५ वस्तुत: त्रिवर्ग की मान्यता वैदिक नहीं है। वह लौकिक है / स्थानांग में इहलौकिक व्यवसाय के तीन प्रकार बतलाए गए हैं-(१) लौकिक, (2) वैदिक और (3) सामयिक / 6. १-उत्तराध्ययन, 19 / 21 / २-हिन्दू धर्म समीक्षा, पृ० 44 : ३-महाभारत, शान्तिपर्व 259 / 4 / लोकयात्रार्थमेवेह धर्मस्य नियमः कृतः / ४-उत्तराध्ययन, 3.12 / ५-वैदिक संस्कृति का विकास, पृ० 102 / ६-स्थानांग, 3333185 / 27 . .