Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ खडं 1, प्रकरण : 8 1 -धर्म की धारणा के हेतु 211 थे कि धर्म और अर्थ श्रेय है। कुछ मानते थे कि काम और अर्थ श्रेय है। एक मत था धर्म ही श्रेय है। कुछ अर्थ को ही श्रेय मानते थे। मनु ने त्रिवर्ग को श्रेय माना।' यह अभिमत समाज शास्त्र की दृष्टि से परिपूर्ण है। कौटिल्य ने अर्थ को प्रधान माना / धर्म और काम का मूल उनकी दृष्टि में अर्थ ही था। इससे भी धर्म का अर्थ लौकिक आचार ही प्रतीत होता है। महाभारत के अनुसार सन्तानार्थी व्यक्तियों का प्रवृत्ति-धर्म मुमुक्ष लोगों के लिए नहीं है। इसका फलित स्पष्ट है-सन्तानोत्सत्ति का धर्म मोक्ष-धर्म नहीं है / अर्थ से धर्म और काम सिद्ध होते है और धर्म धन से प्रवृत्त होता है-यह मान्यता भी धर्म के उस अर्थ पर आधारित है, जिसका सम्बन्ध मोक्ष से नहीं है। ___ जैन-दर्शन प्रारम्भ से ही निर्वाणवादी रहा है / अत: आध्यात्मिक मूल्यों की दृष्टि से वहाँ धर्म और मोक्ष-ये दो ही पुरुषार्थ मान्य रहे हैं। गृहस्थ सामाजिक मर्यादा से मुक्त नहीं हो सकते, अत: उनके लिए सामाजिक मूल्यों की दृष्टि से अर्थ और काम-ये दोनों पुरुषार्थ मान्य रहे हैं। किन्तु उनकी व्यवस्था तात्कालिक समाज-शास्त्रों द्वारा की गई। जैन आचार्यों ने लौकिक मान्यता प्राप्त त्रिवर्ग को लौकिक-शास्त्र का ही विषय बतलाया। उन्होंने उसकी व्यवस्था नहीं दी। उन्होंने केवल आध्यात्मिक मूल्यों की चर्चा की और एक मोक्ष-दर्शन के लिए यही अधिकृत बात हो सकती है / एक समाज-शास्त्री के लिए मोक्ष की चर्चा प्रासंगिक हो सकती है, अधिकृत नहीं। इसी प्रकार एक मोक्ष शास्त्री के लिए सामाजिक तत्व-अर्थ और काम की चर्चा प्रासंगिक हो सकती है, अधिकृत नहों। १-मनुस्मृति, 21224 : धर्माथ वुच्यते. श्रेयः, कामार्थों धर्म एव च / अर्थ एवेह वा श्रेयः त्रिवर्ग इति तु स्थितिः // २-कोटिल्य अर्थशास्त्र, 1173 : अर्थ एव प्रधानः इति कोटल्यः अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति / ३-महाभारत, अनुशासन पर्व 115 / 47 : प्रवृत्तिलक्षणो धर्मः, प्रजाणिभिरुदाहृतः। यथोक्तं राजशार्दूल ! न तु तन्मोक्षकाक्षिणाम् // ४-महाभारत, शान्तिपर्व 8 / 17 : अर्थाद्धर्मश्च कामश्च, स्वर्गश्चैव नराधिप / प्राणयात्रापि लोकस्य, बिना ह्यर्थ न सिद्ध्यति // महाभारत, शान्तिपर्व 8 / 12 : पं विमं धममित्याहुर्धनादेष प्रवर्तते /