Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 7 ५-चर्या 201 जैन श्रमण समय की प्रामाणिकता का बहुत ध्यान रखते हैं / 'काले कालं समायरे'' - सब काम ठीक समय पर करो, यह उनका मुख्य सूत्र था / कालक्रम के अनुसार उनकी दिनचर्या की रूपरेखा इस प्रकार थी-दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में आहार और चौथे प्रहर में फिर स्वाध्याय / 2 रात के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में नींद और चौथे प्रहर में फिर स्वाध्याय / प्रतिलेखन प्रथम और चतुर्थ प्रहर के प्रारम्भ में किया जाता था।४ विहार और उत्सर्ग भी सामान्यतः तीसरे प्रहर में किए जाते थे। आवश्यकतावश ये कार्य अन्य समय में भी किए जाते थे। सेवा के लिए कोई निश्चित समय नहीं था। जब आवश्यकता होती, तभी वह की जाती। यह निश्चित है कि सेवा को प्राथमिकता दी जाती थी। शिष्य दिन के प्रारम्भ में ही आचार्य से प्रश्न करता-"भन्ते ! आप मुझे सेवा में नियुक्त करना चाहते हैं या स्वाध्याय में ?" आचार्य के सामने सेवाकार्य की आवश्यकता होती तो वे उसे सेवा में नियुक्त कर देते / यह आश्चर्य की बात है कि इस चर्या में धर्मोपदेश का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। इसके दो कारण हो सकते हैं--(१) धर्मोपदेश करना हर मुनि का काम नहीं था, इसलिए मुनि की सामान्य चर्या में उसका उल्लेख नहीं किया गया और (2) धर्मोपदेश स्वाध्याय का ही एक अंग है, इसलिए उसका पृथक् उल्लेख नहीं किया गया। सेवा की अपेक्षा कदाचित् होती है। आहार, नींद और उत्सर्ग-ये शरीर की अपेक्षाएँ हैं। विहार भी निरन्तर चर्या नहीं है / ध्यान साधना की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण काम है, अतः उसके लिए दो प्रहर का समय निश्चित किया गया। स्वाध्याय के लिए चार प्रहर का समय निश्चित किया, उसका अर्थ यह नहीं है कि जैन श्रमण ध्यान की अपेक्षा स्वाध्याय को अधिक महत्त्व देते थे, किन्तु उसके पीछे एक विशेष दृष्टि थी। उस समय सारा श्रुत कण्ठस्थ था। लिखने की परम्परा नहीं थी। श्रुत-ज्ञान की परम्परा को अविच्छिन्न रखने के लिए स्वाध्याय में समय लगाना अपेक्षित था। १-उत्तराध्ययन, 1131 / २-वही, 26 / 12 / ३-वही, 26 / 18 / ४-वही, 26 / 8,21 // ५-वही, 26 / 9-10 / 26