Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ खण्ड 1. प्रकरण : 7 २-योग 187 शरीर की समता का मन पर असर होता है और मन की समता का चेतना पर असर होता है। चेतना की अस्थिरता मानसिक विषमता की स्थिति में ही होती है। लाभ-अलाभ, सुख-दुःख आदि स्थितियों से मन जितना विषम होता है, उतनी ही चंचलता होती है। उन स्थितियों के प्रति मन का कोई लगाव नहीं होता, तब वह सम होता है / उस स्थिति में चेतना सहज ही स्थिर होती है / यही अवस्था ध्यान है। इसीलिए आचार्य शुभचन्द्र ने समभाव को ध्यान माना है। आचार्य हेमचन्द्र का अभिमत है कि जो व्यक्ति समता की साधना किए बिना ध्यान करता है, वह कोरी विडम्बना करता है / ध्यान और शारीरिक संहनन जन-परम्परा में कुछ लोग यह मानने लगे थे कि वर्तमान समय में ध्यान नहीं हो सकता / क्योंकि आज शरीर का संहनन उतना दृढ़ नहीं है जितना पहले था। ध्यान के अधिकारी वे ही हो सकते हैं, जिनका शारीरिक संहनन उत्तम हो। तत्त्वार्थ सूत्र में भी यही बताया गया है कि ध्यान उसी के होता है, जिसका शारीरिक-संहनन उत्तम होता है। यह चर्चा विक्रम की प्रथम शताब्दी के आसपास ही प्रारम्भ हो चकी थी। उसी के प्रति आचार्य कुन्दकुन्द ने अपना अभिमत प्रकट किया था- "इस दुस्सम-काल में भी आत्म-स्वभाव में स्थित ज्ञानी के धर्म्य-ध्यान हो सकता है। जो इसे नहीं मानता, वह अज्ञानी हैं।"४ आचार्य देवसेन ने भी इस अभिमत से सहमति प्रकट की थी। यह चर्चा विक्रम की 10 वीं शताब्दी में भी चल रही थीं। रामसेन ने भी इस प्रसंग पर लिखा है-"जो लोग वर्तमान में ध्यान होना नहीं मानते वे अर्हत्-मत से अनभिज्ञ हैं। उनके अनुसार शुक्ल ध्यान के योग्य शारीरिक संहनन अभी प्राप्त नहीं है, किन्तु धर्म्य-ध्यान के योग्य संहनन आज भी प्राप्त हैं।"६ जन-परम्परा में ध्यान करने की प्रवृत्ति का ह्रास हुआ, उसका एक कारण यह .१-ज्ञानार्णव, 27 / 4 / २-योगशास्त्र, 4 / 112 / समत्वमवलम्च्याथ, ध्यानं योगी समाश्रयेत् / बिना समत्वमारब्धे, ध्याने स्वात्मा विडम्ब्यते // ३-तत्त्वार्थ सूत्र, 9 / 27 / ४-मोक्खपाहुड, 73-76 / ५-तत्त्वसार, 14 / ६-तत्त्वानुशासन, 82-84 //