Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 152 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / ' और बाई ऊरु के आर दायाँ पैर रखा जाता है, उसे 'वीरासन' कहते हैं। जिसमें . पैरों की गाँठ बराबर रहती है, उसे 'सुखासन' कहते हैं।' दण्डायत बृहत्कल्प भाष्य वृत्ति के अनुसार इसका अर्थ है 'दण्ड की भाँति लम्बा होकर पैर पसार कर बैठना।२ आचार्य हेमचन्द्र और आचार्य शङ्कर के अभिमत में यह बैठ कर किया जाने वाला आसन है। उनके अनुसार यह आसन बैठ कर, पैरों को फैला कर टखनों, अंगठों और घुटनों को सटा कर किया जाता है। ___किन्तु अपराजित सूरि ने उसे 'शयनयोग' माना है / उनके अनुसार वह दण्ड की भाँति शरीर को लम्बा कर, सीधा सोकर किया जाता है / 4 वर्तमान में करणीय आसन जैन-परम्परा में कठोर-आसन और सुखासन-दोनों प्रकार के आसन प्रचलित थे, किन्तु विक्रम की सहस्राब्दी के अन्तिम चरण में कुछ आचार्यों की यह धारणा बन गई कि वर्तमानकाल में शारीरिक शक्ति की दुर्बलता के कारण कायोत्सर्ग और पर्यङ्क--ये दो आसन ही प्रशस्त हैं / 5 ... ___आसन तीन प्रयोजनों से किए जाने थे-(१) इन्द्रिय-निग्रह के लिए, (2) विशिष्ट विशुद्धि के लिए और (3) ध्यान के लिए / विशिष्ट विशुद्धि के लिए तथा किंचित् मात्रा में इन्द्रिय-निग्रह के लिए किए जाने वाले आसन उग्र होते इसलिए उन्हें काय-क्लेश तप की १-उपसकाध्ययन, 39732 / २-बृहत्कल्प भाज्य, गाथा 5954, वृत्ति : दण्डस्येवायतं-पादप्रसारणेन दीर्घ यद् आसन तद् दण्डासनम् / ३-(क) योगशास्त्र, 4 / 131 : श्लिष्टांगुली श्लिष्टगुल्फो भूश्लिप्टोर प्रसारयेत् / यत्रोपविश्य पादौ तद्दण्डासनमुदीरितम् // (ख) पातञ्जल योगसूत्र, 2146, माज्य-विवरण : समगुल्फो समांगुठो प्रसारयन् समजानू पादौ दण्डवद्ये नोपविशेत तत् दण्डासनम्। ४-मूलाराधना, 3 / 225, विजयोदया वृत्ति : दण्डवदायतं शरीरं कृत्वा शयनम् / ५-ज्ञानार्णव, 28 / 12 / कायोत्सर्गश्च पर्यः, प्रशस्तं कैश्चिदीरितम् / देहिनां वीर्यवैकल्यात्, कालदोषेण सम्प्रति //