Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 २-योग 166 सिद्धसेन गणि के अनुसार अनुप्रेक्षा का अर्थ है 'ग्रन्थ और अर्थ का मानसिक अभ्यास करना' / इसमें वर्णो का उच्चारण नहीं होता और आम्नाय में वर्णों का उच्चारण होता है, यही इन दोनों में अन्तर है।' अनुप्रेक्षा के उक्त अर्थ के अनुसार उसे आम्नाय से पूर्व रखना भी अनुचित नहीं है। आम्नाय, घोषविशुद्ध, परिवर्तन, गुणन और रूपादान-ये आम्नाय या परिवर्तना के पर्यायवाची शब्द हैं / अर्थोपदेश, व्याख्यान, अनुयोगवर्णन, धर्मोपदेश-ये धर्मोपदेश या धर्मकथा के पर्यायवाची शब्द हैं / (5) ध्यान साधना-पद्धति में ध्यान का सर्वोपरि महत्त्व रहा है। वह हमारी चेतना की ही एक अवस्था है। उसका अनुसन्धान और अभ्यास सुदूर अतीत में हो चुका था। कोई भी आध्यात्मिक धारा उसके बिना अपने साध्य तक नहीं पहुंच सकती थी / छान्दोग्य उपनिषद् के ऋषि ध्यान के महत्व से परिचित थे। किन्तु छान्दोग्य में उसका विकसित रूप प्राप्त नहीं है। बुद्र ने ध्यान को बहुत महत्त्व दिया था। महावीर की परम्परा में भी उसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त था / योगदर्शन में भी उसका महत्त्व स्वीकृत है। उत्तरवर्ती उपनिषदों में भी उसे बहुत मान्यता मिली है। भारतीय साधना को समग्र धाराओं ने उसे सतत प्रवाहित रखा। चित्त और ध्यान __मन को दो अवस्थाएं हैं-(१) चल ओर (2) स्थिर / चल अवस्था को 'चित्त' और १-तत्त्वार्थ, 9 / 25 भाज्यानुसारि टीका : सन्देहे सति ग्रन्थार्थयोर्मनसाऽभ्यासोऽनुप्रेक्षा। न तु बहिर्वर्णोच्चारणमनुश्रावणीयम् / आम्नायोऽपि परिवर्तनं उदात्ता दिपरिशुद्धमनुश्रावणीयमभ्यासविशेषः / २-वही, 9 / 25 भाज्यानुसारि टीका : आम्नायो घोषविशुद्धं परिवर्तनं गुणनं रूपादानमित्यथः / * ३-वही, 9 / 25 भाज्यानुसारि टीका : अर्थोपदेशो व्याख्यान अनुयोगवर्णनं धर्मोपदेश इत्यनन्तरम् / / ४-छान्दोग्य उपनिषद्, 7 / 6 / 1-2 : 22