Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 7 २-योग कोटि में रखा गया। ध्यान के लिए कठोर आसन का विधान नहीं है। जिस आसन से मन स्थिर हो, वही आसन विहित है।' जिनसेन ने ध्यान की दृष्टि से शरीर की विषम स्थिति को अनुपयुक्त बतलाया। उन्होंने लिखा-"विषम आसनों से शरीर का निग्रह होता है, उससे मानसिक पीड़ा और विमनस्कता। विमनस्कता की स्थिति में ध्यान नहीं हो सकता। अतः ध्यान-काल में सुखासन ही इष्ट है। कायोत्सर्ग और पर्यङ्क- दो आसन सुखासन हैं, शेष सब विषम आसन हैं / इन दोनों में भी मुख्यतः पर्यङ्क ही सुखासन है / " 2 .... जिनसेन ने ध्यान के लिए सुखासन की उपयुक्तता स्वीकृत की, किन्तु कठोर आसनों को सर्वथा अनुपयुक्त नहीं माना। कायिक दुःखों की तितिक्षा, सुखासक्ति की हानि और धर्म-प्रभावना के लिए उन्होंने काय-क्लेश का समर्थन किया। शुभचन्द्र और हेमचन्द्र ने ध्यान के लिए किसी आसन का विधान नहीं किया। उसे ध्यान करने वाले की इच्छा पर ही छोड़ दिया। अमितगति ने पद्मासन, पर्यङ्कासन, १-(क) ज्ञानार्णव, 28 / 11 : येन येन सुखासीना, विदध्यु निश्चलं मनः / तत्तदेव विधेयं स्यान्मुनिभिर्बन्धु रासनम् // (ख) योगशास्त्र, 4 / 134 : जायते येन येनेह, विहितेन स्थिरं मनः / तत् तदेव विद्यातव्यमासनं ध्यानमासनम् // २-महापुराण 21170-72 : विसंस्थुलासनस्थस्य, ध्रुवं गात्रस्य निग्रहः / तन्निग्रहान्मनःपीडा, ततश्च विमनस्कता // वैमनस्ये च किं ध्यायेत्, तस्मादिष्टं सुखासनम् / कायोत्सर्गश्च पर्यक, स्तोतोऽन्यविषमासनम् // तदवस्थाद्वयस्यैव, प्राधान्यं ध्यायतो यतेः / प्रायस्तत्रापि पल्यंङ्कम्, आमनन्ति सुखासनम् / / ३-वही, 20191: कायासुखतितिक्षार्थ, सुखासक्तेश्च हानये / धर्मप्रभावनार्थञ्च, कायक्लेशमुपेयुषे //