Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 166 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / (6) तप---- उपवास, बेला आदि करना / (7) छेद पाप-निवृत्ति के लिए संयम काल को छेद कर कम कर देना। (8) मूल---- पुनः व्रतों में आरोपित करना--नई दीक्षा देना / (9) अनवस्थापना- तपस्या-पूर्वक नई दीक्षा देना। (10) पारांचिक- भर्त्सना एवं अवहेलना पूर्वक नई दीक्षा देना / / तत्त्वार्थ सूत्र (6 / 22) में प्रायश्चित्त के 6 ही प्रकार बतलाए गए हैं, 'पारांचिक' का उल्लेख नहीं है। (2) विनय विनय आभ्यन्तर-तप का दूसरा प्रकार है। स्थानांग ( 71585 ), भगवती (25 / 7 / 802) और औपपातिक (सू० 20) में विनय के 7 भेद बतलाए गए हैं (1) ज्ञान-विनय- ज्ञान के प्रति भक्ति, बहुमान आदि करना। (2) दर्शन-विनय-- गुरु की शुश्रूषा करना, आशातना न करना / (3) चारित्र-विनय--- चारित्र का यथार्थ प्ररूपण और अनुष्ठान करना / (4) मनोविनय-- अकुशल मन का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति / (5) वचनयोग---- अकुशल वचन का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति / (6) काय-विनय- अकुशल काय का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति / (7) लोकोपचार-विनय- लोक-व्यवहार के अनुसार विनय करना / तत्त्वार्थ सूत्र (8 / 23) में विनय के प्रकार चार ही बतलाए गए हैं-(१) ज्ञानविनय, (2) दर्शन-विनय, (3) चारित्र-विनय और (4) उपचार-विनय / (3) वैयावृत्य (सेवा) वैयावृत्त्य आभ्यन्तर-तप का तीसरा प्रकार है / उसके दस प्रकार हैं (1) आचार्य का वैयावृत्त्य / (2) आध्याय का वैयावृत्त्य / (3) स्थविर का वैयावृत्त्य / (4) तपस्वी का वैयावृत्त्य / (5) ग्लान का वैयावृत्त्य / १-(क) स्थानांग, 101733 / 17801 (ग) औपपातिक, सूत्र 20 /