Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु 43 वैदिक परम्परा के मूल में यह मान्यता स्थिर रही है कि वस्तुत: आश्रम एक ही है, वह है गृहस्थाश्रम / बौधायन ने लिखा है-"प्रह्लाद के पुत्र कपिल ने देवों के प्रति स्पर्धा के कारण आश्रम-भेदों की व्यवस्था की है, इसलिए मनीषी वर्ग को उसका स्वीकार नहीं करना चाहिए।" ___ इसी भूमिका के संदर्भ में ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा था"राजर्षे ! गृहवास घोर आश्रम है / तुम इसे छोड़ दूसरे आश्रम में जाना चाहते हो, यह उचित नहीं / तुम यहीं रहो और यहीं धर्म-पोषक कार्य करो।" इसके उत्तर में नेमि राजर्षि ने जो कहा वह श्रमण-परम्परा का पक्ष है। उन्होंने कहा-"ब्राह्मण ! मास-मास का उपवास करने वाला और पारण में कुश की नोक पर टिके उतना स्वल्प आहार खाने वाला गृहस्थ मुनि-धर्म की सोलहवीं कला की तुलना में भी नहीं जाता।"२ ___ श्रमण-परम्परा में जीवन के दो ही विकल्प मान्य रहे है-गृहस्थ और श्रमण / श्रमण कोई गृहस्थ ही बनता है। अतः जीवन का प्रारम्भिक रूप गृहस्थ ही है श्रामण्य विवेक द्वारा लक्ष्य पूर्ति के लिए स्वीकृत पक्ष है। वाशिष्ठ का यह अभिमत-"सभी आश्रमी गृहस्थ-आश्रम में स्थित होते हैं"-यदि इस आशय पर आधारित हो कि सब आश्रमों का मूल गृहस्थाश्रम है तो वह श्रमण-परम्परा में भी अमान्य नहीं है। वाशिष्ठ ने स्वयं आगे लिखा है-"जैसे माता के सहारे सब जीव जीते हैं, वैसे ही गृहस्थ के सहारे सब भिक्षु जीते हैं।' 3 यह तथ्य उत्तराध्ययन में याचना-परीषह के रूप में स्वीकृत है : "अरे ! अनगार-भिक्षु की यह दैनिक-चर्या कितनी कठिन है कि उसे सब कुछ याचना से मिलता है। उसके पास अयाचित कुछ भी नहीं होता।"४ किन्तु श्रमण-परम्परा वैदिक परम्परा के इस अभिमत से सहमत नहीं कि गृहस्थआश्रम संन्यास की तुलना में श्रेष्ठ है। इसीलिए कहा है १-बौधायन धर्मसूत्र, 2 / 6 / 30 : प्रह्लादिहवे कपिलो नामासुर आस स एतान्भेदांश्चकार देवैः सह स्पर्धमान स्तान् मनीषी नाद्रियेत। २-उत्तराध्ययन, 9 / 42-44 / ३-वाशिष्ठ धर्मशास्त्र, 8 / 16 : यथा मातरमाश्रित्य, सर्वे जीवन्ति जन्तवः / एवं गृहस्थमाश्रित्य, सर्वे जीवन्ति भिक्षुकाः // ४-उत्तराध्ययन, 2028 /