Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 40 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन भिक्षा के लिए जाते थे और यज्ञ की व्यर्थता और आत्मिक-यज्ञ की सफलता का प्रतिपादन करते थे। महात्मा बुद्ध ने भी अल्प सामग्री के महान् यज्ञ का प्रतिपादन किया था और वे भिक्षु-संघ के साथ भोजन के लिए यज्ञ-मण्डल में भी गए थे। कूटदंत ब्राह्मण के प्रश्न का उत्तर देते हुये उन्होंने पाँच महाफलदायी यज्ञों का उल्लेख किया था (1) दान यज्ञ (2) त्रिशरण यज्ञ (3) शिक्षापद यज्ञ (4) शील यज्ञ (5) समाघि यज्ञ सांख्य-दर्शन को अवैदिक-परम्परा या श्रमण-परम्परा की श्रेणि में मानने का यह एक बहुत बड़ा आधार है कि वह यज्ञ का प्रतिरोधी था। यज्ञ का प्रतिरोधक वैदिक-मार्ग नहीं हो सकता। अतः उपनिषद् की धारा में जो यज्ञ-प्रतिरोध हुआ, उसे अवैदिक-परम्परा के विचारों की परिणति कहना अधिक संगत है। जाति की अतात्त्विकता वैदिक लोग जाति को तात्त्विक मानते थे। ऋग्वेद के अनुसार ब्राह्मण प्रजापति के मुख से उत्पन्न हुआ, राजन्य उसको बाहु से उत्पन्न हुआ, वैश्य उसके ऊरु से उत्पन्न हुआ और शूद्र उसके पैरों से उत्पन्न हुआ। श्रमण-परम्परा जाति को अतात्त्विक मानती थी। ब्राह्मण जन्मना जाति के समर्थक थे। उस स्थिति में श्रमण इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते कि जाति कर्मणा होती है। महात्मा बुद्ध मनुष्य जाति की एकता का प्रतिपादन बहुत प्रभावशाली पद्धति से करते थे। वासेट्ठ और भारद्वाज विवाद का परिसमापन करते हुए उन्होंने कहा___"मैं क्रमशः यथार्थ रूप से प्राणियों के जाति-भेद को बताता हूँ। जिससे भिन्न-भिन्न जातियाँ होती हैं। तृण वृक्षों को जानो यद्यपि वे इस बात का दावा नहीं करते, फिर भी उनमें जातिमय लक्षण हैं, जिससे भिन्न-भिन्न जातियाँ होती हैं। १-उत्तराध्ययन, 12 / 38-44,2515-16 / २-दीघनिकाय, 115, पृ० 53-55 / ३-ऋग्वेद, मं० 10, अ० 7, सू० 91, मं० 12 /