Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 38. उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन जाना।" उन्होंने उत्तर की भाषा में कहा--- "पिता ! पुत्र त्राण नहीं होते, इसलिए उन्हें उत्पन्न करना अनिवार्य धर्म नहीं है।"२ वैदिक धारणा ठीक इस धारणा के विपरीत है। तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है-"जन्म प्राप्त करने वाला ब्राह्मण तीन ऋणों के साथ ही जन्म लेता है। ऋषियों का ऋण ब्रह्मचर्य से, देवों का ऋण यज्ञ से तथा पितरों का ऋण प्रजोत्पादन से चुकाया जा सकता है / पुत्रवान्, यजनशील तथा ब्रह्मचर्य को पूर्ण करने वाला मानव उऋण होता है / "3 इसी प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण में बताया है-"इक्ष्वाकु-वंश के वेधस राजा का पुत्र राजा हरिश्चन्द्र निस्संतान था। उसके सौ पत्नियाँ थीं। परन्तु उसके कोई पुत्र न हुआ। उसके घर में पर्वत और नारद दो ऋषि रहते थे। उसने नारद से पूछा-"सभी पुत्र की इच्छा करते हैं, ज्ञानी हो या अज्ञानी / हे नारद ! बताओ, पुत्र से क्या लाभ होता है ?" ' नारद ने इस एक प्रश्न का दस श्लोकों में उत्तर दिया। उनमें पहला श्लोक इस प्रकार है ___ ऋण मस्मिन् सनयत्यमृतत्त्वं च गच्छति / पिता पुत्रस्य जातस्य पश्येच्चेज्जीवतोमुखम् // -अगर पिता जीते हुए पुत्र का मुख देख ले तो उसका ऋण छूट जाता है और वह अमर हो जाता है। उक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि श्रमण-परम्परा में संन्यास की प्रधानता रही है और वैदिक-परम्परा में पुत्र उत्पन्न करने की। उस स्थिति में इस उपनिषद् का यह वाक्य'तत्पूर्वे विद्वांसः प्रजां न कामयंते' बहुत ही अर्थ-सूचक है। - जैन-दर्शन का संन्यास नितान्त आत्मवाद पर आधारित है। आचार की आराधना वही कर पाता है, जो आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी होता है / आत्म-जिज्ञासा के बिना संन्यास का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। इस धारणा के आलोक में हम सहज ही यह देख पाते हैं कि आत्म-जिज्ञासा पर आधारित संन्यास (जिसका संकेत बृहदारण्यक उपनिषद् देता है) श्रमणों की दीर्घकालीन परम्परा है / १-उत्तराध्ययन, 1406 / २-वही, 14 / 12 / ३-तैत्तिरीय संहिता, 6 / 3 / 10 / 5 / ४-ऐतरेय ब्राह्मण, 7 वीं पंचिका, अध्याय 3 / ५-आचारांग, 1111115 /