Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
View full book text
________________ खण्ड : 1 प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु 31 ऐसी बात नहीं है। पर इन दो प्रकार के दोषों को देखने वाले तीसरे प्रकार के भी संन्यासी थे और उन लोगों में पार्श्व मुनि के शिष्यों को पहला स्थान देना चाहिए।" भगवान् पाश्व और महात्मा बुद्ध देवसेनाचार्य (आठवीं सदी) के अनुसार महात्मा बुद्ध आरम्भ में जैन थे। जैनाचार्य पिहितास्रव ने सरयू-नदी पर स्थित पलाश नामक ग्राम में पार्श्व के संध में उन्हें दीक्षा दी और मुनि 'बुद्धकीर्ति' नाम रखा। ___ श्रीमती राइस डेविड्स का भी मत है कि बुद्ध पहले गुरु की खोज में वैशाली पहुंचे। वहाँ आचार और उदक से उनकी भेंट हुई, फिर बाद में उन्होंने जैन-धर्म की तप-विधि का अभ्यास किया। डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी के अभिमत में बुद्ध ने पहले आत्मानुभव के लिए उस काल में प्रचलित दोनों साधनाओं का अभ्यास किया। आलार और उद्रक के निर्देशानुसार ब्राह्मण-मार्ग का और तब जैन-मार्ग का और बाद में अपने स्वतंत्र साधनामार्ग का विकास किया। . महात्मा बुद्ध पार्श्व की परम्परा में दीक्षित हुए या नहीं इन दोनों प्रश्नों को गौण कर हम इस रेखा पर पहुँचते हैं कि उन्होंने अहिंसा आदि तत्त्वों का जो निरूपण किया, उसका बहुत बड़ा आधार भगवान् पार्श्व की परम्परा है। उनके शब्द-प्रयोग भी पार्श्व की परम्परा के जितने निकट हैं, उतने अन्य किसी परम्परा के निकट नहीं है। आज भी त्रिपिटक और द्वादशांगी का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले सहज ही इस कल्पना पर पहुंच जाते हैं कि उन दोनों का मूल एक है। विचार-भेद की स्थिति में सम्प्रदाय परिवर्तन की रीति उस समय बहुत प्रचलित थी। पिटकों व आगमों के अभ्यासी के लिए यह अपरिचित विषय नहीं है। महात्मा बुद्ध के प्रमुख शिष्य मोद्गल्यायन भी पहले पार्श्वनाथ को शिष्य-परम्परा में थे। वे भगवान् महावीर की किसी प्रवृत्ति से रुष्ट होकर .बुद्ध के शिष्य बन गए। १-भारतीय संस्कृति और अहिंसा, पृ० 41, 43 / २-दर्शनसार, 6H सिरिपासणाहतित्थे, सरयूतीरे पलासणयरत्यो / 'पिहियासवस्स सिस्सो, महासुदो वुड्ढकित्ति मुणी // 3-Gautma, the man, 22/5. ४-हिन्दू सभ्यता, पृ० 239 / ५-धर्म परीक्षा, अध्याय.१८॥