Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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चाचा (बप्प शाक्य ) निर्ग्रन्य श्रावक था । पार्श्वपत्यों तथा निर्ग्रन्थ श्रावकों इस प्रकार के और भी अनेक उल्लेख मिलते हैं, जिनसे निर्ग्रन्थ धर्मकी सत्ता बुद्ध से पूर्व भली-भाँति सिद्ध हो जाती है ।"
बौद्ध ग्रन्थोंमें निग्नंन्योंके चातुर्यामका उल्लेख मिलता है और उसे निर्ग्रन्थ नातपुत्र ( महावीर ) का धर्म कहा गया है, पर इसका सम्बन्ध पाश्र्वनाथकी परम्पराके साथ है, महावीरके साथ नहीं । असः जैन मान्यतामें चातुर्यामका उल्लेख पार्श्वनाथके साथ पाया जाता है, महावोरके साथ नहीं। महावीर तो पंचयाम व्रतके संस्थापक है। बौद्धधर्म में निन्योंकी जिन व्यवस्थाओं का वर्णन आया है, वह महावीरकी न होकर पार्श्वनाथकी परम्पराका होना चाहिये ।
मज्झिमनिकायके 'महासिंहनादत्त में (०४८-५०) बुद्धने अपने प्रारम्भिक कठोर तपस्वी जीवनका वर्णन करते हुए तपके चार प्रकार बतलाये हैं, जिनका उन्होंने स्वयं पालन किया था । वे चार रूप हैं-सपस्विता, रुक्षता, जुगुप्सा और प्रविविक्तता । तपस्विता का अर्थ है नंगे रहना, हाथमें भिक्षा भोजन करना, सिर-दाढ़ीके बालोंको उखाड़ना, कंटकाकीर्ण स्थल पर शयन करना । रुक्षताका अर्थ है शरीरपर मैल धारण करना या स्नान न करना, अपने मैलको न अपने हाथ से परिमार्जित करना और न दूसरेसे परिमार्जित कराना | जुगुप्साका अर्थ है - जलकी बूंदतक पर दया करना और प्रविधिकताका भर्थं है— दनोंमें अकेले रहना ।
ये चारों तप निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय में आचरित होते थे। भगवान् महावीरने स्वयं इनका पालन किया था तथा अपने निर्ग्रन्थोंके लिये मी. इनका विधान किया था । किन्तु बुद्धके दीक्षा लेनेके समय महावीरके निर्ग्रन्थ सम्प्रदायका प्रवर्तन नहीं हुआ था । अतः अवश्य ही वह निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय महावीरके पूर्वज भगवान् पारवनाथका था । जिसके उक्त चारों तथोंको बुद्धने धारण किया था । किन्तु पीछे उनका परित्याग कर दिया था। इस प्रकार तीर्थंकर पार्श्वनाथकी ऐतिहासिकता असंदिग्ध है। जैनधर्म अहिसापरक है । यह क्रान्तिमें आस्था रखता है और आक्षेप एवं दुराग्रह को स्थान नहीं देता । तीर्थंकरोंकी परम्परासे उपयुक्त तथ्य स्पष्ट हैं ।
१. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, मध्यप्रदेशशासन - साहित्यपरिषद्, भोपाल, सन् १९६२, ९० २१.
२. जैन साहित्य का इतिहास, पूर्व पीठिका, श्रीगणेश प्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, प्रथम-संस्करण, पृ० २१२-२१३.
२० तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
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