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- चौदह -
१. भगवती आराधना और उसके टीकाकार अपराजित दोनों यदि यापनीय हैं तो उनके ग्रन्थ से यापनीय संघ के आचारविषयक निम्न लक्षण फलित होते है
(क ) यापनीय आचार का औत्सर्गिक अंग अचेलत्व अर्थात् नग्नत्व
(ख ) यापनीय संघ में मुनि की तरह आर्याओं का भी मोक्षलक्षी स्थान है। अवस्थाविशेष में उनके लिए भी निर्वसनभाव का उपदेश है।
(ग) यापनीय आचार में पाणितल-आहार का विधान है और कमण्डलु-पिच्छी के अतिरिक्त और किसी उपकरण का औत्सर्गिक विधान नही है।
उक्त लक्षण उमास्वाति के भाष्य और प्रशमरति जैसे ग्रन्थों के वर्णन के साथ बिलकुल मेल नही खाते, क्योकि उनमे स्पष्ट रूप से मुनि के वस्त्र-पात्र का वर्णन है। कही भी नग्नत्व का औत्सर्गिक विधान नही है एवं कमण्डलु-पिच्छी जैसे उपकरण का तो नाम तक नही है।
२. श्री प्रेमीजी की एक दलील यह भी है कि पुण्य-प्रकृति आदि विषयक उमास्वाति का मन्तव्य अपराजित की टीका में पाया जाता है। परन्तु गच्छ तथा परम्परा की तत्त्वज्ञानविषयक मान्यताओ के इतिहास से स्पष्ट है कि कभी-कभी एक ही परम्परा में परस्पर विरुद्ध दिखाई देनेवाली सामान्य एव छोटी मान्यताएँ पाई जाती हैं। इतना ही नही अपितु दो परस्पर विरोधी मानी जानेवाली परम्पराओ में भी कभीकभी ऐसो सामान्य व छोटी-छोटो मान्यताओ का एकत्व मिलता है। ऐसी स्थिति में वस्त्रपात्र के समर्थक उमास्वाति का वस्त्रपात्र के विरोधी यापनीय सघ की अमुक मान्यताओं के साथ साम्य हो तो कोई अचरज की बात नही।
पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री ने तत्त्वार्थसूत्र के अपने विवेचन की प्रस्तावना में गृध्रपिच्छ को सूत्रकार और उमास्वाति को भाष्यकार बतलाने का प्रयत्न किया है। पर यह प्रयत्न जितना इतिहास-विरुद्ध है उतना ही तर्कबाधित भी है। उन्होने जब यह लिखा कि शुरू की कारिकाओ मे ऐसी कोई कारिका नही है जो उमास्वाति को सूत्रकार सूचित करती हो तब जान पड़ता है वे एकमात्र अपना मन्तव्य स्थापित करने की ओर इतने झुक गए कि जो अर्थ स्पष्ट है वह भी या तो उनके ध्यान में आया नही या उन्होने उसकी उपेक्षा कर दी। अन्य का रकाओं की कथा छोड़
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