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- तेरह - उत्पादव्ययादि तीन सूत्रों ( ५. २९-३१ ) को सभाष्य सिद्धसेनों प वृत्ति का विस्तृत विवरण है।
पिछले २१ वर्षों में प्रकाशित व निर्मित तत्त्वार्थविषयक साहित्य का उल्लेख यहाँ इसलिए किया है कि २१ वर्षों के पहले जो तत्त्वार्थ के अध्ययन-अध्यापन का प्रचार था वह पिछले वर्षों में किस तरह और कितने परिमाण में बढ़ गया है और दिन-प्रतिदिन उसके बढ़ने की कितनी अधिक सम्भावना है। पिछले वर्षो के तत्वार्थ-विष पक तीनों मम्प्रदायों के परिशीलन में मेरे 'गुनगती विवेचन' का कितना हिस्सा है यह बतलाना मेग काम नही। कर भी इतना अवश्य कह सकता हूँ कि तीना सम्प्रदायो के योग्य अधिकारियो ने मेरे 'गजगती विवेचन' को इतना अधिक आनाया कि मे उसकी कल्पना भी नही करता था।
तत्त्वार्थ के प्रथम हिन्दो सम्ण के प्रकाशित होने के बाद तत्त्वार्थ सूत्र, उसका भाष्य, वाचक उपस्वाति और तत्त्वार्थ की अनेक टीकाएँ इत्यादि विषयो पर अनेक लेखको के अनेक लख निकले है। परन्तु यहाँ मुझे श्रामात् नाथूराम जा प्रेमा के लख के विषय मे ही कुछ कहना है। प्रेमाजी का 'भारतीय विद्या' क मिघा स्मारक अक मे 'वाचक उमास्वाति का सभाष्य तत्त्वाथसूत्र और उनका सम्प्रदाय' नामक लेख प्रकाशित हुआ है। उन्होने दाघ ऊहापोह के बाद वह बतलाया है कि वाचक उमास्वानि यापनीय सघ के आचार्य थे। उनकी अनेक दलीलें ऐसी है जो उनके मंतव्य को मानने के लिए आकृष्ट करती है, इसलिए उनके मन्तव्य की विशेष छानबीन करने के लिए सटोक भगवतो आराधना का खास परिशोलन प० दलसुख मालवणिया ने किया। फलस्वरूप जो नाट उन्हाने तैयार किए उन पर हम दोनो ने विचार किया । विचार करते समय भगवतो आराधना, उसकी टीकाएं और बृहत्कल्पभाष्य आदि ग्रन्थो का आवश्यक अवलोकन भी किया गया । यथासम्भव इस प्रश्न पर मुक मन से विचार किया गया । आखिर हम दोनों इस नतीजे पर पहुंचे कि वाचक उमास्वाति यापनीय न थे, वे सचेल परम्परा के थे, जैसा कि हमने प्रस्तावना मे दरसाया है। हमारे अवलोकन और विचार का निष्कर्ष संक्षेप में इस प्रकार है :
१. देखे-अनेकान्त, वर्ष ३, अंक १,४, ११, १२; वर्ष ४, अंक १, ४, ६, ७, ८, ११, १२, वर्ष ५, अंक १-११; जैन सिद्धान्त भास्कर, वर्ष ८ और ९; जैन सत्यप्रकाश, वर्ष ६, अंक ४; भारतीय विद्या का सिंघी स्मारक अंक ।
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