________________
- ग्यारह -
इसका ध्यान रखते हुए जैन परिभाषा की जैनेतर परिभाषा के साथ तुलना करना। - ७. किसी एक ही विषय पर जहाँ केवल श्वेताम्बर या दिगम्बर अथवा दोनों के मिलकर अनेक मन्तव्य हों वहाँ कितना और क्या लेना और कितना छोडना इसका निर्णय सूत्रकार के आगय की निकटता और विवेचन के परिमाण की मर्यादा को ध्यान में रखकर स्वतन्त्र रूप से करना और किसी एक ही सम्प्रदाय के वशीभूत न होकर जैन तत्त्वज्ञान या सूत्रकार का ही अनुसरण करना ।
"इतनी बातें ध्यान में रखने पर भी प्रस्तुत विवेचन में भाष्य, उसकी वृत्ति, सर्वार्थसिद्धि एवं राजवार्तिक के ही अशों का विशेष रूप से आना स्वाभाविक है। क्योकि ये हो ग्रन्थ मूल सूत्रों की आत्मा को स्पर्श तथा स्पष्ट करते है । इनमें भी मैने प्राय भाष्य को ही प्राधान्य दिया है क्योंकि यह प्राचोन एव स्वोपज्ञ होने से सूत्रकार के आशय को अधिक स्पर्श करता है। ___"प्रस्तुत विवेचन में पहले की विशाल योजना के अनुसार तुलना नही की गई है। इसलिए न्यूनता को थोड़े-बहत अशो में दूर करने और तुलनात्मक प्रधानतावाली आधुनिक रसप्रद शिक्षण-प्रणाली का अनुसरण करने के लिए 'प्रस्तावना' मे तुलना सम्बन्धी कार्य किया गया है। प्रस्तावना मे की गई तुलना पाठक को ऊपर-ऊपर से बहत ही अल्प प्रतीत होगी। यह ठीक है, पर सूक्ष्म अभ्यासी देखेंगे कि यह अल्प प्रतीत होने पर भी विचारणीय अधिक है। प्रस्तावना में की जानेवाली तुलना में लम्बे-लम्बे विषयों और वर्णनो का स्थान नही होता, इसलिए तुलनोपयोगी मुख्य मुद्दों को पहले छाँटकर बाद में संभाव्य मुद्दों की वैदिक और बौद्ध दर्शनों के साथ तुलना की गई है। उन-उन महों पर ब्योरेवार विचार के लिए उन-उन दर्शनो के ग्रन्थों के स्थलों का निर्देश कर दिया गया है । इससे अभ्यास करनेवालों को अपनी बुद्धि का उपयोग करने का भी अवकाश रहेगा। इसी बहाने उनके लिए दर्शनांतर के अवलोकन का मार्ग भी खुल जाएगा, ऐसी आशा है।"
गुजरातो विवेचन के करीब २१ वर्ष बाद सन् १९५२ में हिन्दी विवेचन का दूसरा सस्करण प्रकाशित हुआ। इतने समय में तत्त्वार्थ से सम्बन्ध रखनेवाला साहित्य पर्याप्त परिमाण में प्रकाशित हआ है। भाषादृष्टि से संस्कृत, गुजराती, अग्रेजी और हिन्दी इन चार भाषाओ में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org