Book Title: Tattvarthasutra Hindi Author(s): Umaswati, Umaswami, Sukhlal Sanghavi Publisher: Parshwanath VidyapithPage 10
________________ - दस - उसके विकासक्रमानुसार प्रत्येक अभ्यासी के लिए सुलभ हो जाए। जैन और जैनेतर तत्त्वज्ञान के अभ्यासियों की संकुचित परिभाषाभेद को दीवाल तुलनात्मक वर्णन से टूट जाए और आज तक के भारतीय दर्शनों में या पश्चिमी तत्त्वज्ञान के चिन्तन मे सिद्ध और स्पष्ट महत्त्व के विषयों द्वारा जैन ज्ञानकोश समृद्ध हो, इस प्रकार से तत्त्वार्थ का विवेचन लिखा जाए। इस धारणा में तत्त्वार्थ विषयक दोनों सम्प्रदायो की किसी एक ही टोका के अनुवाद या सार को स्थान नहीं था। इसमे टीकाओ के दोहन के अतिरिक्त दूसरे भी महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थो के सार को स्थान था । परन्तु जब इस विशाल योजना ने मध्यममार्ग का रूप ग्रहण किया तव उसके पीछे की दृष्टि भी कुछ सकुचित हुई। फिर भी मैने इस मध्यममार्गी विवेचन-पद्धति मे मुख्य रूप से निम्न बातो का ध्यान रखा है : १. किसी एक ही ग्रन्थ का अनुवाद या सार न लिखकर या किसी एक ही सम्प्रदाय के मन्तव्य का बिना अनुसरण किए ही जो कुछ आज तक जैन तत्त्वज्ञान के अङ्ग के रूप मे पठन-चिन्तन में आया हो उसका तटस्थ भाव से उपयोग करना । २. विवेचन महाविद्यालय या कालेज के विद्याथियों की जिज्ञासा के अनुकूल हो तथा पुरातन प्रणाली से अध्ययन करनेवाले विद्याथियो को भी रुचिकर लगे इस प्रकार से साम्प्रदायिक परिभाषा को कायम रख कर सरल विश्लेषण करना । ३. जहाँ ठीक प्रतीत हो और जितना ठीक हो उतने ही अश मे संवाद के रूप में और शेष भाग मे बिना सवाद के सरलतापूर्वक चर्चा करना। ४. विवेचन में सूत्रपाठ एक ही रखना और वह भी भाष्य-स्वीकृत और जहाँ महत्त्वपूर्ण अर्थभेद हो वहाँ भेदवाला सूत्र देकर नीचे टिप्पणी" में उसका अर्थ देना। ५. जहाँ तक अर्थ दृष्टिसंगत हो वैसे एक या अनेक सूत्रों को माथ रखकर उतका अर्थ लिखना और एक साथ ही विवेचन करना। ऐसा करते हुए जहाँ विषय लम्बा हो वहाँ उसका विभाग करके शीर्षक द्वारा वक्तव्य का विश्लेषण करना । ६. बहुत प्रसिद्ध स्थल में बहुत अधिक जटिलता न आ जाए, १. अब ऐसी टिप्पणियाँ मूल सूत्रों मे दे दी गई है । देखे-पृ० १११-१३८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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