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- नौ -
निश्चित पद्धति को भी संकुचित करना पड़ा था, फिर भी पूर्व सस्कारों का एक साथ कभी विनाश नहीं होता, मानव-शास्त्र के इस नियम से मैं भी बद्ध था। आगरा में लिखने के लिए सोची गई और काम में लाई गई हिन्दी भाषा का संस्कार मेरे मन मे कायम था। इसलिए मैने उसी भाषा में लिखना शुरू किया। हिन्दी भाषा में दो अध्याय लिखे गए। इतने मे ही बीच में रुके हुए जन्मति के काम का सिलसिला पुनः प्रारम्भ हुआ और इसके प्रवाह में तत्त्वार्थ के कार्य को वही छोड़ना पड़ा। स्थूल रूप से काम चलाने की कोई आशा नही थी, पर मन तो अधिकाधिक कार्य कर ही रहा था। उसका थोड़ा-बहुत मूर्त रूप आगे चलकर दो वर्ष बाद अवकाश के दिनो में कलकत्ता में सिद्ध हुआ और चार अध्याय तक पहुंचा। उसके बाद अनेक प्रकार का मानसिक और शारीरिक दबाव बढ़ता ही गया, इसलिए तत्त्वार्थ को हाथ में लेना कठिन हो गया और पूरे तोन वर्ष अन्य कामो में बीत गए। सन् १९२७ के ग्रीष्मावकाश में लीमडो गया। तब फिर तत्त्वार्थ का काम हाथ में आया.और वह थोड़ा आगे बढा भी, लगभग छ अध्याय तक पहँच गया । पर अन्त मे मुझे प्रतीत हुआ कि अब सन्मति का कार्य पूर्ण करने के बाद हो तत्त्वार्थ को हाथ में लेना श्रेयस्कर है। इसलिए सन्मतितर्क का कार्य दुगुने वेग से करने लगा। पर इतने समय तक गुजरात में रहने से और इष्ट मित्रो के कहने से यह धारणा हुई कि पहले तत्त्वार्थ का गुजराती सस्करण निकाया जाए। यह नवीन संस्कार प्रबल था। पुराने संस्कार से हिन्दी भाषा मे छ: अध्यायों का लेखन हो गया था। हिन्दी से गुजगती करना शक्य और इष्ट होने पर भी उसके लिए समय नहीं था । शेष अश गुजराती मे लिखें तो भी प्रथम हिन्दो में लिखे हुए का क्या उपयोग ? योग्य अनुवादक प्राप्त करना भी सरल बात नहीं थी। ये सभी असुविधाएँ थी, पर भाग्यवश इनका भी अन्त आ गया। विद्वान् और सहृदय मित्र रसिकलाल छोटालाल परीख ने हिन्दी से गुजराती मे अनुवाद किया और शेष चार अध्याय मैने गुजरातो में ही लिख डाले। इन चार अध्यायो का हिन्दी अनुवाद श्री कृष्णचन्द्रजी ने किया है । इस तरह लगभग ग्यारह वर्ष पूर्व प्रारम्भ किया हुआ सकल्प पूर्ण हुआ ।
"पद्धति-पहले जब तत्त्वार्थ पर विवेचन लिखने की कल्पना आई तब निश्चित की गई योजना के पीछे दृष्टि यह थी कि सपूर्ण जैन तत्त्वज्ञान और जैन आचार का स्वरूप एक ही स्थान पर प्रामाणिक रूप में
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