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श्रीपालचरितम्
भाषाटीकासहितम्..
॥१८॥
अर्थ-यह राजाका बचन सुनके उम्बर राजा बोला हे महाराज! आपको ऐसा बचन कहनाभी युक्त नहीं है काग निंदनीय पक्षीके कंठमें सोनेरत्नकी माला कौन पहरावे अर्थात् मैं कागके तुल्य हूं और कन्या सोनेरत्नकी मालाके सदृश है ॥ ३७॥
एगमहं पुवकयं, कम्मं भुंजेमि एरिसमणज्झं । अवरं च कहमिमीए, जम्मं बोलेमि जाणंतो ॥३८॥ है अर्थ हे महाराज ! एकतो मैं ऐसा अनार्य पूर्वभवमें कर्म किया सो भोगवता हूं और जानता भया इस उत्तम
कन्याका जन्म कैसे डुबोऊं मेरेको यह कार्य करना युक्त नहीं है ॥ ३८॥ ताभो नरवर! जइ देसि, काविता देसु मज्झ अणुरूवं । दासिविलासिणिधूयं, नोवा ते होउ कल्लाणं ३९ ता अर्थ-इस कारणसे हे राजन् ! जो कोईभी कन्या देते हो तो मेरे योग्य दासी विलासिनीकी पुत्री देवो अथवा ऐसी कोई न होवे तो तुम्हारे कल्याण होवो मेरे इस कार्यसे सरा ॥ ३९॥ तो भणइ नरवरिंदो, भो भो महनंदिणी इमा किंपि।नो मज्झकयं मन्नइ, नियकम्मं चेव मन्नेइ ॥४०॥ - अर्थ-तब राजा बोले भो भो उम्बरराज ! यह मेरी पुत्री मेरा किया हुआ उपकार कुछभी नहीं मानती है केवल अपने कर्महीको प्रमाण करती है ॥४०॥ तेणं चिय कम्मेणं, आणीओतंसि चेव जीइ वरो।जइ सा नियकम्मफलं, पावइ ता अम्ह को दोसो
*KAISHISHIRISH
॥१८॥
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